मीडियाकर्मी सुरक्षा क़ानून पर पत्रकार मुकेश की निर्मम हत्या से उपजे गंभीर सवाल…

Raipur,  सुभाष मिश्र : छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित जिले बीजापुर में युवा पत्रकार मुकेश चन्द्राकर की निर्ममतापूर्वक हत्या को लेकर पत्रकार जगत में भारी रोष है । कांग्रेस और बीजेपी हर मुद्दे की तरह इसे अभी अपने-अपने चश्मे से देख रही है । अब जबकि मुकेश के हत्यारे गिरफ़्तार हो गये हैं , सरकार ने SIT गठित कर हत्या में शमिल ठेकेदार सुरेश चन्द्राकर के परिसर में बने सैप्टिक टैंक जिसमें मुकेश को मार कर छिपाया गया था , की खुदाई की गई है । साथ ही कथित हत्यारे सुरेश चंद्राकर के बैंक खातों को सील करने के साथ उसके अवैध क़ब्ज़ो को ज़मींदोज़ कर दिया है ।

छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने छत्तीसगढ़ में पत्रकार सुरक्षा क़ानून लागू करने की बात कही है । इसके पहले कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने बढ़चढ़ पत्रकार सुरक्षा क़ानून के लिए छत्तीसगढ़ मीडियाकर्मी सुरक्षा अधिनियम 2023 की घोषणा कर लागू करने की कोशिश की किन्तु यह भी नहीं हो पाया । भूपेश बघेल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आफ़ताब आलम की अध्यक्षता में जज , ख्यातिनाम वकीलों , पत्रकारों अपने मीडिया सलाहकारों को शमिल कर कमेटी बनाई ।इस समिति के प्रावधानों के अनुरूप पत्रकार सुरक्षा समिति का गठन किया । जिसमें सेवानिवृत्त IAS अधिकारी श्री दिनेश श्रीवास्तव -अध्यक्ष ,श्री नथमल शर्मा सम्पादक ईवनिंग टाइम्स बिलासपुर

श्री दिवाकर मुक्तिबोध वरिष्ठ पत्रकार , पूर्व सम्पादक दैनिक भास्कर , रायपुर ,श्रीमती पुष्पा रोकड़े , संवाददाता बीजापुर को सदस्य बनाया । दिनेश श्रीवास्तव की अध्यक्षता में समिति पारित कानून के तहत प्रावधानों के अनुसार हुआ था जो पत्रकारों की शिकायत सुनती ,जांच करती। पर यह समिति कागजों मे रह गई और इसकी एक भी बैठक नहीं हुई।

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क़ानून बनाते समय छत्तीसगढ़ के पत्रकारों के अलग-अलग संगठनों , मीडिया संस्थानों और पत्रकारों से सुझाव लिए गये ।
मीडियाकर्मी सुरक्षा क़ानून को लेकर विधानसभा से पारित करवाकर ,राजपत्र में प्रकाशित करवाकर जनसंपर्क विभाग की ओर से शासन को भेजा जा चुका है किन्तु यह क़ानून लागू नहीं हो पाया । विधान सभा से पारित होने और राजपत्र मे प्रकाशित होने के पहले व्यूरोक्रेसी का विरोध कानून को अंतिम रूप देने के समय तक था किन्तु भूपेश बघेल सरकार के दबाव के चलते इस राजपत्र के प्रकाशन तक पहुँचा दिया गया । । दरअसल राज्य की ब्यूरोक्रेसी इस क़ानून में अपने लिए खतरा लगा ।वरिष्ठ सचिवों की समिति की बैठक में यह क़ानून विचार के लिये बहुत बार आया पर सचिवों ने हर बार कोई आपत्ति लगाकर इसे उलझा दिया । उन्हें लग रहा है कि यह क़ानून सरकारी तंत्र के लिए भस्मासुर साबित हो सकता है ।

