Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से -छत्तीसगढ़ महतारी सबकी है – अस्मिता को नफरत का औज़ार न बनाएं

-सुभाष मिश्र

छत्तीसगढ़ इन दिनों अस्मिता की एक नई बहस में उलझा हुआ है। छत्तीसगढ़ महतारी की मूर्ति को क्षतिग्रस्त किए जाने और उसके बाद दिए गए विवादित बयानों ने पूरे प्रदेश में आक्रोश और बंद जैसी स्थिति पैदा कर दी है। यह केवल एक घटना नहीं, बल्कि उस गहराई का संकेत है जहां स्थानीय अस्मिता और राजनीतिक स्वार्थ एक-दूसरे में उलझते जा रहे हैं। भावनाएं उफान पर हैं और संवेदनशीलता लगातार घट रही है। यह वही धरती है जिसने सैकड़ों वर्षों तक सहअस्तित्व और भाईचारे का संदेश दिया, लेकिन आज वही धरती अस्मिता के नाम पर बंटती दिखाई दे रही है।
विवाद की शुरुआत तब हुई जब स्थानीय नेता अमित बघेल ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अग्रसेन महाराज जैसे व्यक्तित्वों के प्रति आपत्तिजनक टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि कौन है अग्रसेन महाराज? चोर है या झूठा? पाकिस्तानी सिंधी क्या जानते हैं मछली वाले भगवान के बारे में।
यह बयान न केवल असंवेदनशील था, बल्कि समाज की उस साझा विरासत को ठेस पहुंचाने वाला था जिसने हमेशा एकता और परस्पर सम्मान का रास्ता दिखाया है।
अग्रवाल समाज की प्रीति अग्रवाल ने इसे समाज में विभाजन पैदा करने की कोशिश बताया, जबकि सिंधी समाज के सलाहकार अमित चिमनानी ने कहा कि सिंधी समाज ने हर संकट में छत्तीसगढ़ के साथ खड़े होकर अपनी निष्ठा साबित की है, चाहे कोरोना महामारी हो या हाल का रेल हादसा। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ महतारी हमारी भी मां है। यह बयान अपने आप में बहुत कुछ कहता है कि अस्मिता किसी एक की बपौती नहीं, सबकी साझी धरोहर है।
स्थानीय अस्मिता का प्रश्न केवल छत्तीसगढ़ तक सीमित नहीं है। भारत के कई राज्यों में समय-समय पर यह स्वरूप अलग-अलग रूपों में सामने आता रहा है। कभी भाषा के नाम पर, कभी जातीय गौरव के नाम पर और कभी बाहरी-स्थानीय के टकराव के रूप में।
लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हम अपनी पहचान को दूसरे के अस्वीकार में बदल रहे हैं? स्थानीयता, जो कभी गौरव और संस्कृति की पहचान थी, अब राजनीति का औजार बनती जा रही है। जब अस्मिता सम्मान से हटकर प्रतिस्पर्धा में बदल जाती है, तब वह सामाजिक सौहार्द को खा जाती है।
छत्तीसगढ़ जैसे युवा राज्य को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि यहां हर समाज, हर समुदाय ने विकास और समरसता में अपनी भूमिका निभाई है।
यह प्रदेश जल-जंगल-जमीन की तरह ही ‘जन की धरती है, यहां की आत्मा समावेश में बसती है, न कि बहिष्कार में। महतारी इस भूमि की मां है, और मां की परिकल्पना में कोई भेदभाव नहीं होता। जब किसी समाज की आस्था या किसी समुदाय के योगदान पर अंगुली उठाई जाती है, तो वह अस्मिता नहीं, राजनीति कहलाती है। समय की मांग है कि हम क्षेत्रीय पहचान को राष्ट्रीय एकता से जोड़ें। अस्मिता का सम्मान तभी सार्थक होगा जब उसमें सबके लिए जगह होगी। स्थानीयता की शक्ति तब तक उपयोगी है जब तक वह दूसरों के प्रति नफरत या अस्वीकार का रूप न ले ले।
छत्तीसगढ़ महतारी का सम्मान करते हुए यह याद रखना होगा कि वह सबकी मां है। हर उस व्यक्ति की जो इस मिट्टी से प्रेम करता है, चाहे उसकी भाषा, जाति या धर्म कोई भी क्यों न हो। अस्मिता तब तक पवित्र है जब तक वह दूसरों के सम्मान को ठेस न पहुंचाए। आज छत्तीसगढ़ को जरूरत अस्मिता की राजनीति की नहीं, अस्मिता के सम्मान की है, ताकि यह मिट्टी अपनी वही पहचान बनाए रख सके जो उसकी असली ताकत है, विविधता में एकता और मन में समरसता।

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