अटल बिहारी वाजपेयी
सबसे पहले मैं ‘तरुण भारत’ के संस्थापकों, संचालकों, संपादक मंडल और कर्मचारियों को बधाई देना चाहता हूँ। जिनके परिश्रम और-प्रयत्नों से आज ‘तरुण भारत’ संघर्ष के पच्चीस वर्ष पूर्ण करके यह राज्य महोत्सव मना रहा हैं। मुझे समाचार पत्र में काम करने का मौका मिला था, शायद इसलिए इस समारोह में मुझे बुलाया गया है। विश्वविद्यालय की शिक्षा समाप्त करने के बाद मैंने एक मासिक पत्र में काम करना शुरू किया था। बाद में एक साप्ताहिक पत्र में संपादन का कार्य करने लगा। फिर दैनिक पत्र की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आई। मैं जानता हूं पत्र निकालना और निकालते रहना कितना कठिन होता है! मैंने पत्र निकाले भी हैं और बंद भी किए हैं। पत्र बंद करते समय जो मैं संपादकीय लिखा करता था, उसकी बड़ी चर्चा होती थी।
‘तरुण भारत’ पच्चीस वर्ष पूर्ण कर चुका है। ये सचमुच अपने में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। वैसे तो पुणे की नगरी में अभी ‘केसरी’ का समारोह हुआ था, जिसने सौ वर्ष पूरे किए। ‘सकाळ’ने पचास वर्ष पूरे किए। मैं इन दोनों पत्रों का इस अवसर पर अभिनंदन करना चाहता हूं। तरुण भारत, तरुण है इसलिए पच्चीस वर्ष का है। किसी ने शुभकामनाएं भेजी हैं चिरतारुण्य की। ‘तरुण भारत’ सिर्फ तरुण रहे। आयु बढ़ती जाए। लेकिन प्रखरता में कमी न आए। समाचार पत्रों के ऊपर एक बड़ा राष्ट्रीय दायित्व है। भले हम समाचार पत्रों की गणना उद्योग में करें, कर्मचारियों के साथ न्याय करने की दृष्टि से आज यह आवश्यक भी होगा, लेकिन समाचार पत्र केवल उद्योग नहीं है, उससे भी कुछ अधिक है। यह व्यवसाय भी है। धंधा नहीं है। पत्रकारिता एक मिशन है। बिना ध्येयवाद के, बिना निष्ठा के, बिना सत्य के आग्रह के, और सत्य के आग्रह को निभाने के लिए कष्ट झेलने की तैयारी के बिना कोई पत्रकार अपने धर्म का पालन नहीं कर सकता। शब्द का महत्त्व है। लेकिन बोला हुआ शब्द दूर तक नहीं पहुंचता। लिखा हुआ शब्द दूर-दूर तक जाता है। बोला हुआ शब्द हवा में उड़ जाता है, लिखा हुआ शब्द टिकता है। ये ठीक है कि देश में दुर्भाग्य से चालीस फीसदी से अधिक लोग साक्षर नहीं है। इसलिए समाचार पत्रों का जितना व्यापक प्रचार और प्रसार होना चाहिए, उतना हमारे देश में नहीं है। लेकिन इस कारण समाचार पत्रों का महत्त्व अनायास बढ़ जाता है, क्योंकि जो पढ़ते हैं-पढ़ सकते हैं, वे लोकमत को बनाने में अपनी भूमिका निभाते हैं।
आज अपने मित्रों से एक बात कहना चाहूँगा, हमारे देश में अभी भी अखबार मांगकर पढऩे की पद्धति चल रही है। हम मांगकर खाना पसंद नहीं करते, हम मांगा हुआ कपड़ा पहनना पसंद नहीं करते, तो हम मांगा हुआ अखबार पढऩे में संकोच क्यों नहीं करते? कारण धनाभाव नहीं है। अच्छे-अच्छे लोगों को मैं देखता हूँ। पत्र खरीदते नहीं है, लेकिन पढऩा चाहते हैं। पढऩे के लिए इतने उतावले रहते हैं कि अगर किसी ने अखबार खरीदकर पढऩा शुरू किया हो, तो वह पढऩे की अपनी इच्छा को रोक नहीं सकते। कहते हैं-क्या एक पन्ना मुझे दे सकते हैं? ऐसे मांगकर पढऩे वाले आपको विमान में मिलेंगे, रेलगाड़ी में मिलेंगे। विमान में तो अखबार बेचा नहीं जाता, मगर रेलगाड़ी में स्टेशन पर समाचार पत्र उपलब्ध रहते हैं। मगर शायद उन्हें मांगकर पढऩे में मजा आता है। कभी-कभी तो ऐसे अवसर पर मांगते हैं कि देने की इच्छा नहीं होती। पहले पृष्ठ का आधा समाचार पांचवें पृष्ठ पर, पहला पृष्ठ हमारे हाथ में, पांचवां पृष्ठ किसी और के हाथ में। अब पत्र पढऩे का कार्यक्रम कैसे बनेगा? मगर वे इसकी चिंता नहीं करते। आज हम निश्चय करेंगे कि पत्र खरीद कर पढ़ेंगे, मांगकर नहीं पढ़ेंगे। परिवार में एक ही पत्र आए, यह आवश्यक नहीं है। जो समृद्ध परिवार हैं उनमें पति की मोटर अलग है, पत्नी की अलग है, लडक़ा अलग मोटर रखना चाहता है, लडक़ी अलग मोटर रखना चाहती है। काश! समाचार पत्रों के बारे में भी ऐसा ही हो सकता। पढऩे के लिए बच्चों को अलग-अलग चाहिए, उसी तरह अपनी रुचि का पत्र भी खरीदने की हमें आदत डालनी चाहिए।
