-सुभाष मिश्र
रायपुर में आयोजित हिन्द युग्म उत्सव में प्रख्यात कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल को उनकी चार पुस्तकों की रॉयल्टी के रूप में तीस लाख की रकम का चेक भेंट किया जाना हिंदी साहित्य जगत में एक बड़ी घटना बन गया है। उत्सव में मौजूद कवि नरेश सक्सेना ने उचित ही इसे ‘असम्भव का सम्भव होनाÓ कहा है। कुछ वर्ष पहले विनोद कुमार शुक्ल ने हिंदी के एक बड़े प्रकाशक द्वारा नाममात्र की रॉयल्टी दिए जाने की शिकायत की थी। इसे लेकर विवाद भी हुआ था। लेकिन इससे हिंदी का समूचा प्रकाशन जगत कटघरे में ला खड़ा कर दिया गया था। हिन्दयुग्म ने बड़ी राशि रॉयल्टी देकर एक नया कटघरा रच दिया है जिसके भीतर लेखकों को रॉयल्टी न देने वाले ज़्यादातर प्रकाशक आ गए हैं। आमतौर पर हिन्दी लेखक को पाठकों का समर्थन न होने, यानी किताबें न बिकने के कारण प्रकाशकों से दिक्क़तें रही हैं। किताबों की बिक्री न होने का रोना रोकर प्रकाशक न तो ठीक तरह से रॉयल्टी देते हैं, न उसका हिसाब। किताबों की अपेक्षित बिक्री न होना हिंदी में एक कड़वी सच्चाई है। निस्संदेह ग़ैर हिंदी भाषाओं की तरह हिंदी में जिज्ञासु पाठक वर्ग और समृद्ध पुस्तक संस्कृति विकसित नहीं है। इसलिए लेखक को समुचित रॉयल्टी न मिलना स्वाभाविक मान लिया गया। नतीजा यह है कि रॉयल्टी को लेकर लेखक किसी भी तरह से प्रकाशक के साथ सौदेबाज़ी की हैसियत में नहीं है। बड़ी संख्या उन लेखकों की भी हो सकती है अपनी पुस्तक के प्रकाशन को प्रकाशक की मेहरबानी मानते हैं, उनसे रॉयल्टी की मांग करना तो दूर की बात है। लेखक दरअसल प्रकाशक से लेकर संपादक तक, हर जगह झुका हुआ है। वे उसे उसके लेखन का पैसा दें या ना दें, उसकी किताब, रचनाएं छापे या न छापे यह उन पर निर्भर है। यदि कोई प्रकाशक या संपादक उसकी किताब या रचना छाप दे तो लेखक इसी में कृतज्ञ होकर फ़ेसबुक पर इसकी प्रशस्ति का बखान करते नहीं थकते। कुछ लेखक इतने गरीब बेशर्म हैं कि प्रकाशक द्वारा रायल्टी के रूप में मिले सात सौ से हज़ार रूपये का चेक को छाती चौड़ी करके सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं। बहुत से प्रकाशक लेखकों से पैसे लेकर किताबें छापते हैं। कविता की 90 प्रतिशत किताबें इसी तरह छपती है। दस प्रतिशत किताबें ही बिकती है, ऐसा स्वयं प्रकाशक दावा करते हैं। इसी तरह की बात नाटकों के लिए भी कही जाती है जबकि बहुत सारे नाटक पढऩे और खेले जाने में गुणवत्ता की दृष्टि से बेहतरीन हैं। अन्यान्य विधाओं को लेकर यदि प्रकाशकों का यही रवैया रहा तो नाटकों की तरह वे भी धीरे-धीरे प्रकाशन के लिए तरसने लगेंगी।
