कोई हाथ भी ना मिलायेगा , जो गले मिलोगे तपाक से

दरअसल, भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट महज खेल नहीं, बल्कि कूटनीति का मंच है। कभी यह रिश्तों को सुधारने की कोशिश का जरिया रहा है, तो कभी आक्रोश और अविश्वास जताने का माध्यम बन जाता है। मौजूदा दौर में भारत का रुख यह है कि सामान्य रिश्ते तभी संभव हैं जब सीमा पार से आतंकवाद पूरी तरह खत्म हो। यही संदेश उसने इस टूर्नामेंट में हाथ न मिलाकर भी दिया है।
बशीर बद्र का शेर-
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिज़ाज का शहर है जऱा फ़ासले से मिला करो —
आज की स्थिति पर सटीक बैठता है। दोनों देशों के बीच क्रिकेट खेलने भर से दोस्ती संभव नहीं, बल्कि भरोसे और सुरक्षा की बुनियाद पर ही रिश्ते सुधर सकते हैं। जब तक यह बुनियाद मजबूत नहीं होती, तब तक क्रिकेट मैदान में भी दूरी बनी रहना स्वाभाविक है। इसलिए यह विवाद केवल हाथ न मिलाने तक सीमित न समझा जाए। यह उस गहरी खाई का प्रतीक है जो दोनों देशों के बीच है। खेल भावना और राजनीति का आदर्श अलगाव फिलहाल एक कल्पना मात्र है।
हकीकत यही है कि भारत-पाक मैच हमेशा से भावनाओं, राजनीति और कूटनीति के संगम रहे हैं, और शायद आगे भी रहेंगे।
कभी पाकिस्तान की तरह चीन भी हमारा दुश्मन रहा है । हिन्दी चीनी भाई-भाई के बीच हमने चीन से भी धोखा खाकर लड़ाई करके फिर अमेरिका की दादागिरी के चलते चीन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। शायद कभी वो दिन भी आये के हम वीरजारा के गाने की लाईन दोहराते हुए पाकिस्तान से कहें कि
तेरे देस को मैंने देखा तेरे देस को मैंने जाना
जाने क्यूँ ये लगता है मुझको जाना पहचाना
यहाँ भी वही शाम है वही सवेरा ओ
वही शाम है वही सवेरा,ऐसा ही देस है मेरा जैसा देस है तेरा
वैसा देस है तेरा हाँ जैसा देस है तेरा,ऐसा देस है मेरा हो
जैसा देस है तेरा,ऐसा देस है मेरा ,हाँ.. जैसा देस है तेरा
ऐसा देस है मेरा हाँ , जैसा देस है मेरा
बहुत लोगों को लगता है भारत पाक के बीच विभाजन की रेखा तब तक खत्म नहीं होगी जब तक की हमारे और वहाँ राजनीतिक इस नफऱत की फसल को अपने पक्ष में काटते रहेंगे । बहुत सारे वीर रस के कवि , नेताओं का काम बिना पाकिस्तान के पूरा नहीं होगा। भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच हमेशा से केवल खेल भर नहीं रहे, वे दोनों देशों के बीच रिश्तों का आईना भी बने हैं। हर गेंद और हर रन के पीछे न सिर्फ खेल की रणनीति होती है, बल्कि दशकों से चले आ रहे इतिहास, राजनीति और कूटनीति की परछाई भी होती है। इस बार एशिया कप में हुए भारत-पाक मुकाबले ने यह बात एक बार फिर साबित कर दी। भारत ने पाकिस्तान को हराया तो मैदान पर सिर्फ क्रिकेट का रोमांच नहीं था, बल्कि हाथ न मिलाने का फैसला खेल भावना और राजनीति के बीच टकराव की तरह उभरा।
खेल के बाद हाथ मिलाना खेल भावना का प्रतीक माना जाता है। यह कोई नियम नहीं बल्कि परंपरा है, लेकिन जब भारतीय खिलाडिय़ों ने पाकिस्तान के खिलाडिय़ों से हाथ मिलाने से इनकार किया तो उसने खेल से इतर एक गहरी कहानी कह दी। सूत्रों के मुताबिक यह निर्णय भारतीय क्रिकेट बोर्ड, टीम मैनेजमेंट और सरकार, तीनों की सहमति से लिया गया था। इसका संदेश साफ था कि मैदान पर भले ही मुकाबला होगा, लेकिन सामान्य मित्रवत माहौल दिखाने का समय अभी नहीं है। यह कदम सीधे तौर पर पहलगाम हमले से जुड़ा था, जिसमें पाकिस्तान समर्थक आतंकियों ने 26 भारतीयों की निर्मम हत्या की थी। मैच के बाद कप्तान सूर्यकुमार यादव ने भी कहा कि कुछ बातें खेल भावना से ऊपर होती हैं और यह जीत भारतीय सैनिकों को समर्पित की गई।
पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई और आईसीसी से शिकायत की। उसने यहां तक मांग कर दी कि मैच रेफरी एंडी पायक्रॉफ्ट को हटाया जाए लेकिन आईसीसी ने साफ कर दिया कि हाथ मिलाना नियम नहीं, केवल परंपरा है। इस घटना से उपजे विवाद पर पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटरों ने भी अपनी-अपनी राय दी। राशिद लतीफ ने कहा कि अगर मुद्दा पहलगाम है तो भारत जंग लड़े, क्रिकेट में इसे मत लाओ। शोएब अख्तर ने क्रिकेट को राजनीति से अलग रखने की सलाह दी जबकि शाहिद अफरीदी ने भी यही दोहराया कि क्रिकेट को क्रिकेट ही रहने दिया जाए। दूसरी ओर भारत का पक्ष साफ था कि पाकिस्तान के साथ रिश्ते जब तक सामान्य नहीं होते, तब तक ‘स्पोर्ट्समैनशिपÓ दिखाना मजबूरी नहीं है।
इस विवाद का असर आगे तक जा सकता है। खबर है कि यदि भारत फाइनल जीतता है तो ट्रॉफी पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के चेयरमैन मोहसिन नकवी से लेने से भी इनकार कर सकता है। यानी यह विवाद केवल हैंडशेक तक सीमित नहीं रहने वाला। पाकिस्तान ने तो यहां तक संकेत दे दिए हैं कि अगर उनकी आपत्तियों को गंभीरता से न लिया गया तो वह टूर्नामेंट से हट भी सकता है। यह स्थिति बताती है कि दोनों देशों के बीच क्रिकेट अब भी राजनीतिक रिश्तों का विस्तार मात्र है।
क्रिकेट कूटनीति का इतिहास नया नहीं है। अतीत में अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नरेंद्र मोदी तक कई नेताओं ने खेल के जरिए रिश्ते सुधारने की कोशिश की। वाजपेयी ने लाहौर बस यात्रा से भरोसे का पुल बनाने की कोशिश की थी, तो मोदी नवाज शरीफ की शादी में अचानक पहुंच गए थे। कला, संगीत और संस्कृति की तरह क्रिकेट भी साझा पसंद का जरिया रहा है। लेकिन हर बार सीमा पार आतंकवाद और हमलों ने इन कोशिशों को नाकाम कर दिया। यही वजह है कि आम लोग भी अब खेल को राजनीति से अलग देखने की जगह, उसे उसी संदर्भ में जोड़कर देखते हैं।