समाचार पत्रों की बिक्री बढऩा जरूरी है। लेकिन मैं जानता हूं, मैं समाचार पत्र चला चुका हूँ। अगर समाचार पत्र घाटे में चलता है, तो बिक्री से घाटा और बढ़ता है। समाचार पत्र घाटे में न चले, इसका प्रबंध भी बहुत आवश्यक है। कागज महंगा हो रहा है। सरकार न्यूज प्रिंट का दाम बढ़ाती जा रही है। वर्तमान पत्र निकलेंगे कैसे? अपने पैरों पर कैसे खड़े होंगे? न्यूज प्रिंट तो समाचार पत्र के काम आता है। उस पर शुल्क नहीं बढ़ाना चाहिए। जो शुल्क बढ़ाया उसका कोई औचित्य नहीं है। सरकार की आमदनी बढ़ाने के और साधन हो सकते हैं। विद्या पर, लोकशिक्षण पर, कर लगाना न्याय संगत नहीं माना जा सकता। दूसरी बात है- समाचार पत्र को विज्ञापन चाहिए। उन्हें विज्ञापन की आवश्यकता है। केवल सर्कुलेशन के बल पर समाचार पत्र विफ ल है। सबसे अधिक विज्ञापन देने वाली संस्था है सरकार। पब्लिक अंडरटेकिंग्ज हैं। युनियन पब्लिक सर्विस कमीशन है। स्टेट का पब्लिक सर्विस कमीशन है। रेलवे के विज्ञापन आते हैं। और अगर विज्ञापन देने में सरकार कंजूसी करेगी या भेदभाव करेगी, तो देश में स्वतंत्र पत्रकारिता का विकास बड़ा मुश्किल हो जाएगा। आदर्श व्यवस्था तो ये होगी कि सरकारी विज्ञापनों को वर्तमान पत्रों के सर्कुलेशन के साथ जोड़ दिया जाए। पत्र अपनी विचारधारा का प्रतिपादन करेंगे। लोकतंत्र में मतभिन्नता होगी। मतभिन्नता का हमें समादर करना चाहिए। लेकिन विज्ञापन के लिए जो धन आता है, वह जनता से वसूल किया जाता है। उस धन से अगर स्वतंत्र-पत्रकारिता में बाधा पैदा होती है, तो समझना चाहिए कि शासन अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर पा रहा है। ऐसी शिकायतें मिली है। आप प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट देखिए। पत्रकारों के संगठन इस सवाल को उठाते रहते हैं। संपादक के नाते मुझे भी इस बात का अनुभव है। लेकिन मैं किसी विशेष सरकार की आलोचना नहीं कर रहा। सरकारें सब एक तरह की होती हैं।
सत्ता का अपना एक चरित्र होता है। लेकिन अगर लोकशाही को मजबूत करना है, तो कुछ संस्थाओं का विकास करना होगा। नई संस्थाओं का विकास करना होगा। कुछ मर्यादाओं का विकास करना होगा। कुछ मर्यादाओं का पालन करना होगा। कुछ नए मानदण्ड कायम करने होंगे। विज्ञापन का अधिकार बड़ा अधिकार है। लेकिन अगर इस अधिकार के दुरुपयोग की संभावना है, तो दुरुपयोग होता भी है। ऐसी व्यवस्था का विकास जरूरी है कि जिसमें समाचार पत्र अपने प्रसार के अनुसार विज्ञापन पा सकें। हां, अगर कोई समाचार पत्र निर्धारित आचार संहिता का उल्लंघन करता है, कुछ महीनों के लिए उसका विज्ञापन रोका जा सकता है। प्रेस काउंसिल ने भी इस आशय की सिफारिश की है। कोई वर्तमान पत्र अगर कानून का उल्लंघन कर है. तो अदालत उसे दण्डित कर दे. तो वह थोडे समय के लिए विज्ञापन पाने का अधिकार खो देता है। जिसके बारे में कोई शिकायत ही नहीं है. आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है. कानून के दायरे के भीतर वर्तमान पत्र चल रहा है. उसके साद सचमुच विज्ञापन में भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। ये भी जरूरी है कि हम समाचार पत्रों को जानकारी इका करने का कानूनी अधिकार प्रदान करें। दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में ऐसे कानून है। प्रेस को