बहरहाल, विनोदकुमार शुक्ल को प्रकाशक द्वारा दी गई रॉयल्टी प्रकाशन जगत की बड़ी खबर है। यह हिंदी साहित्य के इतिहास की या लेखन जगत की भी यह बड़ी खबर है। यह राशि विनोद कुमार शुक्ल को उनकी चार किताबों की 92507 प्रतियों की छह माह के भीतर हुई बिक्री के लिए हिन्दी युग्म ने दी। विनोदजी कऱीब साठ साल से लिख रहे हैं, उनके उपन्यास, कविता संग्रह, बाल साहित्य की अनेक किताबें इस बीच प्रकाशित हुई, बिकी भी। पर विनोदजी और उन जैसे हिन्दी के सैकड़ों लेखकों को कभी भी इतनी रायल्टी नहीं मिली। इस एक घटना ने हिन्दी और इतर भाषा के प्रकाशकों की लंबे समय से रायल्टी चोरी को उजागर कर दिया है। बहुत से लोग इस प्रयास की सराहना करते हुए इसे प्रकाशक की ईमानदारी और पारदर्शिता का प्रमाण बता रहे हैं। प्रकाशकों की ओर से बकाया समाचार पत्र में बिक्री की गई किताबों की संख्या का ख़ुलासा किया गया है। खबर के मुताबिक़ साढ़े पांच महीने में विनोद जी का उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी की 86897 प्रतियां बिकी हैं , जो सर्वाधिक है। इसके अलावा कविता संग्रह ‘अतिरिक्त नहीं की 2148 , ‘एक पूर्व में बहुत से पूर्व की 2019 तथा ‘केवल जड़ें की 1443 प्रति बिकी है। अभी तक अलग-अलग प्रकाशन संस्थानों से उनके जो संग्रह प्रकाशित हुए हैं उनमें कविता-संग्रह प्रकाशन वर्ष 1971 ‘लगभग जयहिंद (1981), ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह (1992, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा (2000), ‘अतिरिक्त नहीं, (2001), ‘कविता से लंबी कविता, (2006) ‘आकाश धरती को खटखटाता है (2006); उपन्यास ‘नौकर की कमीज़ (1979), ‘खिलेगा तो देखेंगे (1996) ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी (1997), ‘हरी घास की छप्पर वाली झोंपड़ी और बौना पहाड़ ; कहानी-संग्रह ‘पेड़ पर कमरा (2011), ‘महाविद्यालय (1996) शामिल है। इसके अलावा हाल के वर्षों में भी बाल साहित्य पर उनकी अनेक किताबें आई है। उनकी किताबों का दूसरी भाषाओं में अनुवाद हुआ है, पर उन्हें न तो कभी इतनी रायल्टी मिली, न ही किताबों की बिक्री की संख्या । विनोद कुमार शुक्ल की दीवार में एक खिड़की की हिन्द युग्म अगर 90 हजार प्रतियाँ 6 माह में बेच रहा है तो ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा के असर में अन्य प्रकाशकों के पास उनके नौकर की कमीज खिलेगा तो देखेंगे जैसे उपन्यास है जाहिर है उनकी संख्या भी 90 के आसपास तो पहुंची होगी। तो जिन प्रकाशकों के पास उनके ये उपन्यास है वे ईमानदारी से अब उनकी बिक्री का हिसाब देंगे। ऐसा वे कदापि नहीं कर पाएंगे नहीं तो उनकी वर्षों की चोरी पकड़ी जाएगी।
अमूमन यही स्थिति हिन्दी के अधिकांश लेखकों की है। अधिकांश प्रकाशकों ने यह बात फैला रखी है कि हिन्दी की किताबें नहीं बिकती। बहुत सारे प्रकाशक तीन सौ से ज़्यादा प्रतियां नहीं छापते जब तक कि जुगाड़ के तहत सरकारी खऱीद में किताबें न जाए। किताबों की सरकारी खऱीद का भी अपना एक अलग संगठित माफिय़ा है जो 40 प्रतिशत से कम में डील नहीं करता। ऐसे समय में हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा की गई इस पहल को भविष्य के शुभ संकेत के रूप में देखा जाना चाहिए।
