Emergency- कविता के माध्यम से आपातकाल का विरोध

-सुभाष मिश्र

भारत के स्वर्णिम इतिहास काल में आपातकाल वो धब्बा है जिसके दाग चाहकर भी नही धुलेंगे। आपातकाल के इस दौर में राजनेता कलाकार, मीडिया तो प्रभावित हुए ही थे। साथ ही रचनाकारों कवियों को भी इस आपातकाल की आग में सुलगना पड़ा था। बहुत सारे लोगों ने आपातकाल के दौरान अलग-अलग तरीके से मशाल जलाई थी और इन्ही मशालों की आग से 19 महीने बाद आपातकाल हटा। इसमें रचनाकारों-कवियों की भूमिका अति महत्वपूर्ण थी। कबीर, सुकरात गालिब की परंपरा से आने वाले कवियों ने बता दिया कि अगर सत्ता कोई गलत कदम उठाएगी तो हम कहीं न कहीं अपनी कलम से अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर उसका मुखर विरोध करेंगे।
जनवादी कवि यानि बाबा नागार्जुन ने बहुत ही मुखर तरीके से आपातकाल और इंदिरा गांधी की प्रवृत्तियों का विरोध किया था। उनकी सुप्रसिद्ध कविता इसका उदाहरण है-
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की
रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की
यही हुई है राय जवाहरलाल की

भूखी भारत-माता के सूखे हाथों को चूम लो
प्रेसिडेंट के लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो
पद्म-भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उद्गार लो
पार्लमेंट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो
मिनिस्टरों से शेकहैंड लो, जनता से जयकार लो
दाएं-बाएं खड़े हज़ारी ऑफि़सरों से प्यार लो
धनकुबेर उत्सुक दिखेंगे, उनके जऱा दुलार लो

होंठों को कंपित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो
बिजली की यह दीपमालिका फिर-फिर इसे निहार लो
यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूं मलका, थोड़ी-सी लाज उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी।

2. इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में भूल गईं बाप को
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको?
रानी महारानी आप
नवाबों की नानी आप
नफाखोर सेठों की अपनी सगी माई आप

काले बाज़ार की कीचड़ आप, काई आप
सुन रही सुन रही, गिन रही गिन रही
हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप को
छात्रों के खून का नशा चढ़ा आपको
इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको

भवानीप्रसाद मिश्र हिंदी कविता के मूर्धन्य हस्ताक्षर हैं, जब भारत में तत्कालीन सरकार ने आपातकाल लगाया तो उन्होंने तय किया था कि वह हर रोज़ सुबह-दोपहर-शाम को आपातकाल के विरुद्ध के कविता लिखेंगे। ऐसा उन्होंने किया भी, जो बाद में त्रिकाल संध्या का हिस्सा बनीं। उन्हीं में से एक कविता है –
बहुत नहीं सिफऱ् चार कौए थे काले,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उडऩे वाले
उनके ढंग से उड़े,, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं

कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये.

हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में
हाथ बांध कर खड़े हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़े कौए-कौए गायें

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुट्भैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आए उनके जी में

उडऩे तक तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उडऩे वाले सिफऱ् रह गए बैठे ठाले
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं, चार कौओं का दिन है

उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना?

दुष्यंत कुमार ने सरकारी नौकरी मे रहते हुए बहुत ही प्रतीकात्मक तरीके से आपातकाल का विरोध किया। उनके शेर आज भी आम लोगों की जुबान पर हैं। आपातकाल की स्थितियों को उन्होंने कुछ इस तरह से व्यक्त किया-
इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ।

एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों,
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारों।

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिफऱ् हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

2.बहुत संभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई,
सड़क पे फेंक दी तो जि़ंदगी निहाल हुई।
बड़ा लगाव है इस मोड़ को निगाहों से,
कि सबसे पहले यहीं रौशनी हलाल हुई।