पहलगाम जैसी घटना के बाद स्वाभाविक है कि आक्रोश बढ़े और लोग पाकिस्तान के साथ सामान्य व्यवहार के खिलाफ खड़े हों।
भारत-पाक मुकाबलों का सबसे बड़ा आकर्षण यही है कि उनमें खेल से कहीं ज्यादा भावनाएं और राजनीति शामिल होती हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या खेल को पूरी तरह राजनीति से अलग रखा जा सकता है? आदर्श स्थिति में जवाब ‘हाँÓ होना चाहिए। खेल का उद्देश्य ही दोस्ती, भाईचारा और आपसी विश्वास जगाना है। लेकिन जब पड़ोसी मुल्क लगातार आतंकी घटनाओं के जरिए आपके लोगों को निशाना बनाता हो, तब मैदान पर महज हाथ मिलाना भी राजनीतिक संदेश बन जाता है। यही कारण है कि इस बार भारत ने मैदान पर क्रिकेट खेला, लेकिन मैदान के बाहर सख्त रुख दिखाया।
इस विवाद से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट जगत के लिए भी कई सवाल खड़े होते हैं। क्या आईसीसी और एशियन क्रिकेट काउंसिल को इस तरह की राजनीतिक परिस्थितियों में तटस्थ रहना चाहिएया फिर उन्हें ऐसे विवादों के समाधान के लिए मध्यस्थता करनी चाहिए? फिलहाल नियमों में हाथ मिलाना अनिवार्य नहीं है, लेकिन खेल भावना के लिहाज से यह अपेक्षा जरूर की जाती है। जब यह परंपरा टूटती है तो दुनिया भर की निगाहें क्रिकेट से ज्यादा उसके पीछे के संदेश पर टिक जाती हैं।
दरअसल, भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट महज खेल नहीं, बल्कि कूटनीति का मंच है। कभी यह रिश्तों को सुधारने की कोशिश का जरिया रहा है, तो कभी आक्रोश और अविश्वास जताने का माध्यम बन जाता है। मौजूदा दौर में भारत का रुख यह है कि सामान्य रिश्ते तभी संभव हैं जब सीमा पार से आतंकवाद पूरी तरह खत्म हो। यही संदेश उसने इस टूर्नामेंट में हाथ न मिलाकर भी दिया है।

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