शहरों के तेजी से फैलते विस्तार और अनियंत्रित शहरीकरण ने बच्चों के बचपन को सबसे अधिक प्रभावित किया है। वह बचपन, जो कभी गली-कूचों और मैदानों की खुली हवा में हंसी-खुशी और खेलकूद के बीच बीतता था, अब मोबाइल स्क्रीन की रोशनी में सिमटता जा रहा है। आज जब हम बच्चों को देखते हैं तो उनके हाथों में बल्ला, गेंद या पतंग कम और स्मार्टफोन, टैबलेट और वीडियो गेम ज्यादा नजर आते हैं। यह बदलाव केवल जीवनशैली का नहीं बल्कि आने वाले समय के समाज, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन पर गहरे असर डालने वाला है।
शहरों में खुले स्थान लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं जो थोड़े बहुत खेल मैदान मौजूद हैं, वे भी या तो अतिक्रमण की भेंट चढ़ जाते हैं, या फिर आयोजनों, मेलों, प्रदर्शनियों और राजनीतिक सभाओं के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। कई बार इन मैदानों पर अस्थायी दुकानों और गुमटियों का कब्जा हो जाता है। आवासीय कॉलोनियों में खेल के मैदानों और पार्कों का प्रावधान ज़रूरी होते हुए भी अक्सर बिल्डर्स इन्हें नजरअंदाज कर भवन और प्लॉट बढ़ाने में जुट जाते हैं। रेरा जैसे कानून भी इस समस्या का स्थायी हल नहीं दे पाए हैं। जो स्कूल और निजी संस्थान बड़े मैदानों के मालिक हैं वे भी बच्चों के लिए सुलभ बनाने के बजाय इसे किराए पर देकर राजस्व का साधन बना लेते हैं। नतीजा यह कि बच्चों के लिए सुरक्षित और सुलभ खेल स्थान तेजी से गायब हो रहे हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष डॉ. वर्णिका शर्मा ने हाल ही में इसी चिंता को उठाते हुए कलेक्टरों और नगरीय निकायों को पत्र लिखा है। उन्होंने साफ कहा है कि बच्चों के लिए खुले मैदानों को सुरक्षित रखना और उनमें खेल सुविधाएं विकसित करना ज़रूरी है। उनके सुझाव में यह बात भी शामिल है कि नई कॉलोनियों की अनुमति तभी मिले जब उसमें बच्चों के खेल मैदान का प्रावधान हो और यह सुनिश्चित किया जाए कि प्रत्येक एक किलोमीटर की परिधि में बच्चों के लिए खेल का मैदान या इंडोर कॉम्प्लेक्स मौजूद रहे। यह भी अनुशंसा की गई है कि खेल के मैदानों का किसी भी प्रकार के व्यवसायिक उपयोग जैसे चैपाटी, मेला या निर्माण कार्यों के लिए इस्तेमाल न किया जाए और मौजूदा अतिक्रमणों को तुरंत हटाया जाए।
लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल पत्र लिख देने और कुछ प्रशासनिक आदेश जारी कर देने से बच्चों का बचपन मैदानों में लौट आएगा? जब तक शहरी नियोजन में खेल को बच्चों का अधिकार मानकर प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, तब तक यह समस्या जस की तस बनी रहेगी। सरकारें जब स्मार्ट सिटी और हाउसिंग प्रोजेक्ट की योजनाएं बनाती हैं, तब बच्चों के लिए खेल के मैदान को भी अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहिए। यह केवल एक मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि बच्चों के शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास की नींव है।
आज के बच्चे खेल मैदान से दूर होकर स्क्रीन की दुनिया में डूबते जा रहे हैं। अत्यधिक स्क्रीन टाइम से उनमें मोटापा, दृष्टि संबंधी समस्याएं, चिड़चिड़ापन और गुस्सा बढ़ रहा है। कई बच्चे हिंसक गेम्स खेलते-खेलते आक्रामक व्यवहार की ओर बढ़ रहे हैं। यह स्थिति चिंताजनक है क्योंकि खेलकूद केवल शारीरिक व्यायाम का साधन नहीं बल्कि टीमवर्क, अनुशासन, धैर्य और सामाजिक जुड़ाव का पाठ भी पढ़ाते हैं। जब बच्चे मैदान में खेलते हैं तो वे हार-जीत को स्वीकारना सीखते हैं, दोस्ती और सहयोग का अनुभव करते हैं और मानसिक रूप से अधिक संतुलित बनते हैं। इसके उलट वर्चुअल गेम्स अकेलेपन और मानसिक तनाव को बढ़ाते हैं।
माता-पिता भी इस समस्या की अनदेखी नहीं कर सकते। बच्चों को खेलों के लिए समय और प्रोत्साहन देने की जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं बल्कि परिवारों की भी है। अभिभावक यदि बच्चों को हर वक्त पढ़ाई और प्रतिस्पर्धा के दबाव में रखते हैं और उन्हें स्क्रीन के सहारे व्यस्त रखते हैं तो यह दीर्घकालिक नुकसान करेगा। शिक्षा व्यवस्था में भी खेल को परीक्षा और अंक आधारित सोच से अलग कर, एक आवश्यक जीवन कौशल के रूप में शामिल करना चाहिए।
इस परिप्रेक्ष्य में यह सोचना ज़रूरी है कि आज का बच्चा किस तरह का वयस्क बनेगा। यदि उसके पास बचपन में खेल के अनुभव नहीं होंगे तो क्या वह वयस्क होकर स्वस्थ, सहयोगी और सामंजस्यपूर्ण जीवन जी पाएगा? बच्चों के लिए खेल का मैदान केवल घास का टुकड़ा नहीं, बल्कि उनके सपनों, उत्साह और ऊर्जा का केन्द्र है। मैदान के सिकुडऩे का मतलब है बच्चों की कल्पना और स्वतंत्रता का सिकुडऩा।
इसलिए ज़रूरी है कि शहरी नियोजन में खेल को केंद्र में रखा जाए। आवासीय कॉलोनियों और नगर निगमों को यह सुनिश्चित करना होगा कि हर मोहल्लेे में बच्चों के खेलने का सुरक्षित मैदान हो। स्कूलों को अपने मैदान बच्चों के लिए न केवल अपने विद्यार्थियों बल्कि आसपास के बच्चों के लिए भी सुलभ बनाना चाहिए। समाज के हर वर्ग को यह समझना होगा कि बच्चों को मोबाइल की लत से बचाने का सबसे कारगर उपाय उन्हें खुले मैदान और खेल के अवसर उपलब्ध कराना है।
यदि आज हम बच्चों के खेल मैदानों को बचाने के लिए ठोस कदम नहीं उठाते तो कल हमें इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। मोटापा, मधुमेह, मानसिक रोग और सामाजिक अलगाव जैसी समस्याएं बच्चों की पीढ़ी को जकड़ लेंगी। इसके उलट यदि हम अभी से खेल मैदानों और खेलों को बचपन का अनिवार्य हिस्सा बना लें तो हम एक स्वस्थ, खुशहाल और ऊर्जावान समाज की नींव रख सकते हैं। सवाल यही है कि क्या हम स्क्रीन पर सिमटते बचपन को मैदान की हंसी-खुशी लौटा पाएंगे या फिर आने वाली पीढिय़ां इस कमी का खामियाजा हमेशा भुगतेंगी।
सिमटते खेल मैदान और स्क्रीन पर गेम खेलते बच्चे

16
Sep