-सुभाष मिश्र
भारत के संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को हटाने की मांग ने एक बार फिर से राष्ट्रीय बहस को जन्म दिया है। यह मांग कोई नई नहीं है, पर इस बार इसे जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा जैसे शीर्ष पदों पर बैठे लोगों का समर्थन मिला है, उससे यह बहस और अधिक संवेदनशील बन गई है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द संविधान की प्रस्तावना में 1976 में आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन के तहत जोड़े गए थे। इसके पीछे उद्देश्य था कि भारत के संविधान में धार्मिक तटस्थता और सामाजिक-आर्थिक समानता जैसे मूल्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए। लेकिन आरएसएस और इसके समर्थकों का कहना है कि ये शब्द मूल संविधान में नहीं थे और इन्हें बिना व्यापक चर्चा के जोड़ा गया, अत: इन पर पुनर्विचार आवश्यक है।
इसके विपरीत, कांग्रेस और विपक्षी दल इसे संविधान की आत्मा पर हमला मानते हैं। राहुल गांधी ने इस बहस को संविधान बनाम मनुस्मृति की लड़ाई करार दिया है। उनका आरोप है कि आरएसएस और बीजेपी का असली उद्देश्य संविधान की धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक प्रकृति को समाप्त कर बहुसंख्यकवादी एजेंडे को थोपना है।
मूल संरचना बनाम वैचारिक टकराव
भारत के संविधान की मूल संरचना सिद्धांत को 1973 के केशवानंद भारती फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था। इसमें धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय को संविधान के ऐसे मूल तत्व माना गया है जिन्हें बदला नहीं जा सकता। इसलिए प्रस्तावना से इन शब्दों को हटाने की कोई भी कोशिश न केवल राजनीतिक विवाद, बल्कि एक संवैधानिक संकट को भी जन्म दे सकती है।
आरएसएस का तर्क है कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द पश्चिमी विचारधाराओं से आयातित हैं, जो भारतीय संस्कृति के सर्व पंथ समभाव और वसुधैव कुटुंबकम जैसे सिद्धांतों से मेल नहीं खाते। जबकि आलोचकों का कहना है कि ये शब्द भारतीय परिप्रेक्ष्य में न केवल पुनर्परिभाषित हो चुके हैं, बल्कि बहुलता, विविधता और समानता की रक्षा में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं।
संविधान संशोधन विधेयक और संसद की भूमिका
संविधान (संशोधन) विधेयक, 2021 के तहत समाजवादी शब्द की जगह ‘समतामूलक शब्द लाने का प्रस्ताव रखा गया था, जिसे राज्यसभा के सदस्य अल्फोंस कन्ननथनम ने पेश किया। हालांकि विधेयक पास नहीं हुआ, लेकिन यह स्पष्ट कर गया कि यह बहस केवल वैचारिक नहीं, बल्कि विधायी गलियारों तक पहुंच चुकी है।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में, संविधान संशोधन आसान नहीं है। इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ कुछ मामलों में राज्यों की भी सहमति आवश्यक होती है। एनडीए को भले ही लोकसभा में बहुमत प्राप्त है, पर राज्यसभा में यह स्थिति नहीं है। इसके अतिरिक्त ऐसा कोई भी प्रयास व्यापक विरोध और जन आंदोलनों को जन्म दे सकता है, जैसा कि सीएए-एनआरसी के समय देखा गया था।
सामाजिक प्रभाव और राजनीतिक निहितार्थ
भारत एक बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश है। धर्मनिरपेक्षता यहा3 केवल वैचारिक अवधारणा नहीं, बल्कि सामाजिक सौहार्द का संवैधानिक आधार है। इसे हटाने की मांग से धार्मिक अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पनप सकती है। वहीं, समाजवाद शब्द गरीबों, श्रमिकों और हाशिए पर खड़े तबकों के लिए नीति निर्माण का संकेत है। इसके स्थान पर पूंजीवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने का आरोप सरकार पर पहले से ही लग रहा है, जिसे यह बहस और तीव्र कर सकती है।
बीजेपी इस बहस को अपनी विचारधारा के अनुरूप उपयोग कर अपने कट्टर समर्थकों को एकजुट कर सकती है, जबकि विपक्ष इसे संविधान की रक्षा के लिए एकजुटता के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। उपराष्ट्रपति का खुलकर इस मुद्दे पर पक्ष लेना भी एक विवाद का विषय बना, जिससे उनके संवैधानिक पद की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार स्पष्ट किया है कि धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं। इसलिए प्रस्तावना में इन शब्दों को हटाने का कोई भी प्रयास न्यायिक समीक्षा के दायरे में आएगा। संविधान में संशोधन की अनुमति है, पर यह संशोधन मूल ढांचे को प्रभावित नहीं कर सकता।
संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों को हटाने की मांग केवल टेक्स्ट की बहस नहीं है, बल्कि यह भारत के लोकतांत्रिक चरित्र, सामाजिक समरसता और संविधान की आत्मा से जुड़ा मुद्दा है। यह बहस भारत की वैचारिक दिशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभा सकती है।
एक बहुलतावादी राष्ट्र नके रूप में भारत को चाहिए कि इस मुद्दे पर राष्ट्रीय बहस हो परंतु वह बहस समावेशी, विवेकपूर्ण और संविधान की मूल भावना के प्रति प्रतिबद्ध होनी चाहिए। संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि भारत की आत्मा है और इसकी आत्मा से छेड़छाड़ का कोई भी प्रयास सामाजिक सौहार्द्र और लोकतांत्रिक परंपराओं को चोट पहुंचा सकता है।