इधर हिंदी के लेखन जगत में आम तौर पर इसका व्यापक तौर पर स्वागत हुआ है। लेकिन इसे लेकर कुछ दीगर बातें भी कही गई है जिन्हें नजऱअंदाज़ नहीं किया जा सकता। प्रकाशक द्वारा भारी-भरकम रॉयल्टी दिए जाने का जिस तरह से उत्सवधर्मी ढंग से प्रचार किया जा रहा है, वह उसकी नीयत पर संदेह पैदा करता है। पुस्तक का अनुबंध एक द्विपक्षीय दस्तावेज है और रॉयल्टी का मामला लेखक-प्रकाशक के बीच का मामला है। उसके सार्वजनिक प्रदर्शन की आवश्यकता कतई नहीं है। यदि किया जाता है तो वह सोद्देश्य होगा। अन्यथा कम रॉयल्टी देने पर प्रकाशक उसकी सार्वजनिक घोषणा तो नहीं ही करता। स्पष्ट है, यह प्रकाशक के विक्रय प्रबन्धन की रणनीति है। विनोदजी को तीस लाख की रॉयल्टी मिलने में किसे कोई आपत्ति होगी जबकि यह सिर्फ विनोद जी के लिए नहीं समूचे हिंदी समाज के लिए यह एक सुखद घटना है। लेकिन उसे प्रचार के ज़रिए जिस तरीके से समारोहपूर्वक दिया गया है उसे देखकर लगता है जैसे एक वृद्ध लेखक को खैरात दी जा रही हो। तथाकथित समाजसेवी जिस तरह से गऱीबों की सेवा का विज्ञापन करते हैं, विनोजी को रॉयल्टी का चेक उसी अंदाज़ में दिया गया। यह अभूतपूर्व घटना इसलिए भी है कि हिंदी में लेखक को प्रकाशक के द्वारा विज्ञापन की वस्तु के रूप में पहली बार प्रस्तुत किया गया। हिंदी लेखक सोशल मीडिया पर अपनी पुस्तकों का प्रचार प्राय: किया करते हैं लेकिन सांस्थानिक स्तर पर प्रकाशक के प्रचार का माध्यम लेखक में पहली बार हुआ है। ज़ाहिर है, इसके ज़रिए लेखक को बाज़ार में खड़ाकर दिया गया है। हिंदी जगत लेखक की सेलिब्रिटी हैसियत से गौरवान्वित भले हो ले, यदि अन्यान्य लेखकों को समुचित रॉयल्टी न मिले तो विनोदकुमार शुक्ल को विज्ञापन का साधन बनाये जाने पर सवाल ज़रूर उठेंगे। अगर स्वयं विनोद जी को इससे कोई आपत्ति या असहमति नहीं है तो एक तरह से उनका भोलापन भी हो सकता है और बाज़ार में विज्ञापन करने वाले सिनेजगत या क्रिकेट स्टार जैसे सेलेब्रिटीज़ की कतार में उन्हें खड़ा करने की व्यावसायिक चालाकी भी। पिछले कुछ समय से, ख़ासतौर से ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा के बाद विनोदकुमार शुक्ल निरंतर चर्चा में बने हुए हैं। साहित्य में स्टार सिस्टम का उदय नहीं हुआ है। फिर भी साहित्य की दुनिया में विनोदजी के लेखन का व्यापक रूप से चर्चा में रहना उन्हें एक स्टार-सरीखी हैसियत तो देता है। एक साहित्यकार के स्टार हो जाने पर भी शायद आपत्ति न हो लेकिन यह तो समझना ही होगा कि स्टार या सेलेब्रिटी बाजार की ज़रूरत के अनुसार निर्मित किये जाते हैं और वे बाजार की ताकतों की निर्मिति होते हैं। जिस अंदाज़ में उन्हें लेखन का मेहनताना दिया गया उसमें उन्हें याचक सा प्रस्तुत कर दिया है। इससे हिन्द युग्म को बचना चाहिए था। एक निजी लेनदेन का सार्वजनिक हो जाना बाज़ार ही सम्भव करता है।
इस बार भी अंतत: यही सिद्ध हुआ, प्रकाशक शेर है और लेखक दयनीय शिकार। तीस लाख रॉयल्टी अप्रत्याशित और अयाचित है लेकिन यह प्रकाशक की उदारता है कि उसने ईमानदारी से रॉयल्टी दी। लेकिन यह उदारता बड़ी वाचाल है जो ढिंढोरा पीटते हुए मेहनताना देती है। अधिकार को खैरात की तरह देने का यह निराला अंदाज़ है। शायद यह हिंदी में ही संभव है।
