श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष का धार्मिक या सांस्कृतिक कारण और तर्क जो भी हैं, वे अपनी जगह हैं लेकिन एक कारण यह भी है कि हमारे पूर्वज विज्ञान और मनोविज्ञान के गहरे जानकार थे। यदि कोई दिन विशेष तय न किया गया होता तो लोग अपने पूर्वजों को याद नहीं करते। हमारे पुरखे मनोविज्ञान को जानते थे। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि आने वाली अनेक पीढिय़ां निरंतर अपने पूर्वजों की स्मृतियों को सुरक्षित रखे। उस समय स्मृतियों की लंबी सुरक्षा के लिए चित्र नहीं होते थे इसलिए अमरता की इच्छा यही रही कि वे किसी अनुष्ठान के सहारे उनके नाम का स्मरण होता रहे और वे स्मृतियों में जीवित रहें। मनोविज्ञान कहता है कि इसके लिए जरूरी है कि इसका निरंतर दोहराव होता रहे। लोग माता-पिता या अधिक-से-अधिक दादा-दादी या नाना-नानी तक के नाम याद रखते हैं। इसके बाद श्रद्धा और आदर सम्मान के लिए स्मृतियों में जगह तंग हो जाती है। जीवन की व्यस्तताओं के बीच इन नामों को याद रखना भी व्यक्ति लिए कठिन होता है। पूर्वजों ने इस मनोविज्ञान को समझते हुए वर्ष में कुछ दिन तय कर दिए कि लोग तर्पण के बहाने अपने माता-पिता और पूर्वजों के नाम का तर्पण करें, उन्हें श्रद्धा और आदर से याद करें। इतना कुछ तो पूर्वजों ने अनुष्ठान में जोड़ा। इसके बाद पंडितों ने दान को पुण्य से जोड़ा। भोजन को पूर्वजों को मिलने वाले भोजन की तृप्ति से जोड़ा। अनुष्ठान का रूप कितना भी बदल गया हो या बिगड़ गया हो लेकिन इसकी मूल मंशा बहुत पवित्र और भले उद्देश्य के साथ जुड़ी है। दान-पुण्य और भूखे को भोजन कराना भी अंतत: एक पवित्र उद्देश्य की पूर्ति है।
हमारे माता-पिता, पुरखे अपनी स्मृतियों, संस्कारों, परंपराओं और डीएनए के ज़रिए हमारे भीतर गहरे तक समाहित हैं। वैसे तो हम हमेशा माता-पिता की याद करते हैं किन्तु पितृ पक्ष में अपने सारे पुरखों को तर्पण करके अपने धार्मिक विधि-विधान के ज़रिए भी याद करते हैं। हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद माह की पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह की अमावस्या तक 15 दिनों का समय होता है , जब इस परिवार के सदस्य अपने पूर्वजों के लिए तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध कर्म करते हैं, ताकि पूर्वजों की आत्मा को शांति मिले और वे मोक्ष की प्राप्ति कर सकें। यह समय पितृ ऋण की पूर्ति का माध्यम माना जाता है, जिससे परिवार में सुख-समृद्धि और शांति बनी रहती है।
बहुत से लोग कर्मकांड में विश्वास नहीं करते हैं। यह उनका विश्वास है । कुछ लोग कर्मकांड को बहुत श्रद्धा से करते हैं यह उनकी आस्था का पक्ष है । हिंदू धर्म में धार्मिक पूजा-पाठ या अन्य कर्मकांड में बहुत से विज्ञान के अर्थ जुड़े हैं और जो आगे बड़े मनोवैज्ञानिक अर्थों तक जाते हैं। बहुत से पढ़े-लिखे लोग अपनी नास्तिकता के अभिमान में इसको नकारते हैं लेकिन यदि इन कर्मकांडों से अंधविश्वास, रूढिय़ाँ और आर्थिक लोभ को पृथक कर दिया जाए तो इनके बड़े सामाजिक, सांस्कृतिक और धर्म के गहरे , सच्चे और मूल अर्थ हैं।
