Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – बदलता राजनीतिक ध्रुवीकरण

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से - बदलता राजनीतिक ध्रुवीकरण

-सुभाष मिश्र

अगला लोकसभा चुनाव 2029 में होने वाला है, लेकिन उससे पहले बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल जैसे प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन चुनावों का असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ऩा तय है। 2024 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का 100 से अधिक सीटों का लक्ष्य पूरा नहीं हो सका और स्पष्ट बहुमत से कम सांसद जीतने के कारण उसे नीतीश कुमार (जनता दल यूनाइटेड) और चंद्रबाबू नायडू (तेलुगु देशम पार्टी) जैसे सहयोगियों के साथ सरकार चलानी पड़ रही है। बिहार विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार कौन सी रणनीति अपनाएंगे, यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न बना हुआ है। हाल ही में नीतीश कुमार ने युवाओं के लिए एक करोड़ रोजगार के अवसर सृजित करने और महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है, जो चुनावी रणनीति का हिस्सा लगती है। वहीं, विपक्षी इंडिया गठबंधन में तेजस्वी यादव के आवास पर सीट बंटवारे पर चर्चा हो रही है, जहां तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा माना जा रहा है।
लोकसभा चुनाव 2024 ने भारतीय लोकतंत्र में एक नए राजनीतिक अध्याय की शुरुआत की है। एक ओर भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में वापसी की, वहीं दूसरी ओर विपक्षी इंडिया गठबंधन ने उम्मीद से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। भाजपा को 240 सीटें मिलीं जो पूर्ण बहुमत से कम हैं, जबकि एनडीए ने कुल बहुमत हासिल किया। इस परिणाम ने ‘अजेय बहुमत की धारणा को तोड़ा है और राजनीतिक संतुलन, साझेदारी तथा क्षेत्रीय दलों की शक्ति को फिर से केंद्र में लाकर खड़ा किया है। चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि देश की राजनीति अब एकतरफा नहीं रही, बल्कि ध्रुवीकरण का एक नया दौर शुरू हो गया है, जहां गठबंधनों की भूमिका निर्णायक हो गई है।
2014 और 2019 के चुनावों में भाजपा ने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था, जिससे नरेंद्र मोदी का नेतृत्व निर्विवाद और निर्विरोध की स्थिति तक पहुंच गया था। लेकिन 2024 में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और सरकार गठन के लिए चंद्रबाबू नायडू तथा नीतीश कुमार जैसे सहयोगियों की मदद लेनी पड़ी। यह भारतीय राजनीति के संघीय चरित्र और साझेदार लोकतंत्र की वापसी को दर्शाता है। अब सत्ता केवल केंद्रित नहीं रह सकती। सहयोगी दलों की मांगें जैसे आंध्र प्रदेश और बिहार के लिए विशेष पैकेज या नीतिगत बदलाव, सरकार की दिशा तय करेंगी। सहयोगी दलों की यह मजबूती केवल सरकार चलाने तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि नीति निर्धारण, बजट आबंटन, केंद्रीय नियुक्तियों और संसद में विधायी प्रक्रिया पर भी गहरा असर डालेगी। यह ‘साझेदारों की मजबूरी नहीं, जरूरतÓ बन चुकी है, क्योंकि बिना उनके समर्थन के सुधारों को लागू करना मुश्किल होगा।