हिंदी में पहली बार बाजार खुलकर आगे आया है। बड़े प्रकाशकों द्वारा लेखकों को कमज़ोर और निरुपाय जानकर बरसों तक निर्लज्ज लूट का खेल खेला है। हिन्दयुग्म ने साहस दिखया और बाज़ार के खेल को बाज़ार के नियमों के मुताबिक खेलने की पहल की है। इसके साथ हिंदी-प्रकाशन का नया दौर शुरू हुआ है। प्रकाशन की दुनिया में ताल ठोककर चुनौती दी है। बाज़ार में मुकाबले के लिए ललकारा है। देखें कितने हैं जो चुनौती स्वीकार करते हैं। देखना यह है कि आगे यह खेल कैसे खेला जाएगा। क्या लेखकों को उनका वाजिब मेहनताना मिल पाएगा? लेखक-प्रकाशक-पाठक के इस तिकड़ी खेल में पाठक निरुत्साहित हैं, लेखक पस्त और जो है सो प्रकाशक है। लेखक अगर कुछ पायेगा तो प्रकाशक दुनिया को बताएगा। चौथा खिलाड़ी है सरकार जो कागज़ के दाम बढ़ाती है और सब चुप रहते हैं। सरकार अगर खेलना चाहे तो कॉपीराइट कानून में लेखक के पक्ष में बदलाव लाकर उसकी पारदर्शिता सुनिश्चित करे, ताकि लेखक का पारिश्रमिक खैरात जैसा न लगे।
सुप्रसिद्ध आलोचक जयप्रकाश –
विनोदकुमार शुक्ल को हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा दी गई रॉयल्टी अविश्वसनीय वास्तविकता बन गयी है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन यह अगर परिपाटी बन जाए और नियमपूर्वक सभी प्रकाशक लेखक को उसका उचित पारिश्रमिक दें तो यह सार्थक क़दम होगा, अन्यथा यह एक अल्पकालिक मार्केटिंग स्ट्रेटजी बन कर रह जाएगी। आगे यह भी देखना होगा कि स्वयं हिन्दयुग्म भविष्य में कितने लेखकों को इतना पारिश्रमिक दे पाएगा। फि़लहाल लगता है कि विनोदजी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने की घोषणा के बाद उनकी पुस्तकों की बढ़ी हुई बिक्री का यह परिणाम है। ज़ाहिर है, इसका प्रभाव अल्पकालीन ही होगा। मेरा दृढ़ मत है कि हिंदी में पुस्तक संस्कृति विकसित नहीं हो सकी है। समाज में लेखक की नगण्य पहचान है। उसे पाठक का समर्थन नहीं है।
सुप्रसिद्ध कथाकार आनंद हर्षुल-
विनोद जी को 30 लाख की रायल्टी देकर हिन्द युग्म ने, हिन्दी के बड़े प्रकशकों की उस ईमानदारी को जो हमेशा संदेह के घेरे में थी, अब अपराधी-सा कटघरे में खड़ा कर दिया है।
कवि डॉ. आलोक वर्मा कहते हैं
बाजार में खुले खेल के सिद्धांत आज ट्रंप और हिंद युग्म दोनों स्तर पर देखे जा सकते हैं, ऐसा प्रदर्शन इसके पहले कभी नहीं हुआ इसलिए बहुतों को यह अजीब व नागवार गुजर सकता है लेकिन हिंदी साहित्य जगत में बड़े प्रकाशकों द्वारा असहाय लेखकों की निर्लज्ज लूट अब तक कोई छुपी घटना नहीं रही है और इसे सभी जानते भी रहे हैं। फिर बड़े प्रकाशकों से कोई खुलकर पंगा भी लेखक यूं ही नहीं लेना चाहता तो दबे स्वरों में ही ये खबरे दौड़ती रही हैं किताब छप तो जाए और जितना मिल जाए, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी, फिर आगे भी किताबें छपवानी है, कोई बेहतर विकल्प भी नहीं है अन्यथा ये भी नहीं छापेंगे, लेकिन अब बड़े प्रकाशक कॉम्पीटिशन में कुछ तो बेहतरी रॉयल्टी में मजबूरी में सही करेंगे और पुस्तक छपाई-बिक्री के कुछ सही आंकड़े देंगे और कई लेखक युग्म की तरफ भी आयेंगे, जो हुआ वह या कुछ ऐसा ही शोषण और लूट के क्लाइमेक्स पर होना एक न एक दिन अपरिहार्य ही था। यूं ये भूकंप अभी आने वाले संभावित भूकंपों की शुरुआत है,,मरकस बाबा की बहुरूपिया पूंजी के बहुतेरे मुखौटे सामने आएंगे, अभी तो पूरी पिक्चर आनी बाकी है मेरे दोस्त।