अधिकार है। जो सरकार के पास जाकर सरकार के किसी अधिकारी के पास जाकर जानकारी की मांग कर सके, इस घटना के बारे में-अमुक घटना के बारे में मुझे तथ्यों की जानकारी चाहिए, आप वह दीजिए। पत्रकार यह मांग कर सकते हैं कि हमें दस्तावेज दिखाए जाएं। राईट टू हैव इंफार्मेशन जानकारी प्राप्त करने का अधिकार। इसके बिना पत्रकार अपने कर्तव्य का पालन कैसे करे? अगर सही जानकारी नहीं है, तो अफवाहों पर जाएंगे, सुनी-सुनाई बात पर भरोसा करने के लिए विवश होंगे। या येन-केन-प्रकारेण वे जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करेंगे। इस संबंध में कानून बनाना जरूरी है। प्रेस को कानून से ये अधिकार होना चाहिए कि वह शासन से, या शासन के अधिकारियों से जानकारी प्राप्त कर सके। दस्तावेजों को देख सके। हमें प्रेस के इस अधिकार का समादर करना होगा कि वे अपनी जानकारी के सूत्रों का उद्घाटन न करें। जनहित के नाम पर आज इस देश में बहुत सी बातें पार्लियामेंट को, प्रेस को बताई नहीं जातीं। जनहित की अंतिम कसौटी कौन तय करेगा? कोई चीज जनहित में है या नहीं इसका निर्णय कौन करेगा? मैं संसद में देखता हूँ, कोई जानकारी अगर मांगी जाती है, सरकार कहती है-ये जानकारी देना जनहित में नहीं है। और उसके आगे कोई तर्क काम नहीं करता। अगर हम लोकसभा के अध्यक्ष से कहेंगे कि ‘अध्यक्ष महोदय, आप हस्तक्षेप करिए। जनहित का तकाजा है कि ये जानकारी सदन के सामने रखी जाए, देश के सामने रखी जाय।’, अध्यक्ष महोदय कहते हैं कि जहां जनहित की तलवार टांग दी गई, वहाँ मेरे अधिकार निष्प्रभावी हो जाते हैं। अब अगर राष्ट्र की सुरक्षा के संबंध में कोई मामला है, तो जनहित की बात समझ में आ सकती है। कोई नहीं चाहेगा कि हमारे रक्षा के रहस्य किसी को भी पता लगे। लेकिन रक्षा के मामलों में मैं जहाँ देखता हूँ, जो जो जानकारी लंदन में उपलब्ध है, वह नई दिल्ली में नहीं दी जाती। जो जानकारी पत्रों में छपती है, वह संसद सदस्यों को प्राप्त नहीं कराई जाती।
आप ऐसा मत समझिए कि जब जनता सरकार थी, तब इस संबंध में कोई अलग प्रक्रिया थी। मैंने आपसे कहा कि ढंग एक ही था, ढर्रा एक ही था। मगर विचित्र बात है कि हमारे कांग्रेसी मित्र भी ये शिकायत करते थे कि जनमत- जनहित का बहाना बनाया जा रहा है, तथ्यों को छुपाने के लिए और आज हम बहाना कर रहे हैं। कहीं न कहीं इस स्थिति को रोकना पड़ेगा। जनहित का अंतिम निर्णय सरकार पर नहीं छोडऩा चाहिए। नाजुक मामलों में समझ सकता हूँ। आप जानते है मुझे पूरे पच्चीस साल हो गए संसद में। मंत्री भी मैं बहुत थोड़े दिनों के लिए था। जरूर जन्मपत्री में ढाई साल का राजयोग होगा। मेरा विश्वास नहीं है जन्मपत्री पर मगर आजकल जन्मपत्री का बड़ा जोर है, कर्मपत्री की किसी को चिंता नहीं है। सतहत्तर में लोगों ने बनाया, तो बन गए, अस्सी में हटाया तो हट गए। मन में कोई मलाल नहीं है। विरोधी दल में रहकर देश की सेवा हो सकती है, ऐसी मेरी मान्यता है। लेकिन मै अनुभव से बता रहा हूँ संसद सदस्य के नाते, कि अगर संसद का इसी तरह से अवमूल्यन होता रहा जैसा कुछ वर्षों से हो रहा है, तो संसदीय लोकतंत्र से लोगों की आस्था उठ जाएगी। संसद को समाज का दर्पण होना चाहिए। समाचार पत्रों को भी समाज का दर्पण होना चाहिए। लेकिन अगर संसद से तथ्य छिपाए जाएंगे, अगर उन्मुक्त वाद-विवाद के लिए वातावरण नहीं होगा, अगर संख्या के बल पर बात गले के नीचे उतरवाने की कोशिश की जाएगी, तो संसद राष्ट्र के हृदय का एक स्पंदन नहीं रहेगी। अन्य संस्थाओं की तरह ही एक संस्था मात्र रह जाएगी, वह कानूनों पर मुहर लगाएगी, मगर देश में न तो कोई बुनियादी परिवर्तन ला सकेगी और न तो देश को अराजकता की ओर जाने से