इसका अब तक क्रियान्वयन नहीं होने की अकेली वजह सरकार बदलना नहीं है । यह पत्रकारों को इम्पॉवर करने वाला कानून है जिससे ब्यूरोक्रेसी , नेताओं और ठेकेदारों , सप्लायर के नक्सेस को भी खतरा है । पहले ही देश का मज़बूत राजनीतिक तंत्र सूचना के अधिकार क़ानून को कमज़ोर कर चुका है । दरअसल राज्य की ब्यूरोक्रेसी इस क़ानून में अपने लिए खतरा लगा ।वरिष्ठ सचिवों की समिति की बैठक में यह क़ानून विचार के लिये बहुत बार आया पर सचिवों ने हर बार कोई आपत्ति लगाकर इसे उलझा दिया । उन्हें लग रहा है कि यह क़ानून सरकारी तंत्र के लिए भस्मासुर साबित हो सकता है ।
मुकेश चंद्राकर की हत्या महज आपसी झगड़े का परिणाम नहीं है । यह सिर्फ काले राज उजागर हो जाने का भय नहीं है बल्कि काले धन से उपजे अहंकार का परिणाम भी है ।

एक ठेकेदार का डर और अहंकार ऐसे निर्णय पर तब पहुंचता है जब उसके राज उजागर हो जाने के भय से वह हत्या पर उतारू हो जाता है । इस तरह की हत्या से बड़े सवाल पैदा होते हैं और ज्यादा दूर तक जाते हैं । राज उजागर हो जाने का डर एक साधन संपन्न ठेकेदार को हत्या करने का साहस देता है । हिंसा की इस पराकाष्ठा का साहस तभी आता है जब किसी संपन्न व्यक्ति के पास अमीरी के अलावा शासन – प्रशासन का बड़ा सहारा हो । यह अब किसी तरह की ढंकी छुपी बात नहीं रह गई है कि ठेकेदार सुरेश चंद्राकर को पुलिस के बड़े सरकारी अफसरों से लेकर शासन – प्रशासन से जुड़े बड़े लोगों की कथित मदद और सहारा था । यह बात पूरे प्रदेश में अब आग की तरफ फैली है । दबी जुबान से नहीं बल्कि लोग खुलकर कहने लगे हैं कि नक्सली इलाकों में पुलिस के अफसर सुरेश चंद्राकर के नाम से ठेके ले रहे थे । सुरेश चंद्राकर ही नहीं छत्तीसगढ़ में अचानक ऐसे अनेक ठेकेदार उभरे हैं , कल तक जिनकी आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर थी । और आज अचानक साधन संपन्न ठेकेदार हो गए हैं ।

लेकिन ठेकेदारों की दुनिया में यह कोई विशेष राज की बात भी नहीं है कि शासन – प्रशासन से जुड़े लोग बहुत छोटे किस्म के लोगों के नाम से ठेके लेते हैं और एक बड़ी राशि खुद डकार जाते हैं । खुलकर भ्रष्टाचार होता है क्योंकि कोई कुछ कहने – सुनने वाला नहीं होता है। भ्रष्टाचार करने वाले लोग भी खुद और भ्रष्टाचार की शिकायत सुनने वाले लोग भी खुद और भ्रष्टाचार की शिकायत की जाँच करने वाले भी वे खुद ही होते हैं । वैसे भी गहन नक्सली इलाके में किए जा रहे निर्माण कार्यों को कोई देखने जाने वाला बड़ी जोखिम उठाता नहीं है । भ्रष्टाचार की व्यवस्था इसी का लाभ उठाती है । और यह एक सर्वविदित और सर्वस्वीकृत तथ्य स्थापित हो रहा है कि भ्रष्टाचार शासकीय व्यवस्था की सरपरस्ती के बगैर चल भी नहीं सकता है । अन्यथा क्या कारण है कि एक ऐसा ठेकेदार जो कांग्रेसी कहलाता है ,उसे भी बचाने के लिए व्यवस्था जुट जाती है ? जब भ्रष्टाचार की इतनी लंबी चैन बन जाती है तो मनमुटाव होना स्वाभाविक होता है । यह मानवीय स्वभाव है कि किसी भी व्यक्ति के पास जब गलत रास्ते से पैसा आता है तो उसकी महत्वाकांक्षाएं और लोभ – लालच बढ़ जाता है । वह और ज्यादा हिस्से की मांग करता है । ब्लैकमेल पर उतारू हो जाता है । कुछ लोग इस हत्या में यह एंगल भी देख रहे हैं ।

