Parsai Birth Centenary परसाई जन्मशती- हम न मरें मरिहै संसारा

Parsai Birth Centenary- We may not die, but the world will die परसाई जन्मशती- हम न मरें मरिहै संसारा

-सुभाष मिश्र

दरअसल कबीर हों, गालिब हों या हरिशंकर परसाई हों यही यह बात पूरे आत्मविश्वास से कह सकते हैं ”हम न मरै मरिहैं संसारा।ÓÓ हमको मिला जिआवनहारा। हरिशंकर परसाई का यह जन्मशती वर्ष है। हमारे समय की विसंगतियों को उजागर करते हुए उनकी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गहरी पड़ताल करने वाले देश के शीर्षस्थ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई 22 अगस्त, 1924 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जि़ले के जमानी नामक गाँव में जन्मे और उनका निधन 10 अगस्त 1995 को उनकी कर्मस्थली जबलपुर में हुआ। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया। उनके व्यंग्य में करुणा की अंतरधारा समाहित होती है। जब आप उनके व्यंग्य को पढ़ते हैं तो आप अपने आप पर खिसियानी हंसी-हंसते हैं, चूंकि परसाईजी एक दृष्टि संपन्न लेखक थे, इस कारण उनकी व्यंग्य रचनाओं में किसी तरह का भटकाव नहीं है। वो जो कहना चाहते हैं, वहीं कहते है और सही समय पर सही जगह पर चोट करते हैं। हरिशंकर परसाई को आधुनिक युग का कबीर भी कहा जाता है। बक़ौल हरिशंकर परसाई -”अकेले वही सुखी है, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लडऩी। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूं और अचरज करता हूं कि ये सुखी कैसे हैं। न उनके मन में सवाल उठते न शंका उठती है।”


जब हम कबीर, ग़ालिब की परंपरा में परसाई को रखते हैं और उन्हें शिद्दत से याद करते हैं तो हमें ग़ालिब का ये शेर बरबस याद आ जाता है –
हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता।।
गुलजार, पीयूष मिश्रा और न जाने कितने लोग जिस तरह गालिब की याद को बनाये रखते हैं। उसी तरह परसाई को पढऩे वाले समझने वाले भी हैं, जो परसाई की रचनाओं का नाट्य रूपांतरण करके, उनके व्यंग्य के भीतर छिपी करुणा की अंतरधारा को महसूस करते हुए अपने समय की विसंगतियों से दो-चार होते रहते हैं।
परसाईजी संभवत: पहले अकेले ऐसे लेखक हैं, जिनके निबंध, कहानी पर सबसे ज्यादा नाट्य रूपांतरण किए जाकर नाट्य मंचन किए गए हैं और किये जा रहे हैं। परसाईजी की रचना पर आधारित नाटक इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर पिछले पांच दशक में सर्वाधिक मंच और नुक्कड़ पर प्रदर्शित हुआ। रानी नागफनी की कहानी, निठल्ले की डायरी, सदाचार का ताबीज, भोलाराम का जीव, एक लडक़ी पांच दीवाने, अकाल उत्सव, प्रेमचंद के फटे जूते जैसी कितनी ही रचनाएं जिन पर आज भी लगातार नाट्य मंचन हो रहे हैं।
परसाईजी के व्यंग्य में व्याप्त विसंगतियां, समाज के तथाकथित बड़े लोगों का दोगलापन, सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार, स्त्री की समाज में स्थिति जिनका जिक्र परसाईजी ने अपनी रचनाओं में किया है। अभी भी वैसी ही और कई बार तो बहुत ही भयावह बनी हुई है। परसाईजी की व्यंग्य रचनाओं में करुणा है, सहानुभूति है, और एक प्रकार की मुक्ति की छटपटाहट है। व्यंग्य लिखा बहुत बाद में जाता है, पहले जिया जाता है। एक सहज और संवेदनशील व्यंग्यकार सबसे पहले अपने ऊपर व्यंग्य करता है, अपनी कमजोरियों को उजागर करता है। वो अपनी पीड़ा को जग की पीड़ा बनाता है। काग़द की लेखी की जगह आंखन की देखी कहता है।
कहा जाता है कि जब साहित्य की समस्त विधाएं चूक जाती हैं, तब व्यंग्य की आक्रामकता की जरूरत होती है। व्यंग्य में सम्पूर्ण समाज की कमजोरियों, विद्रूपताओं को उभारने का गहरा प्रयास होता है। हरिशंकर परसाई ने आजादी के बाद भारतीय समाज की विसंगतियों पर गहरा प्रहार किया। परसाई के व्यंग्य में आम जनता के लिए प्रतिबद्धता साफ दिखाई देती है। परसाई की कृतियों से गुजरना उनके समय समाज से गुजरना है। वे आजादी के बाद के भारत के सजग प्रहरी थे। उन्होंने अपने लेखन से मानवीय मूल्यों की स्थापना और बेहतर मनुष्य और न्यायपूर्ण समाज बनाने की दिशा में भरसक कोशिश की। परसाई ने पूरी व्यवस्था का अध्ययन कर अपनी रचनाओं में मनुष्य और समाज के दोहरे चरित्र को तल्खी से लिखा है। आज के भ्रष्ट एवं दिशाहीन समय में परसाई का लेखन हमारे समय और समाज के लिए पथ प्रदर्शक है। उनकी भाषा आम आदमी की भाषा है। बहुत से लोगों का मानना है कि परसाई ने अपने लेखन से गद्य को जनतांत्रिक बनाया और गद्य की सीमाओं को तोड़ा। उन्होंने जनविरोधी गठजोड़ के रेशे-रेशे को अलग किया। उन्हें राजनीतिक विद्रूपताओं के लेखन में महारत हासिल थी। उन्होंने अपने लेखन में व्यवस्था की निर्भयता से चीरफाड़ की है। परसाई के लेखन को पढ़कर समझा जा सकता है कि व्यंग्य मनोरंजन नहीं करता बल्कि वह परिवर्तनकारी है, वह बेचैन करता है। परसाई मूलत: लोकतंत्रवादी थे। वे शिल्प की दृष्टि से भी लोकतंत्रवादी थे। वे आमजन के लेखक हैं। समाज जब भी विकृत हुआ है, लेखक विरोध की भूमिका में उतरा है। परसाई जी अपने समय समाज की विसंगतियों के योद्धा थे। व्यंग्य को पैदा करने के लिए विडम्बना का परसाई जी ने रचनात्मक उपयोग किया है। जीवन और विचारधारा के प्रति उनका भरपूर समर्थन रहा। परसाई हमारी व्यवस्था को बार-बार नंगा करके उठाते हैं, उस पर कठोर आक्षेप करते हैं। परसाई जी के लेखन जैसी विविधता और कहीं दिखायी नहीं देती। परसाई का साहित्य आजादी के बाद देश की सत्ता व्यवस्था और समाज को समझने का दस्तावेज है।