रोक सकेगी। इस अवमूल्यन को देखते हुए समाचार पत्रों की भूमिका और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। लोकसभा में बैठकर कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं अपने दायित्व का पालन नहीं कर पाता। क्या बोलें? किसके सामने बोलें? जिन्हें सुनाना चाहते हैं, वे सुनते नहीं। जो सुनते हैं, वे समझ नहीं रहे हैं। जो समझ रहे हैं, वे जवाब नहीं दे रहे। संसद में वार्तालाप कम हो गया है। अपनी बात कहने की रस्म अदायगी ज्यादा हो रही है। ये खतरे की घंटी है। विधानसभाओं का तो और भी बुरा हाल है। उनका कार्यकाल घटाया जा रहा है। बिहार की विधानसभा चार घंटे ही चलती है। जितने अध्यादेश निकाले गए, ऑर्डिनन्स निकाले गए हैं, उनको भी पास नहीं करते। ये अध्यादेश टेबल पर रखे जाते हैं, स्वीकृत नहीं होते।
अध्यादेश रद्द होते हैं, विधानसभा स्थगित हो जाती है, फिर अध्यादेश जारी किए जाते हैं। पैतालीस-चालीस अध्यादेश ऐसे हैं कि जिन्हें विधानसभा ने स्वीकृति नहीं दी, मगर चल रहे हैं। लोकसभा की बैठकें कम कर दी गई हैं। अन्य विधानसभाएँ भी इसी तरह काम कर रही हैं। ऐसे में देश के मानस का प्रतिबिंबीकरण कैसे होगा? शासन पर अंकुश लगाने का काम कैसे होगा? नीति निर्धारण में जन प्रतिनिधियों को शामिल करने की प्रक्रिया कैसे चलेगी? इसके साथ-साथ न्यायपालिका का अवमूल्यन व उस पर हो रहे प्रहार से इसकी भी प्रतिष्ठा पर आंच आ रही है। मैं इसके विस्तार में नहीं जाना चाहता। अब लोकतंत्र के स्तंभ संसद व न्यायपालिका अगर दुर्बल होते हैं- और कमजोर होते हैं, तो फिर आशा का एक ही स्थान रह जाता है-निर्भीक और स्वतंत्र प्रेस। निर्भीकता के साथ लिखनेवाले पत्रकार, दबाव से मुक्त, सत्ता के प्रभाव से दूर, भीड़ के प्रभाव से दूर, उन्माद के असर से दूर, कलम को पैना करके जो आलोचना करते है वैसे समाचार पत्र। लेकिन उन आलोचनाओं के प्रति भी असहिष्णुता की भावना पैदा होती है। इस देश में शास्त्रार्थ की पुरानी परंपरा है। शास्त्रार्थ में हारनेवाला अपने को पराजित नहीं समझता, अपमानित नहीं मानता। मगर तर्क के द्वारा, तथ्य के द्वारा हम किसी निर्णय पर पहुंच सकते हैं, वह निर्णय मान्य होगा। इस परंपरा से देश हट रहा है। ‘निंदकाचे घर असावे शेजारी।’ निंदा करनेवाले को पड़ोस में रखो। ये भी पुरानी भावना है। आजकल निंदा करनेवाले को कहा जाता है- जरा दूर हटो। कौन निंदा सुनना चाहता है? कौन आलोचना पसंद करता है? एक देश के नाते हम अपने पर हंसना भी भूल गए। व्यंग्य अच्छा नहीं लगता। विनोद का आनंद नहीं ले सकते। अभी उत्तर प्रदेश में एक घटना हुई। कवि सम्मेलन था। कवियों ने कुछ व्यंग्य कसे होंगे। उत्तर प्रदेश के एक मंत्री महोदय वहां उपस्थित थे। उन्हें पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा, “इन कवियों को ठीक करो।” फिर उस कवि सम्मेलन में मारपीट हुई। कवियों की ठुकाई की गई। लोग भाग खड़े हुए। कवि मार खाकर वापस आ गए। ऐसा नहीं होना चाहिए। मैंने कहा, ‘मैं भी मंत्री रह चुका हूं। उस समय हमें भी सुननी पड़ती थी। लेकिन हमें इसके लिए तैयार रहना चाहिए। मगर हम जरुरत से ज्यादा सेन्सिटिव हो गए हैं। या तो मन में अपराध की भावना है। या हम समझ नहीं पा रहे कि तर्क-वितर्क में से एक समन्वित विचार कैसे निकाला जाए? इस देश में खंडन होगा, मंडन होगा, मान्यता पर प्रहार किए जाएंगे, मूल्यों को चुनौती दी जाएगी। इस देश में भगवान के अस्तित्व को नकारनेवाले लोग भी पैदा हुए। उन्हें सूली पर नहीं चढ़ाया गया। उन्हें विश्वास के लिए भी मजबूर नहीं किया गया। उनके मत का खंडन किया गया।
