Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से वंदे मातरम के जरिए राष्ट्रीय एकता और अखंडता की कोशिश

-सुभाष मिश्र

देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में जब संघर्ष चरम पर था, तब जो स्वर सबसे बुलंद होकर उभरा था, वह था वंदे मातरम। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा का उद्घोष था। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में जब यह गीत रचा, तब उन्होंने केवल मातृभूमि की आराधना नहीं की, बल्कि एक सोई हुई जनता में राष्ट्रीय चेतना की चिंगारी भड़काई। 1882 में ‘आनंदमठÓ उपन्यास के साथ प्रकाशित यह गीत अंग्रेजी शासन के खिलाफ एक सांस्कृतिक शस्त्र बन गया। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में जब आंदोलन हुए तो वंदे मातरम नारे के साथ हजारों लोग सड़कों पर उतरे। ब्रिटिश सरकार ने इसके गायन पर रोक लगाई, क्योंकि उसे पता था कि यह शब्द जनता को विद्रोह के लिए प्रेरित करते हैं।
अब 150 वर्ष पूरे होने पर केंद्र सरकार ने इस गीत को फिर से राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ला दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 नवंबर 2025 को वंदे मातरम के 150 वर्ष के वर्षभर चलने वाले कार्यक्रम का शुभारंभ किया। दिल्ली में आयोजित उद्घाटन समारोह में स्मारक सिक्का और डाक टिकट जारी किए गए। साथ ही एक डिजिटल पोर्टल शुरू किया गया, जिस पर गीत का इतिहास, अर्थ, अनुवाद, और इससे जुड़ी रचनात्मक गतिविधियां उपलब्ध कराई जा रही हैं। केंद्र ने राज्यों को निर्देश दिए हंै कि इस आयोजन को चार चरणों में विभाजित कर विद्यालयों, कॉलेजों, सांस्कृतिक संस्थानों और सार्वजनिक स्थलों पर कार्यक्रम आयोजित किए जाएं।
दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, असम और ओडिशा जैसे भाजपा-शासित राज्यों में इसके लिए विशेष बजट आवंटित किया गया है। बड़े पैमाने पर सामूहिक गायन, प्रदर्शनी, सांस्कृतिक शो और छात्र प्रतियोगिताएं प्रस्तावित हैं। उत्तर प्रदेश में 75 जिलों में एक साथ वंदे मातरम का सामूहिक गायन होगा, तो मध्य प्रदेश में ‘वंदे मातरम यात्राÓ निकाली जाएगी। गुजरात में 150 स्थानों पर यह कार्यक्रम आयोजित होने वाला है, जबकि महाराष्ट्र में स्वतंत्रता संग्राम के स्थलों पर विशेष आयोजन किए जाएंगे। वहीं पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में राजनीतिक प्रतिक्रिया कुछ भिन्न रही है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि इस कार्यक्रम को लेकर केंद्र को संवेदनशील होना चाहिए, क्योंकि वंदे मातरम को राजनीतिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए।
वंदे मातरम को लेकर यह विरोधाभास नया नहीं है। 1937 में भी मुस्लिम लीग ने इस गीत के कुछ अंशों पर आपत्ति जताई थी, हालांकि संविधान सभा ने 1950 में इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया। आज भी कभी-कभी यह आवाज उठती है कि अगर हिंदुस्तान में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा। ऐसे स्वर राष्ट्रीय एकता के बजाय विभाजन का भाव पैदा करते हैं। गीत का अर्थ किसी पर थोपा नहीं जा सकता, क्योंकि वंदे मातरम का सार ही यह है कि वह देश को एक सूत्र में बाँधे, न कि किसी को अलग करे।
दिलचस्प यह भी है कि आज़ादी के दौर के कई अन्य गीत — सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा, कदम कदम बढ़ाए जा, मेरा रंग दे बसंती चोला, ऐ मेरे वतन के लोगों राष्ट्र की भावना से उतने ही जुड़े हैं, परंतु उन पर इस तरह की सरकारी पहल नहीं दिखाई देती। अल्लामा इक़बाल का सारे जहां से अच्छा उस भारत की बात करता है जहाँ सब मज़हब और समुदाय एकसाथ रहते हैं। सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज के गीत कदम कदम बढ़ाए जा या भगत सिंह के प्रिय मेरा रंग दे बसंती चोला ने भी देशभक्ति की वही लौ जगाई थी जो वंदे मातरम से उठी थी।
सवाल यह उठता है कि क्या भविष्य में इन गीतों को भी उसी तरह सम्मान और प्रचार मिलेगा या राष्ट्रभक्ति का विमर्श केवल एक ही प्रतीक तक सीमित रहेगा?
सरकार की मंशा को अगर सकारात्मक दृष्टि से देखा जाए तो यह सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रयास है। युवाओं को अपने इतिहास और स्वतंत्रता के गीतों से जोडऩा, डिजिटल माध्यमों से उन्हें प्रचारित करना और देश की साझा विरासत को फिर से जीवंत करना — ये सभी कदम स्वागतयोग्य है। लेकिन जब यह प्रयास किसी चुनावी मौसम या राजनीतिक विमर्श के बीच तेज़ होते दिखते हैं, तब यह संदेह स्वाभाविक है कि क्या राष्ट्रवाद का यह स्वर राजनीतिक लाभ से मुक्त रह पाएगा।
वंदे मातरम का अर्थ केवल शब्दों में नहीं, भावना में है यह मातृभूमि की निष्ठा और उस साझा चेतना का प्रतीक है जिसने भारत को गुलामी की बेडिय़ों से मुक्त कराया। अगर यह आयोजन उसी भावना के साथ देश में एकता और सद्भावना को मजबूत करता है, तो यह निश्चित रूप से राष्ट्रीय जीवन के लिए शुभ संकेत होगा। लेकिन अगर यह केवल किसी राजनीतिक दल के झंडे तले राष्ट्रवाद का एक इवेंट बन जाए तो यह उस गीत की आत्मा के साथ अन्याय होगा जिसने कभी लाखों लोगों को एकजुट किया था।
वंदे मातरम की 150वीं वर्षगांठ हमें याद दिलाती है कि राष्ट्र की असली शक्ति किसी एक नारे या पार्टी में नहीं, बल्कि उस विचार में है जो सबको जोड़ता है-चाहे वह इक़बाल का सारे जहां से अच्छा हो, सुभाष का जय हिंद हो, या गांधी का रघुपति राघव राजा राम। अगर इन सब स्वरों में फिर से एक सुर मिल जाए, तभी वंदे मातरम सचमुच राष्ट्रीय एकता का गीत बनेगा-शब्दों में नहीं, आत्मा में।

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