यह जग जाहिर है कि बड़े अखबारों के पत्रकारों को छोड़ दिया जाए तो पत्रकारों को कोई वेतन नहीं मिलता है । कोई भत्ता नहीं मिलता है । उनकी कमाई का अधिकांश हिस्सा विज्ञापन के कमीशन और छोटी-मोटी आर्थिक भेंट और सौगात से आता है । पत्रकारों की कमाई का साधन इस तरह की खबरें होती हैं , जहां उन्हें चुप रहने के लिए पैसे दिए जाते हैं । और यहीं से मांग और पूर्ति का संतुलन बिगड़ता है । पत्रकार की मांग और पूर्ति की जाने वाली राशि मंशा के अनुरूप नहीं होने से झगड़ा पैदा होता हैं । और बड़े झगड़े का अंत हत्या जैसे बड़े कांड पर होता है । लेकिन जरूरी नहीं है कि इस हत्याकांड में भी ब्लैकमेल का एंगल हो । बहुत संभव है कि पत्रकार मुकेश चंद्राकर का किसी लोभ – लालच में ना आकर खबर छापने या प्रकाशित – प्रसारित करने की दृढ़ प्रतिज्ञा ही कथित हत्यारे के उस हत्या के निर्णय तक पहुंचती हो । क्योंकि मुकेश चंद्राकर की छवि एक ईमानदार ,लोकप्रिय और मिलनसार पत्रकार की थी । मुकेश चंद्राकर डिजिटल मीडिया या कहें टीवी पत्रकारिता में निर्भीक रिपोर्टिंग करने वाले युवा पत्रकार की तरह जाने जाते थे । लोकप्रियता एक ऐसा जुनून है जो पत्रकार को कई बार धन के लोभ – लालच से ऊपर उठा देता है । कुछ पत्रकार अपनी खबरों से पैदा हुई लोकप्रियता की सनसनी में जीते हैं । और उस सनसनी से पैदा हुई विशेष छवि को पसंद करते हैं ।

सरकार द्वारा लाय गए मीडियाकर्मी सुरक्षा कानून में बहुत हद तक मीडियाकर्मी की परिभाषा और उनके अधिकार को परिभासित करने की कोशिश की गयी है,

मौजूदा कानून के अनुसार, मीडियाकर्मी का अर्थ है किसी मीडिया संस्थान का कर्मचारी या प्रतिनिधि, जिसमें संपादक, लेखक, संवाददाता, फोटोग्राफर, वीडियो पत्रकार, अनुवादक, प्रशिक्षु और स्वतंत्र पत्रकार शामिल हैं। स्वतंत्र पत्रकार वे होते हैं जो शासन द्वारा मान्य अधिमान्यता नियमों के तहत योग्य माने जाते हैं।

समाचार संकलनकर्ता वे व्यक्ति होते हैं जो नियमित रूप से समाचार या जानकारी एकत्र कर मीडियाकर्मियों या मीडिया संस्थानों को भेजते हैं। इसमें स्ट्रिंगर या एजेंट भी शामिल हैं।

अधिमान्य पत्रकारवे मीडियाकर्मी होते हैं जिन्हें राज्य शासन द्वारा अधिमान्यता नियमों के तहत मान्यता दी जाती है, ताकि वे समाचार संकलन के दौरान सुविधाएं प्राप्त कर सकें।

प्रताड़ना का अर्थ है किसी मीडियाकर्मी के खिलाफ किया गया ऐसा शारीरिक या मौखिक कार्य जो उसे मानसिक या शारीरिक पीड़ा दे और उसके काम में बाधा डाले।

हिंसा से तात्पर्य है किसी मीडियाकर्मी के पेशेवर कार्य के दौरान उसे शारीरिक क्षति पहुंचाना या उसकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना।