इंडिया गठबंधन भले ही बहुमत से दूर रहा हो, लेकिन इसने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को घेरने की रणनीति अपनाई जो काफी हद तक कारगर रही। कांग्रेस ने दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में मजबूत वापसी की, जबकि समाजवादी पार्टी, डीएमके, टीएमसी तथा आम आदमी पार्टी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने-अपने क्षेत्रों में भाजपा को कड़ी चुनौती दी। हालांकि, विधानसभा चुनावों के दौरान गठबंधन में कुछ बिखराव दिखा, जैसे बिहार में आम आदमी पार्टी ने अकेले चुनाव लडऩे की घोषणा की, जिससे एकता पर सवाल उठे। फिर भी लोकसभा चुनाव ने विपक्षी एकता की धारणा को मजबूती दी है और संकेत दिया है कि देश में दो-ध्रुवीय राजनीति का पुनरुत्थान हो रहा है-एनडीए एक ओर और इंडिया गठबंधन दूसरी ओर। अब सवाल यह है कि क्या यह गठबंधन दीर्घकालिक और नीति-आधारित बनेगा या केवल चुनावों तक सीमित रहेगा? विपक्ष की मजबूती तभी टिकेगी जब वह वैकल्पिक नीतिगत एजेंडा और समन्वयात्मक नेतृत्व प्रस्तुत कर सके।
राजनीति अब केवल राष्ट्रवाद बनाम पंथनिरपेक्षता तक सीमित नहीं रही। 2024 का चुनाव सामाजिक न्याय, जातीय भागीदारी, युवा बेरोजगारी, महंगाई और ग्रामीण असंतोष जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमा। एक ओर भाजपा का ‘लाभार्थी वर्ग और ‘डबल इंजन सरकारÓ का मॉडल था तो दूसरी ओर विपक्ष ने मंडल राजनीति, महिला भागीदारी, संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता तथा लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा को अपना एजेंडा बनाया। इससे स्पष्ट है कि भारतीय राजनीति में विचारधारा और सामाजिक समीकरणों के बीच एक नया ध्रुवीकरण उभर रहा है, जहां आर्थिक मुद्दे और सामाजिक न्याय की मांगें केंद्र में हैं। बिहार जैसे राज्यों में यह ध्रुवीकरण और तेज हो रहा है, जहां विपक्ष सामाजिक-आर्थिक न्याय की थीम पर चुनावी रणनीति तैयार कर रहा है।
चुनाव के बाद संवैधानिक संस्थाओं जैसे चुनाव आयोग, सीबीआई, ईडी और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठे हैं। विपक्ष ने लगातार आरोप लगाए कि इन संस्थाओं का राजनीतिक दुरुपयोग हो रहा है। अब जब सत्ता सहयोगियों पर निर्भर है तो क्या इन संस्थाओं की भूमिका और कार्यशैली में बदलाव आएगा? समूचा विपक्ष चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को लेकर लामबंद है। विशेष रूप से चुनाव में मतदाता सूची के गलत पुनरीक्षण को लेकर राजनीतिक दल और स्वयंसेवी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है। पहली सुनवाई 10 जुलाई 2025 को पूरी हो गई है, जिसमें कोर्ट ने चुनाव आयोग से कई सवाल पूछे हैं, जैसे आधार कार्ड और राशन कार्ड को आईडी प्रूफ के रूप में क्यों नहीं स्वीकार किया जा रहा। अगली सुनवाई 28 जुलाई 2025 को निर्धारित है। साथ ही क्षेत्रीय दलों के मजबूत होने से केंद्र-राज्य संबंधों की दिशा भी बहस का विषय बन गई है, जहां संघीय ढांचे को मजबूत करने की मांग बढ़ रही है।
यदि हम राजनीतिक ध्रुवीकरण के इस नए दौर में चुनौतियों की बात करें तो सबसे बड़ी चुनौती सहयोगियों की वैचारिक भिन्नता है जो निर्णयों को धीमा कर सकती है। विकास बनाम क्षेत्रीय प्राथमिकता के मसलों पर राष्ट्रीय योजनाओं को क्षेत्रीय स्वीकृति मिलनी जरूरी होगी। सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों को जनादेश की भावना का सम्मान करते हुए लोकतांत्रिक संवाद बनाए रखना होगा। फिर भी यही वह समय है जब भारत एक ‘साझेदार लोकतंत्र की ओर बढ़ सकता है। जहां मतभेदों में भी संवाद हो और प्रतिस्पर्धा में साझेदारी की गुंजाइश हो।
लोकसभा चुनाव 2024 ने भारतीय राजनीति में सत्ता के केंद्रीकरण की प्रक्रिया को विराम दिया है और लोकतंत्र में सामूहिक सहभागिता की भूमिका को दोबारा रेखांकित किया है। सत्ता पक्ष के लिए यह आत्मविश्लेषण का समय है कि अब ‘शासन करना केवल आदेश देने से नहीं, बल्कि संवाद और सहयोग से होगा। विपक्ष के लिए यह अवसर है कि वह केवल विरोध की राजनीति नहीं, बल्कि विकल्प की राजनीति प्रस्तुत करे। ध्रुवीकरण अब टकराव का नहीं, बल्कि संतुलन का आधार बन सकता है, यदि सभी पक्षों में इसके लिए इच्छाशक्ति हो।

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