-सुभाष मिश्र
नवरात्रि के आगमन पर गरबा की थापें फिर चौक-चौराहों में गूंजने लगती है। यह पर्व न केवल मां दुर्गा की उपासना का समय है, बल्कि सामूहिक उत्साह और सांस्कृतिक ऊर्जा का उत्सव भी है। परंतु इस वर्ष गरबा आयोजनों को धार्मिक राजनीति और सामाजिक तनाव की चपेट में देखा जा रहा है। गरबा अब सिर्फ उत्सव नहीं, चुनौती भी बन चुका है—क्या यह समावेशी रहा सकता है या विभाजन का उपकरण बन जाएगा?

नवरात्रि का महत्व पुराने समय से ही धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से गहरा है। इसे सत्य पर असत्य की जीत और धर्म की विजय का प्रतीक माना जाता है। नौ दिनों तक पूजा, कलश स्थापना, उपवास, भजन-कीर्तन और अंतिम दिन कन्या पूजन जैसी परंपराएं इस पर्व का आधार रहीं। गुजरात और महाराष्ट्र में गरबा-डांडिया नृत्य की परंपरा इसे और जीवंत बनाती है। परंतु समय के साथ गरबा अपने पारंपरिक पवित्र स्वरूप से बदलकर सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजन बन गया है।
इस बदलाव के बीच, कुछ हिंदू संगठन गरबा पंडालों में भागीदारी और आयोजकों पर धार्मिक पहचान के मानदंड लगाने लगे हैं। महाराष्ट्र में व्हीएचपी ने कहा है कि गैर-हिंदुओं को गरबा-डांडिया आयोजनों में नहीं आने देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि हर प्रतिभागी को तिलक लगाया जाए और केवल हिंदू ही प्रवेश पायें। इसके अलावा तिलक, रक्षा सूत्र और यहां तक कि गौमूत्र छिड़कने जैसी शर्तें भी सामने आई हैं, जिससे साफ संकेत मिलता है कि कुछ प्रयास गरबा को धार्मिक पहचान से जोडऩे के हैं।
मध्य प्रदेश की एक विधायक ने सार्वजनिक रूप से कहा कि जो लोग गैर-हिंदू हों और गरबा में भाग लेना चाहें, उन्हें पहले हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करना चाहिए जैसे तिलक लगाना, गंगाजल पीना, देवी की आरती करना। भोपाल प्रशासन ने पंडालों में बिना पहचान पत्र वाले लोगों को प्रवेश निषिद्ध कर दिया है, ताकि आयोजनों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
और छत्तीसगढ़ में, वक्फ बोर्ड का एक विवादित बयाना सुर्खियों में है। बोर्ड अध्यक्ष डॉ. सलीम राज ने मुस्लिम युवाओं से आग्रह किया है कि यदि वे मूर्ति पूजा में आस्था नहीं रखते तो गरबा जैसे आयोजनों से दूरी बनाएं। उन्होंने कहा है कि यदि कोई सम्मान भाव से हिस्सा लेना चाहता हो तो आयोजकों की अनुमति लेकर आ सकता है।
इसी दौरान, बांस और वक्फ के बीच गरबा पंडालों में गैर-हिंदू प्रायोजकों के विरोध का दृश्य छत्तीसगढ़ के बस्तर में उभरा है। वहाँ व्हीएचपी और बजरंग दल ने गैर-हिंदू प्रायोजकों द्वारा गरबा आयोजनों को स्वीकार नहीं करने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि धार्मिक शुद्धता बनाए रखने के लिए आयोजकों में हिंदू पहचान होनी चाहिए। कुछ कार्यक्रम रद्द कर दिये गये और आयोजक विरोध कर रहे आयोजनों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की कह रहे हैं।
गुजरात में एक और मामला सामने आया है, जहां एक गरबा कार्यक्रम में मुस्लिम वादक ढोल बजा रहे थे। हिंदू संगठनों ने इस पर प्रतिक्रिया दी और आयोजकों से माफी मांगने को कहा गया। आयोजकों ने साफ किया कि उनका उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाएं आहत करना नहीं था।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि गरबा आज सांस्कृतिक उत्सव से कहीं आगे बढ़ गया है- वह पहचान, धार्मिक अधिकार और राजनीतिक सत्ता का विषय बन
गया है।
समाजशास्त्र की दृष्टि से, गरबा कभी जाति या धर्म की दीवारों से परे था। ग्रामीण और शहरी समाजों में यह स्त्रियों की सक्रिय भूमिका, सामूहिकता और सांस्कृतिक ऊर्जा का प्रतीक रहा। लेकिन अब इसे तीन विपरीत दिशाओं से दबाव मिल रहा है-बाज़ारीकरण, धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक वर्चस्व। आयोजक टिकट, स्पॉन्सरशिप, प्रतियोगिताएं और मीडिया कवरेज जैसे तत्व जोड़ रहे हैं, जिससे गरबा एक भारी व्यावसायिक इवेंट बन गया है।
वहीं दूसरी ओर धार्मिक कट्टरता इसे पहचान-आधारित आयोजन बनाने की कोशिश कर रही है। लव जिहाद के आरोपों को आधार बनाकर गैर-हिंदुओं को बाहर रखना, पहनावे पर पाबंदियाँ लगाना और पंडालों को हिंदू स्थल के रूप में परिभाषित करना- ये सभी ऐसा संकेत देते हैं कि गरबा को विभाजन का माध्यम बनाया जा रहा है।
राजनीतिक दृष्टि से, गरबा पर नियंत्रण का प्रयास राज्य-स्तर पर भी नजर आ रहा है। आयोजकों को निर्देश दिए जा रहे हैं कि वे धार्मिक पहचान सुनिश्चित करें। विवादों में यह प्रश्न उठता है क्या किसी त्योहार को केवल एक समुदाय के लिए आरक्षित कर देना संविधान और सामाजिक न्याय की दृष्टि से स्वीकार्य है?
इन घटनाओं का असर सिर्फ आयोजनों तक सीमित नहीं है। वे धार्मिक समुदायों के बीच अविश्वास, कटुता और संदेह को बढ़ाते हैं। कभी वह शक्ति, भक्ति और सामूहिक आनंद का प्रतीक था, अब वह एक ऐसा मैदान बन गया है जहां पहचान और धर्म के चिन्ह सवालों में खड़े होते हैं।
इस स्थिति का सामना करने के लिए आवश्यक है कि गरबा को फिर उसी रूप में देखा जाए जिसमें उसने अपना अस्तित्व पाया था-एक साझा सांस्कृतिक आयोजन जिसमें सभी का स्वागत हो। आयोजकों को पारदर्शी नियम बनाने चाहिए, किसी भी धर्म को बाहर न करना चाहिए और पहनावे व पहचान के मामलों में संयम बरतना चाहिए। सरकार और प्रशासन को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि धार्मिक स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकार सुरक्षित रहें। सामाजिक और धार्मिक संगठनों को गरबा की मूल भावना समेत आस्था, आनंद और एकता को प्राथमिकता देनी चाहिए।
तब ही गरबा फिर से विभाजन का नहीं, समावेशन और एकता का प्रतीक बन सकेगा। भविष्य में गरबा का स्वर ऐसा होना चाहिए कि वह पहचान की दीवारों को नहीं तोड़े, बल्कि दिलों को जोड़ दें। यह नवरात्रि का सबसे बड़ा संदेश हो सकता है- शक्ति की पूजा से भी अधिक, एकता और सहनशीलता की पूजा।