कानून के तहत मीडियाकर्मी बनने के लिए कम से कम एक वर्ष का अनुभव आवश्यक है। इसके अलावा, पत्रकार के नाम से न्यूनतम छह लेख या समाचार प्रकाशित होना जरूरी है।

यह परिभाषाएं मीडियाकर्मियों के अधिकार और उनके पेशेवर सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं, जिससे वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन निर्भय होकर कर सकें।

यूँ तो सरकार ने पत्रकार सहायता, पत्रकार अधिमान्यता के लिए नियम बना रखे है किन्तु मीडिया संस्थानों द्वारा उदारता से दिए जाने वाले सर्टिफिकेट के कारन सरकार यहाँ पर भी पेशेवर श्रमजीवी पत्रकारों की पहचान करने में अशमर्थ है

सूचना क्रांति के चलते पिछले एक दशक में पत्रकारिता में सोशल मीडिया न्यूज पोर्टल्स की आई जिसने एक ओर गंभीर पत्रकारों को सीमित पूंजी में अभिव्यक्ति की आज़ादी के अवसर प्रदान किये हैं वही पीत पत्रकारिता और ब्लेकमैलिंग करने वालों को भी इसने प्रोत्साहित किया है ।आज कोई भी मोबाइल , कैमरे में पोर्टल की आई डी लेकर कहीं भी किसी को भी घेर सकता है । यहाँ संपादक , एडिटर जैसी कोई नियंत्रक इकाई नहीं होती । पोर्टल , डिजिटल न्यूज़ प्लेटफ़ॉर्म की बढ़ती संख्या की वजह से इन पर किसी तरह की कोई मानिटरिंग नहीं है । इनके लिए इलेक्ट्रानिक की तरह पंजीकरण और नियंत्रण का कोई प्रावधान नहीं है और महज 2-3हजार खर्च कर डोमेन नेम रजिस्टर कर माइक आई डी लेकर बहुत से लोग पत्रकार बन गये हैं ।

अधिकांश कारोबारी और शासन प्रशासन में बैठे हुए अधिकांश भ्रष्ट लोगों को ईमानदार पत्रकार पसंद नहीं आते हैं । सूचना के अधिकार के आने के बाद भ्रष्ट पत्रकारों को काली कमाई के लिए यह नियम ज्यादा पसंद आया और निश्चित रूप से मनरेगा जैसी बड़े फंड की योजनाओं ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया तो कुछ भ्रष्ट पत्रकारों की काली कमाई भी बढ़ने लगी थी । इसी वजह से एकाएक छत्तीसगढ़ में देश के दूसरे राज्यों की तरह पत्रकारों की बाढ़ आ गई । बहुत तेजी से नए-नए पत्रकार पैदा हुए । जो ठीक से चार लाइन का समाचार नहीं लिख सकते थे , वे भी पत्रकार का बैज लगाकर घूमने लगे । अफसरों और कारोबारियों को धमकाने लगे । ब्लैकमेल करने लगे । जाहिर है कि भ्रष्ट लोगों को ऐसे लोग नापसंद होते हैं । कोई भी कारोबारी , अधिकारी या भ्रष्ट नेता सीमित भ्रष्ट पत्रकारों को संतुष्ट करना जाने किस नियम से ठीक समझता है । भ्रष्ट पत्रकारिता की यह एक संतुलन की स्थिति थी जो बरसों से चली आ रही थी लेकिन जब एक पत्रकारिता के नाम पर बड़ी भीड़ सामने खड़ी हो गयी तो इन सब को आर्थिक रूप से संतुष्ट करना मुश्किल होता गया । और इसी कारण शासन प्रशासन और पत्रकारों के बीच मनमुटाव बढ़ा है । संभवतः इस मनमुटाव और वैमनस्य के कारण छत्तीसगढ़ मीडिया कर्मी सुरक्षा अधिनियम 2023 आज तक लागू नहीं हो पाया । इस मनमुटाव और वैमनस्य का खामियाजा उन ईमानदार और समर्पित पत्रकारों को भुगतना पड़ रहा है जो नक्सली इलाके में जान का जोखिम उठाकर पत्रकारिता का काम कर रहे हैं ।

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