क्या हम अपनी यह परंपरा या धरोहर छोड़ देंगे। क्या देश में असहिष्णुता की ऐसी ही लहर चलेगी, जो सारे दिमाग की, चर्चा को, विवेक को, बुद्धि को झुठला देगी? मैं समाचार पत्रों को बधाई देना चाहता हूँ। जो काम संसद नहीं कर पा रही, जो काम विधानसभाएँ नहीं कर पा रहीं, वह प्रेस कर रहा है-समाचार पत्र कर रहे हैं। अगर पत्र न हों, तो संसद में जो हम बोलें और वह न छपे, तो किसे पता लगेगा कि हम वहां क्या बोले? मैं आज इस मंच से अरुण शौरी का अभिनंदन करना चाहता हूँ। यह बात प्रकाश में न आती, अगर कोई एक पत्रकार खतरों से खेलते हुए भी, सच्चाई की खोज में जुटा न रहता। बिहार में लोग अंधे कर दिए गए, हवालात में अंधे कर दिए गए। अगर जागरुक पत्रकार न होते, अगर वहां जाकर लोगों से बातें न करते, पुलिस के हमले का डर होते हुए भी अपने को खतरे में डालने को तैयार न होते, तो बिहार का वह ‘अंधा युग’ प्रकरण कभी रोशनी में न आता। लोकप्रतिनिधि अपना काम नहीं कर पा रहें हैं। सुविधाएं जुटाने में लगे हैं। इस समय पत्रकार जागरूक हैं, सचेत हैं, हर हालत में हमें पत्रकारों की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करनी है। ये ठीक है कि पत्रकारों का भी अपना दायित्व है। मैंने आपसे निवेदन किया, लिखे हुए शब्द का महत्त्व है। देश में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं, “साब,! ये बात सच है, क्योंकि अखबार में लिखी हुई है।” मैंने कहा, ‘अखबार में तो बहुत सी गलत बातें भी छपती हैं।’ मगर कुछ लोगों को भरोसा है। अब पत्रकारों और प्रेस की जिम्मेदारी है कि वे जो कुछ भी छापें सोच समझकर छापें। छापने से पहले सोचें। मैं दैनिक पत्रों की कठिनाईयों को जानता हूँ। ये ‘तरुण भारत’ का विशेषांक निकला है, उसको मैं पढ़ रहा था। कोई वार्ताकार थे, उन्होंने गांव से खबर भेजी, कि ‘मारून जाळले’ और ‘जाळून मारले’। मारकर जला दिया। टेलीफोन से जो खबर आई, उसमें शब्द ऐसे होते जलाकर मार दिया। भाव बदल गया। मगर गनीमत है-उन्हें टेलीफोन तो मिल गया। पर कहीं-कहीं तो आजकल टेलीफोन भी नहीं मिलते। मेरे साथ दिल्ली से पत्रकार गए थे, एक पदयात्रा में। पहले दिन हमारी पदयात्रा प्रारंभ हुई। हमने कहां जाकर विश्राम किया, यह जानने के लिए पत्रकार आगे-आगे भागे। दिल्ली जल्दी से जल्दी खबर जानी चाहिए। खबर कहाँ से जाएगी? टेलीफोन काम नहीं कर रहा है। पत्रकार के लिए बाधा है। रात में अगर समाचार नहीं पहुंचा, तो नहीं छपेगा। दूसरे दिन बासी हो जाएगा। पत्रकार के परिश्रम पर पानी फिर जाएगा। कभी-कभी तार से भेजते हैं। तार की हालत ऐसी है कि चिी पहले मिलती है- तार बाद में। प्रेस टेलीग्राम अलग कैटेगरी में आते हैं। कितनी कठिनाइयां हैं। और दैनिक पत्र में तो रात में समाचार चाहिए। अब जो मशीनें हैं, जो ज्यादा छाप सकती हैं, वहां देरी से भी समाचार आए तो भी आप ले सकते हैं। नहीं तो पहले ही छापना शुरू करना पड़ेगा। मैं समाचार पत्रों के इस अधिकार का सम्मान करता हूं, कि उन्हें ये बताने के लिए विवश नहीं किया जाना चाहिए कि उन्हें समाचार कहां से मिला। इंग्लैंड में इस मामले को लेकर सजाएं नहीं होती। पत्रकार को तकलीफ उठाने के लिए, जेल जाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। ग्वालियर रियासत थी।
