Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – सोशल मीडिया :अभिव्यक्ति या अफवाहों की आज़ादी?

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

30 जून को ‘सोशल मीडिया डे मनाया गया। एक ऐसा दिन जो डिजिटल युग में संवाद और अभिव्यक्ति की ताकत का प्रतीक है। लेकिन 2025 में खड़े होकर जब हम इसकी भूमिका का मूल्यांकन करते हैं, तो यह सवाल उभरकर सामने आता है—क्या सोशल मीडिया सचमुच आज़ादी का मंच है, या यह झूठी खबरों, ट्रोलिंग और नफरत फैलाने का माध्यम बनता जा रहा है? झूठी खबरें (फेक न्यूज़), भ्रामक वीडियो, चरित्र हनन और सांप्रदायिक उकसावे अब सामान्य होते जा रहे हैं। विडंबना यह है कि राजनीतिक दलों के डिजिटल वार रूम इन माध्यमों का उपयोग अपनी-अपनी विचारधाराओं के पक्ष में नैरेटिव बनाने के लिए करते हैं, विशेषकर चुनावों के दौरान।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) के अनुसार यह आज़ादी राष्ट्र की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, और नैतिकता जैसे मुद्दों पर सीमित भी की जा सकती है। पर सवाल यह है कि इस सीमांकन की आड़ में क्या कहीं स्वतंत्र सोच और असहमति की आवाज़ें दबाई जा रही हैं? आज पत्रकार, स्वयंसेवी संस्थाएँ और कई बुद्धिजीवी यह आरोप लगा रहे हैं कि सरकारें सोशल मीडिया पर ‘सेंसरशिप के नाम पर नियंत्रण स्थापित कर रही हैं और यह स्थिति एक ‘अघोषित आपातकाल जैसी बनती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने फेक न्यूज़, डीपफेक और आतंकी प्रचार जैसी समस्याओं के समाधान के लिए सोशल मीडिया पर निगरानी बढ़ाई है। इसके तहत आईटी नियम 2021 में संशोधन किया गया, फैक्ट चेक यूनिट की स्थापना की गई, प्लेटफॉर्म्स को कंटेंट हटाने और रिपोर्टिंग की प्रक्रिया में जवाबदेह बनाया गया।
सरकार का दावा है कि यह कदम अराजकता रोकने और नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जरूरी हैं। लेकिन आलोचकों का कहना है कि यदि सरकार ही यह तय करने लगे कि क्या ‘सच है और क्या ‘गलत, तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हत्या बन सकती है। 2024 में ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग 161वें स्थान पर रही। यह संकेत है कि केवल कानूनों से नहीं, बल्कि संस्थाओं की स्वतंत्रता और सरकार की मानसिकता से अभिव्यक्ति सुरक्षित रहती है। आज पत्रकारों को निशाना बनाया जाना, स्वतंत्र मीडिया संस्थानों पर दबाव डालना और असहमति की आवाज़ों को ट्रोल करना, ‘नया सामान्य बनता जा रहा है। सोशल मीडिया कंपनियों को चाहिए कि वे अपनी जिम्मेदारी समझें। केवल ‘यूजऱ कंटेंट के नाम पर सब कुछ पोस्ट करने देना सामाजिक नुकसान को न्योता देना है। उन्हें चाहिए कि पारदर्शी फैक्ट-चेकिंग नीति अपनाएँ, एआई और डीपफेक तकनीकों के खिलाफ प्रभावी समाधान लागू करें, नफरत फैलाने वाले अकाउंट्स को पहचानें और ब्लॉक करें।
वहीं सरकार को भी ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए, जो आलोचना को दबाने का जरिया बन जाए। सोशल मीडिया एक ताक़तवर औज़ार है। यह विचारों का पुल भी है और अफवाहों की आग भी। सरकार का काम है सुरक्षा सुनिश्चित करना, न कि आलोचना से डरकर जुबान बंद करना। मौन किसी भी लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार है, और अभिव्यक्ति उसकी सबसे बड़ी ताकत। इसलिए आज सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि नियंत्रण और स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित हो। तभी सोशल मीडिया अपने मूल उद्देश्य — जोडऩे, सिखाने और सशक्त करने में सफल हो पाएगा।