Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – हर वह धरती, जहां से जीवन और संवेदना फूटती है

-सुभाष मिश्र

जैसे-जैसे महिलाएं आर्थिक रूप से सक्षम, शिक्षित और आत्मनिर्भर होती जा रही हैं, वैसे-वैसे उनका सामाजिक और व्यक्तिगत दायरा भी बढ़ रहा है। घर की चारदीवारी में सीमित रहने वाली महिलाएं अब हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। कल तक जो महिलाएं पुरुषों के कहने पर वोट डालती थीं, आज वे अपनी राजनीतिक समझ और स्वतंत्र सोच से निर्णय ले रही हैं। यही कारण है कि राजनीतिक दल अब उन्हें प्रभावशाली वोट बैंक के रूप में देखने लगे हैं। शासन की योजनाओं का केंद्र भी अब महिलाएं हैं। परंतु समाज की मानसिकता अभी पूरी तरह बदली नहीं है। एक ओर जहां महिलाओं को देवी का रूप मानकर पूजा जाता है, वहीं दूसरी ओर दहेज, शोषण और यौन हिंसा की घटनाएं अब भी आम हैं।
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारों के बावजूद निर्भया जैसी घटनाएं हमें झकझोरती हैं। शिक्षा और कानून के बावजूद महिलाओं के प्रति अपराध की प्रवृत्ति कम नहीं हुई है। बाजार में भी महिलाएं उपभोक्ता वस्तु की तरह प्रस्तुत की जा रही हैं, फिर भी वे हर क्षेत्र में अपनी क्षमता सिद्ध कर रही हैं। खेल, सेना, विज्ञान, कला, या नेतृत्व हर जगह वे नई ऊंचाइयों को छू रही हैं। लेकिन निजी जीवन में उन्हें अब भी अपमान, हिंसा और तकनीकी ब्लैकमेलिंग जैसी स्थितियों से जूझना पड़ता है। भारत में शक्ति पूजा की परंपरा है, लेकिन शक्ति की स्वीकृति आज भी अधूरी है। दुनिया के सबसे विकसित देश अमेरिका में आज तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बनी, यह बताता है कि सशक्तिकरण की यात्रा वैश्विक स्तर पर भी अधूरी है। इसलिए यह सवाल जरूरी है, क्या हम सचमुच महिलाओं को मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त बना रहे हैं या केवल दिखावे की बातें कर रहे हैं?
घटती संवेदना, बढ़ता वहशीपन
सभ्यता की चमक में छिपती अमानवीयता

बिहार के हालिया चुनावों में महिलाओं की बढ़ी भागीदारी ने इस बदलाव की दिशा को और स्पष्ट किया है। महिलाएं अब केवल मतदाता नहीं, बल्कि परिवर्तन की वाहक बन रही हैं। जब महिलाएं तय करती हैं तो वे वही रास्ता चुनती हैं जहां सम्मान, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता हो। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सभ्यता का अर्थ ही है संवेदना, मर्यादा और सामूहिक समरसता। परंतु आज के समय में संवेदना घट रही है और उसके स्थान पर एक प्रकार का वहशीपन बढ़ता जा रहा है। चिंता की बात यह है कि अमानवीय व्यवहार अब केवल असामाजिक तत्वों तक सीमित नहीं रह गया है। कभी एक सिपाही मासूम बच्ची को ‘पापाÓ न कहने पर सिगरेट से दाग देता है, कभी अस्पताल में वेंटिलेटर पर पड़ी लड़की के साथ बलात्कार की खबर आती है। कभी चुनाव प्रचार में बुलाई गई अभिनेत्री के साथ बदसलूकी, तो कभी एक वरिष्ठ अधिकारी द्वारा अपनी पत्नी-बच्चों को बंद कर प्रताडि़त करने की घटनाएं दिखाती हैं कि सभ्यता के भीतर से ही असभ्यता सिर उठा रही है।
घरेलू हिंसा, छेड़छाड़, ऑनलाइन उत्पीडऩ
महिलाओं के लिए अब कोई स्थान पूरी तरह सुरक्षित नहीं है। प्लान इंटरनेशनल की एक वैश्विक रिपोर्ट बताती है कि 58 प्रतिशत लड़कियां सोशल मीडिया पर अपमानजनक शब्दों और उत्पीडऩ का सामना करती हैं, जबकि लगभग आधी लड़कियों को शारीरिक या यौन हिंसा का भय बना रहता है। यह स्थिति बताती है कि तकनीकी युग में हमारी संवेदना सिकुड़ गई है। कानून और शिक्षा के बावजूद हम दूसरों की पीड़ा को महसूस करने की क्षमता खोते जा रहे हैं।
स्त्री जनधारा का मंतव्य
महिलाओं को लेकर बदलती सोच तभी सार्थक होगी जब उसमें संवेदना, सम्मान और सुरक्षा की संस्कृति गहराई से जुड़ी होगी। वरना सशक्तिकरण केवल एक शब्द बनकर रह जाएगा और समाज अपनी ही निर्ममता में, मनुष्यता खो देगा। स्त्री जनधारा केवल एक पेज नहीं, एक विचार है उन तमाम आवाज़ों, संघर्षों और संवेदनाओं का मंच, जहां महिला सिर्फ ‘समाचार नहीं, बल्कि समाज की दिशा बदलने वाली शक्ति के रूप में देखी जाएगी। यह पेज हर शनिवार, उन कहानियों, विमर्शों और दृष्टिकोणों को जगह देगा, जो स्त्री की दुनिया से, उसकी धरती से, उसके जीवन से जुड़ी हैं। यह पेज स्त्रियों को समर्पित है उस धरती को, जहां से जीवन फूटता है और जहां संवेदना का बीज बोया जाता है।

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