Related News


परसाई के लेखन की कुछ बानगी जिसे हम गुरू परसाई के व्यंग्य बाण भी कह सकते हैं।
प्रजातंत्र में सबसे बड़ा दोष है तो ये कि उसमें योग्यता को मान्यता नहीं मिलती है। हाथ गिने जाते हैं सर नहीं तौले जाते।
जिसकी बात के एक से अधिक अर्थ निकलें वो संत नहीं लुच्चा आदमीं होता है। संत की बात सीधी और स्पष्ट होती है। उसका एक ही अर्थ निकलता है।
मध्य वर्ग का व्यक्ति एक अज़ीब जीव होता है। एक ओर उसमें उच्च वर्ग का अहंकार और दूसरी ओर उसमें निम्न वर्ग की दीनता होती है। अहंकार और दीनता से मिलकर बना हुआ उसका व्यक्तित्व बड़ा विचित्र होता है। वह बड़े साहब के सामने दुम हिलता है और चपरासी के सामने शेर बन जाता है।
चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने या मौलाना बने, अगर वो लोगों को अंधेरे का डर दिखाता है तो वह जरूर अपनी कंपनी की टार्च बेंचना चाहता है।
धर्म अच्छे को डरपोक और बुरे को निडर बना देता है।
राजनीति से लेखक को दूर रहने की बात वही लोग करते हैं, जिनके निहित स्वार्थ होते हैं। वे डरते हैं कि लोग हमें समझ न जाएं।
हम मानसिक रूप से दोगले नहीं तिगले हैं। संस्कारों से सामंतवादी हैं, जीवन मूल्यों से अर्ध -पूंजीवादी हैं और बात समाजवाद की करते हैं।
युवकों तुम्हें देश का निर्माण करना है क्योंकि हमने नाश कर दिया है।
तारीफ़ करके आदमीं से कोई बेवकूफ़ी कराई जा सकती है।
गिरे हुए आदमीं को उत्साहवर्धक भाषण देने की अपेक्षा, सहारे के लिए हाथ देना चाहिए।
जब शर्म की बात गर्व की बात बन जाए तो समझो जनतंत्र बढिय़ा चल रहा है।
बेइज़्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज़्जत बच जाती है।
इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी है कि इनके वोट से मंत्रिमंडल बनते हैं।
विचार जब लुप्त हो जाता है, या प्रकट करने में बाधा होती है, या किसी के विरोध का भय लगने लगता है। तो तर्क का स्थान हुल्लड़ या गुंडागर्दी ले लेती है।
हमारे देश की ये ट्रेजडी या कॉमेडी है कि कई लोग जिन्हें आजन्म जेलखाने में रहना चाहिए वे संसद या विधानसभा में बैठते हैं।
अपने को साधारण आदमीं मानना भी एक ताक़त है। ऐसा आदमीं असाधारणता के कोई फालतू सपने नहीं देखता, और निराश नहीं होता टूटता नहीं।

Related News