मेरे पिता स्वर्गीय राधाकिसन मिश्रा जो ख्यातिनाम पत्रकार स्वर्गीय बबन प्रसाद मिश्र के भी पिता थे, वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, एक उदार सोच वाले राजनीतिक व्यक्ति थे। बालाघाट के डोंगरमाली पंचायत के सरपंच, जनपद के पदाधिकारी थे। वहाँ उनकी प्रतिमा लगी है। वारासिवनी में घर वाली सड़क उनके नाम पर है। घर को हमने पिता के नाम पर ग्रंथालय और सार्वजनिक भवन में तब्दील किया है। दोनों जगहों पर मँझले भैया गणेश मिश्र के साथ जाकर उन्हें और उनकी विरासत को याद किया। बहुत बार सोचता हूँ कि ऐसा क्या किया जाये की कबीर की तरह कह सकूँ कबीरा जब हम पैदा हुए जग हँसे हम रोए
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोए
दरअसल, अब वह समय आ गया है जब बहुत से अनावश्यक कर्मकांड से परे हटकर पूरी आस्था के साथ हमें पितृ ऋण से ऋण होने और पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए अपनी परंपराओं और संस्कारों को समझते और आदर देते हुए उन्हें आधुनिक संदर्भ में लागू करने की आवश्यकता है। श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों के नाम इसलिए दोहराए जाते थे कि अच्छी तरह से याद हो जाए लेकिन बाद में कागज और कलम आ गए। अब लैपटॉप और मोबाइल हैं, जहां आप उन्हें लिखकर स्थाई कर सकते हैं। फोटो खींचकर हम उनकी तस्वीर रख देते हैं। पूर्वजों की स्मृतियों को स्थायी करने के लिए जरूरी है कि लोकमंगल के कार्यों में नवाचार लाकर समाज की भलाई में योगदान दिया जाए। कुछ विचार हैं जिन पर अमल किया जा सकता है। हमारे पूर्वजों ने हमें जो संस्कार और शिक्षा दी है, उन्हें नई पीढ़ी तक पहुँचाना आवश्यक है। इसके लिए विद्यालयों और सामाजिक मंचों पर पिता या पूर्वजों की स्मृति में कार्यशालाएँ आयोजित की जा सकती हैं, जहाँ पितृ परंपराओं और उनके महत्व पर चर्चा की जाए। पूर्वजों की तरह समाज की सेवा करना पितृ ऋण से उऋण होने का एक प्रभावी तरीका है। पूर्वजों की स्मृति में उनके जन्मदिवस या पुण्यतिथि पर वृद्धाश्रमों, अनाथालयों, और अन्य सामाजिक संस्थाओं में स्वयंसेवक के रूप में कार्य करना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। हमारी सांस्कृतिक धरोहरों, जैसे लोकगीत, नृत्य, और कला रूपों का संरक्षण और प्रचार करना पितृ ऋण से उऋण होने का एक माध्यम है। इसके लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों और उत्सवों का आयोजन किया जा सकता है।
लोकमंगल के कार्यों में नवाचार-
उच्च उद्देश्य वाले साहित्य का सृजन और उसका प्रचार लोकमंगल की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। इसके लिए पुस्तकालयों में अच्छे साहित्य की उपलब्धता बढ़ाना और लोगों में पढऩे की रुचि जागृत करना आवश्यक है। आधुनिक समय में सोशल मीडिया एक प्रभावी माध्यम बन चुका है। इसका उपयोग सामाजिक जागरूकता फैलाने, सकारात्मक संदेश देने और लोकमंगल के कार्यों को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है। पूर्वजों की स्मृति मेंऑनलाइन कोई कार्यक्रम किया जा सकता है। समाज के विभिन्न वर्गों को एकत्रित करके सामूहिक प्रयासों, जैसे स्वच्छता अभियान, वृक्षारोपण, और रक्तदान शिविरों का आयोजन करना लोकमंगल की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।
शायद एकाकी होते समय में हम इन उपायों को अपनाकर अपने पितृ ऋण से उऋण होकर समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं।
पितृपक्ष : पूर्वजों की स्मृतियों की अमरता के प्रयास

09
Sep