वहाँ एक पुलिस अफसर थे, जो हिंदी नहीं जानते थे। वे इंटेलिजेंस का भी काम देखते थे। उनके नीचे एक कर्मचारी था। उस कर्मचारी ने एक दिन रिपोर्ट की, कि विश्वस्त सूत्रों से ऐसा ज्ञात हुआ है कि नगर में कुछ गड़बड़ करने की तैयारी हो रही है। अधिकारी ने वह रिपोर्ट पढ़ी। वे समझे नहीं ‘विश्वस्त सूत्र’ का क्या मतलब है, उन्होंने फाईल पर लिख दिया-विश्वस्त सूत्र को मेरे सामने पेश किया जाए। अब इंटेलिजेंस का ऑफिसर बड़ी मुसीबत से में पड़ा। विश्वस्त सूत्र को कैसे आगे करूं? है भी या नहीं? और अगर है, और उन्हें हाजिर किया जाएगा तो फिर आगे से तो वह समाचार नहीं देगा। उसने चतुराई से काम लिया। उसने फाइल पर कुछ नहीं लिखा। उसके घर जाकर सलाम किया और कहा, “आपका आदेश तो सर आँखों पर है, मगर वह विश्वस्त सूत्र इस समय शहर से बाहर चला गया है, इसलिए मैं हाजिऱ नहीं कर सकता।’ अफसर का समाधान हो गया। अगर समाचार पत्रों को अधिकृत जानकारी नहीं मिलेगी, तो वह इसी तरह सूत्रों से मिलेगी। पत्रकार के लिए सत्य का उद्घाटन करना जरूरी है। यह पत्रकार के लिए एक चुनौती भी है। और कुछ वर्षों से हमारे देश में ऐसी पत्रकारिता, जाँच-पड़ताल करनेवाली पत्रकारिता का चलन चल गया है। बहादुरगढ़ कांड का उद्घाटन न होता, अगर पत्रकार पीछे न पड़ जाते। ये हमने महाराष्ट्र में भी देखा है। इस पत्रकारिता को प्रोत्साहन देना चाहिए। मगर इसके लिए दृढ आर्थिक आधार जरूरी है। आर्थिक आधार शासन की नीति में परिवर्तन हो सकता है। परिवर्तन जरूरी है। उसके बारे में एक आम सहमति बनाई जा सकती है। केवल दल का प्रश्न नहीं। दल तो बदल जाएंगे। सत्ता बदल जाएगी। लेकिन हम ऐसी परंपराएं डालें, ऐसी संस्थाओं का निर्माण करें कि जीवन चलता रहे।
ऑल इंडिया रेडियो व टेलीविजन सरकार के अंग के रूप में चल रहे हैं। इसलिए भारत में पत्रों के ऊपर और भी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। आप कह सकते हैं, कि जब आपकी सरकार थी, तब आपने ऑटोनॉमस कॉर्पोरेशन क्यों नहीं बनाया? वादा तो हमने किया था, पूरा नहीं कर पाए। अगर कोई काम हमने नहीं किया, इसलिए वह काम अब नहीं होना चाहिए, तो ये बात मेरी समझ में नहीं आती। ऑल इंडिया रेडियो-टेलीविजन का ऑटोनॉमस कॉर्पोरेशन जरूरी है। बीबीसी अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है। मगर ऑल इंडिया रेडियो अगर 19 तारीख को सबेरे से ये कहना शुरू कर देती है, ‘आम हड़ताल विफल हो गई, आम हड़ताल विफल हो गई,’ यदि हड़ताल शुरू नहीं हुई, तो विफल कहां से हुई? अगर ऑल इंडिया रेडियो ये कहे कि हड़ताल सफल हुई या विफल हुई-इसके बारे में अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं, तो लोग थोड़ा सा सुनेंगे भी थोड़ा सा उससे प्रभावित भी होंगे। इसलिए प्रचार के साधनों की विश्वसनीयता जरूरी है। कैसी विचित्र स्थिति हो जाती है, मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूँ। असम की सरकार ने समाचार पत्रों पर सेंसर लगा दिया। आवश्यक नहीं थी फिर भी लगा दिया। लोकतांत्रिक देश में जन-आंदोलनों से निपटने का ये तरीका नहीं होता। लेकिन वह सेन्सरशिप किस सीमा तक चली गई, इसका उदाहरण सामने आया। जब मैंने भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष के नाते ग्यारह जनवरी को सारे देश में ‘असम दिवस’ मनाने का आवाहन किया, तो असम के पत्रों में वे समाचार छपने नहीं दिया गया। छप जाता तो, असमवालों पर अच्छा प्रभाव होता। असम की समस्या के प्रति शेष भारत में भी चेतना है, वे अलग-थलग नहीं हैं, वह अकेला नहीं है। शेष भारत उनके साथ खड़ा है। क्या इसका असर वहाँ अच्छा नहीं होता? मगर ऐसा होने से इस रोक दिया गया। ऑल इंडिया रेडियो पर ‘असम दिवस’ की बात नहीं कहने दी गई। मगर हम दिवस मना रहे हैं, इसकी आलोचना में जो वक्तव्य आए, वे वक्तव्य प्रसारित किए गए। ‘असम दिवस’ मनाना ठीक नहीं है, भारतीय जनता पार्टी वाले राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं, और हम ‘असम दिवस’ मना रहे हैं, ये बताया नहीं श्रोताओं को। असम के संबंध में एक दूसरी घटना हुई, जब मैंने सात सूत्री फार्मूला रखा। रेडियो पर फार्मूला नहीं बताया गया। जब मैंने लोकसभा में श्री वसंतराव साठे से पूछा, ‘आपने रेडियो पर फार्मूला क्यों नहीं बताया?’ कहने लगे, ‘हमने बताया था,’ मैंने कहा ‘समय?’ कहने लगे-सबेरे आठ बजे। हमने कहा, ‘रात में नौ बजे क्यों नहीं?’ कहने लगे, ‘नहीं, सबेरे-सबेरे समाचार ताजा समाचार था।’ और समाचार था एक दिन पहले का। तब प्रेस कांफ्रेंस में मैंने बताया कि किस तरह सरकार ने विपक्ष के विचारों को चालाकी से दबा दिया।
