छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हाल ही में एक चौंकाने वाला फैसला सुनाया, जिसमें एक 25 वर्षीय व्यक्ति को अपने पिता और दादी की हत्या के आरोप से बरी कर दिया गया। ट्रायल कोर्ट ने उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, लेकिन हाईकोर्ट ने कानूनी पागलपन (लीगल इंसैनिटी) के आधार पर उसे निर्दोष ठहराया। अदालत ने अपराध से पहले, अपराध के दौरान और बाद के आरोपी के व्यवहार को महत्वपूर्ण माना और पुलिस जांच की आलोचना की।
यह मामला आपराधिक न्याय प्रणाली में मानसिक स्वास्थ्य की जटिल भूमिका को उजागर करता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 84 (अब बीएनएस की धारा 22) के तहत, अगर आरोपी अपराध के समय सही-गलत की समझ नहीं रखता तो वह निर्दोष माना जा सकता है। लेकिन कानूनी पागलपन की परिभाषा अस्पष्ट है जो अक्सर विवाद पैदा करती है। इस केस में आरोपी का असामान्य व्यवहार—जैसे झगड़ा शुरू करना और अपराध के बाद का आचरण मानसिक विकार का संकेत माना गया।
यह फैसला मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की न्यायिक प्रक्रिया में बढ़ती भूमिका पर जोर देता है। अपराधियों के पुनर्वास को प्राथमिकता देना जरूरी है, लेकिन पीडि़तों के न्याय को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पुलिस और अदालतों को मानसिक स्वास्थ्य मूल्यांकन के लिए बेहतर प्रशिक्षण और संसाधनों की जरूरत है। कानूनी सुधार, जैसे पागलपन की परिभाषा को स्पष्ट करना और मनोरोग अस्पतालों में बेहतर सुविधाएं आवश्यक हैं। यह मामला हमें याद दिलाता है कि न्याय केवल सजा नहीं, बल्कि समझ और सुधार पर आधारित होना चाहिए, ताकि समाज सुरक्षित और न्यायपूर्ण बने। दरअसल, इस तरह के कानूनी निर्णय पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा चर्चा में आ रहे हैं जो अपराध की स्पष्ट परिभाषा से परे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक जटिलता की तरफ जा रहे हैं।
न्यायिक प्रक्रिया में मानसिक स्वास्थ्य की भूमिका

07
Aug