आलोचक, कथाकार, कवि, साहित्यकार डॉ. दिनेश त्रिपाठी—
मेरी जितनी भी किताबें छपी उन्हें मैंने अपने खर्चे पर छपवाईं और खुद ही बेची। बिना अमेजॉन, फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर डाले, बिना किसी व्यावसायिक प्रचार-प्रसार के सिफऱ् व्यक्तिगत प्रयास और फेसबुक, व्हाट्सएप के सहारे मेरी किताबों की पांच सौ प्रतियों का संस्करण आसानी से बिक गया जबकि मैं बहुत साधारण, लगभग गुमनाम सा लेखक हूं। इसलिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं है कि विनोद कुमार शुक्ल जैसे बड़े लेखक कीज् दीवार में एक खिड़की रहती थी की लगभग नब्बे हज़ार प्रतियाँ बिक गई। सोशल मीडिया के ज़माने में किताबें खरीदना आसान हुआ है। तकनीकी के विकास ने प्रकाशन की लागत को सस्ता किया है तो किताबें भी अब सस्ती मिलने लगी हैं।
ये प्रकाशकों की बेइमानी है जो वे कहते हैं कि किताबें नहीं बिकतीं । किताबें खूब बिक रही हैं। बिक नहीं रहीं तो प्रकाशक ये व्यवसाय कर क्यों रहे हैं? उनकी सारी शानो-शौकत, ऐशो आराम चल कैसे रहा है? तीस लाख की रॉयल्टी को मैं पहली बार किसी प्रकाशक की ईमानदारी मान रहा हूं। काश हिंदी के सभी प्रकाशक ऐसी ईमानदारी दिखाते तो हिन्दी साहित्य की दुनिया का परिदृश्य कुछ और होता ।
प्रसिद्ध लेखक वीरेन्द्र यादव
खबर है कि विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी कि अप्रैल 2025 से अब तक यानी तीस लाख रॉयल्टी दिये जाने की तिथि तक 86897 प्रतियाँ बिक गयीं। यानी औसतन 500 प्रतियों की बिक्री रोजाना हुई। यह एक चौकाने वाला और दिलचस्प आंकड़ा है। हिंदी के ये पाठक सचमुच प्रणम्य हैं, जिन्होंने इस उपन्यास को सिर माथे लिया। गोदान, मैला आँचल, झूठा सच, राग दरबारी, चित्रलेखा से लेकर सर्वाधिक बिकने वाला उपन्यास गुनाहों का देवता भी 500 प्रतियाँ रोज की बिक्री का रिकार्ड नहीं बना पाया। विनोद कुमार शुक्ल जी को साहित्य से इस धनोपार्जन के लिए हार्दिक बधाई।
मेरी जिज्ञासा यह जानने की है कि यह उपन्यास हिंदी के किस इलाके के पाठकों के बीच इतना लोकप्रिय हुआ? या यह समूचे हिंदी क्षेत्र के पाठकों की पसंद है। यदि ऐसा है तो इस तथ्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जाना चाहिए कि इस उपन्यास में ऐसा क्या है, जिससे पाठक इसके जादुई मोहपाश में इतना आबद्ध है। यह जानकारी भी दी जानी चाहिए कि इस उपन्यास की यह बिक्री आनलाईन हुई है या पुस्तक विक्रेताओं द्वारा। वे कौन से पुस्तक विक्रेता हैं, जिन्होंने विगत 6 माह में इसकी एक हजार से अधिक प्रतियाँ बेची हैं? यह जानकारी इसलिए भी जरुरी है कि इससे हिंदी पुस्तकों की बिक्री के तंत्र का खुलासा भी हो सकेगा। एक बार फिर इस धनवर्षा के लिए आदरणीय विनोद कुमार शुक्ल जी को हार्दिक बधाई।
फेसबुक वॉल से साभार