ऑल इंडिया रेडियो जब तक कारपोरेशन नहीं बनता, तब तक प्रेस की जिम्मेदारी और भी बढ़ेगी। सेंसरशिप का विरोध होना चाहिए। समाचार पत्रों के दफ्तरों को घेर लिया जाए, यह प्रवृत्ति खतरनाक है। समाचार पत्रों को धमकी दी जाए, ये लोकशाही की भावना के अनुकूल नहीं है। आलोचना का स्वागत होना चाहिए। मुझे याद है, पं. नेहरू ने कहा था, ‘हो सकता है, प्रेस गलती करे, हो सकता है, प्रेस ऐसी बात लिख दे, जो मुझे पसंद न हो। प्रेस का गला घोंटने की बजाय, मै यह पसंद करूंगा कि प्रेस गलती करे और गलती से सीखे, मगर देश में प्रेस की स्वतंत्रता बरकरार रहे।’ स्पष्ट है की प्रेस पर भी जिम्मेदारी है। प्रेस को सनसनी पैदा करने से बचना होगा। एक सांप्रदायिक दंगा हो जाए, इससे प्रेस की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। हिंसा की निंदा होनी चाहिए। तनाव घटाने के लिए प्रेस को अपने प्रभाव का उपयोग करना होगा। प्रेस सामाजिक समता के लिए अपने लेखनी का, अपने प्रभाव का उपयोग करे।
मैंने वर्षों पहले जो कुछ देखा, उसे मैं जिंदगी भर नहीं भुलूंगा। अभी पिछले दिनों दो घटनाएं हुई है, वो मेरे हृदय पर गहरा घाव छोड़ गई। एक घटना कुतुबमीनार के भीतर बच्चों के मरने की जब मैं देखने गया, तो मैंने देखा कुतुबमीनार के नीचे बच्चों के कपड़ों की ढेर लगे हैं। छोटे-छोटे कपड़े, खून से रंगे हुए, (कुछ शर्ट, कुछ अंडरवीअर भी, एक छोटा सा जूता भी पड़ा हुआ था। कहीं छोटा सा टिफिन कैरिअर उलट गया था। पता नहीं किस माँ ने कितनी प्यार से अपने बेटे को उस टिफिन कैरिअर में सुबह का नास्ता देकर भेजा होगा। बेटा दिल्ली के दर्शन के लिए जाएगा- मगर वह वापस नहीं आया। मैं रात में जाग जाता हूं कभी-कभी और उन कपड़ों के ढेर को याद कर चौक जाता हूं, डर जाता हूं। सारूपुर में मैंने जो कुछ देखा, उसे भूलना मुश्किल है। हम लोग जब सारूपुर में पहुंचे, पश्चिम में सूरज अस्त हो रहा था। अंधेरा घिर रहा था। मगर गांव की दक्षिण दिशा में प्रकाश उठ रहा था। यह कैसा प्रकाश है? यह रोशनी कहां से आ रही है? जाकर देखा सामूहिक चिताएं जल रही थी। अलग-अलग नहीं, अंतिम संस्कार नहीं, मंत्र का पाठ नहीं, तर्पण नहीं, पर घरवाले रो रहे हैं। पुलिसवाले सामूहिक चिता जला रहे हैं। चिता के लिए लकडिय़ां भी पूरी नहीं थीं। गृहमंत्री वापस चले गए थे। मुख्यमंत्री भी रूके नहीं थे। शायद उन्हें लखनऊ जाना होगा। आगे का प्रबंध करना होगा। वहां सामूहिक चिता के चारों ओर मु_ी भर हरिजन बैठे थे, जाट बैठे थे। दो क्षण के लिए मैं चिता के सामने खड़ा रहा, वह मानवता की चिता थी।
सारूपूर, दिल्ली ये दो गांव नहीं हैं, भारत की आत्मा पर लगे हुए दो घाव हैं। पता नहीं कितने घाव लग रहे हैं भारत की आत्मा पर, आत्मा छलनी हो रही है। क्या अर्थ है धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करने का? कौन हमारे दर्शन का मूल्यांकन करेगा? कौन वेदांत का अभिनंदन करेगा? पश्चिम के देशों में चमड़े का रंग अलग होने के कारण भेदभाव होता है, तो सारी दुनिया में आवाज उठती है। उस आवाज में हम भी अपना स्वर मिलाते हैं। यहां तो चमड़े का रंग भी एक ही है। क्या फर्क है हममें? दुश्मनी से नहीं मारे गए लोग, बदले की भावना से नहीं बल्कि दलित की, हरिजन है, जाटव हैं इसलिए मारे गए हैं। केवल समाचार पत्रों ने इस संबंध में अच्छी भूमिका निभाई है। वास्तव में उनका अभिनंदन करना चाहिए। दो दिन पहले घटना हो गई। राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पता नहीं, नेताओं को पता नहीं।
सत्य की रक्षा होनी चाहिए। सत्यमेव जयते, सत्य का उद्घाटन, मगर पत्रकारों का दायित्व थोड़ा और भी है। ऐसा मानस बनाना होगा, ऐसी मानसिकता जगानी होगी कि प्रदेश में ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं फिर नहीं होनी पाए। आर्थिक शोषण के खिलाफ, सामाजिक विषमता के खिलाफ हमें राष्ट्रीय भावना जगानी है। संकल्प जगाना है। पत्रकारों को उसमें भी अपनी भूमिका निभानी है। यह ठीक है- पत्रकारों की जीविका का प्रश्न है। पत्रकारों के सामने वेतन की समस्या है। पालेकर एवार्ड का स्वागत होना चाहिए। लेकिन मैं देख रहा हूं, पालेकर एवार्ड का कार्यान्वयन हुआ और छोटे-छोटे पत्र बंद हो गए। अर्थाभाव है। क्या वे किसी उद्योगपति की शरण में जाएं? या जो पक्ष की सरकार है उसकी हां में हां मिलाएं? अपने पैरों पर कैसे खड़े रहेंगे छोटे पत्र? उन्हें विशेष सहायता देनी होगी विज्ञापनों की दृष्टि से उनकी मदद करनी होगी। न्यूज प्रिंट की बढ़ी हुई कीमत वापस लेनी होगी। आज भी हमारे देश में अंग्रेजी की पत्रकारिता अधिक विकसित है। उनके पास अधिक बिक्री साधन है, सुविधाएं हैं। भाषाई पत्र अनुवाद के आधार पर चलते हैं। जो हैं उन्हें पूरी सहायता नहीं मिल रही है। संवाद समिति में भी भेदभाव हो रहा है। अनुवाद की समस्या है। अंग्रेजी से प्रतियोगिता कैसे हो? भाषाई पत्र अंग्रेजी पत्र के टक्कर में अधिक कैसे बिके? आधा समय अनुवाद में चला जाता है, समय जाता है-शक्ति जाती है, गलतियां हो जाती हैं।
मुझे याद है इलाहाबाद से एक पत्र निकलता था। उसमें काम करनेवाले कईं नए लोग थे, कईं तरुण थे। मैं इलाहाबाद की उस घटना का उल्लेख कर रहा हूं, उसमें ऐसा हुआ कि रात में खबर आई पुलिस ओपन्ड फायर फिर आगे वर्णन था- कोई नया पत्रकार था, उसने डिक्शनरी देखी- ओपन फायर के बदले उसने लिखा- पुलिस ने आग खोल दी। उस दैनिक पत्र का शीर्षक था पुलिस ने आग खोल दी। नीचे लिखा था इतने मरे इतने घायल। (अब यह आग खोल दी क्या हो गया? आग कब बंद थी जो खोल दी? ओपनफायर- पुलिस ने आग खोल दी।) अंग्रेजी पत्र ऐसी गलतियां नहीं कर सकते। भाषाई अखबार के सामने समस्या है। इसलिए उन्हें विशेष सहायता देने की जरूरत है।
हर समस्या का एक मानवीय पक्ष है। मानवीय पक्ष को ध्यान में लाना, उसे उद्घाटित करना- यह खबर है, मगर दंगे के साथ यह खबर भी होनी चाहिए कि एक मोहल्ले में दंगा हो रहा था तो दूसरे मोहल्ले में सब लोग मिलजुलकर सामान खरीद रहे थे, आपस में व्यवहार कर रहे थे। यह मैंने सारूपूर में देखा है। यह नहीं कि आसपास के गांव को पता नहीं, चेतना नहीं- मगर रिश्ते अभी मजबूत हैं, इसलिए देश के बारे में आशा है। कभी-कभी आशंका जरूर होती है। मगर आशा साथ नहीं छोड़ती। संतुलित दृष्टिकोण लेकर अगर समाचार पत्र चलें, जहां प्रहार करना है, वहां प्रहार करने में कसर नहीं, लेकिन जहां मर्यादा का पालन करना चाहिए वहां मर्यादा उल्लंघन का कोई विचार नहीं। स्वदेश में पत्रकारिता अपने दायित्व को और भी अच्छी तरह से पूरा करेगी, लोकशाही को बल मिलेगा, संसद और न्यायपालिका के अवमूल्यन के कारण कमी पैदा हो रही है, उसे समाप्त करने में, स्वतंत्र और निर्भीक प्रेस हमारी सहायता करेंगे। मैं ‘तरुण भारत’ को उज्ज्वल भविष्य के लिए अपनी मंगल कामनाएं देता हूं, उसका अभिनंदन करता हूं, और सब श्रोताओं से एक बार फिर अपील करना चाहता हूं, समाचार पत्र पढ़ें मगर खरीद कर पढ़े, मांग कर न पढ़ें।?