-सुभाष मिश्र
भारतीय समाज की बुनियाद जिस बौद्धिक उदारता पर टिकी रही है, उसका सबसे जीवंत रूप शास्त्रार्थ की परंपरा में दिखाई देता है। यह वह परंपरा थी जिसमें मतभेद अपराध नहीं, बल्कि ज्ञान विस्तार का माध्यम माने जाते थे। वैदिक काल से लेकर मध्यकाल तक—मंडन मिश्र और शंकराचार्य के शास्त्रार्थ हों या बौद्ध, जैन और वैदिक दर्शनों के बीच संवाद—विचारों की टकराहट खुली थी, मंच सार्वजनिक था और निर्णायक तर्क हुआ करता था, सत्ता नहीं। इस परंपरा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी थी कि इसमें स्त्रियों की भागीदारी थी; शास्त्रार्थ केवल पुरुषों का क्षेत्र नहीं था।
इसी उदारता के कारण भारत में एक साथ सगुण, निर्गुण, निराकार, अनीश्वरवादी—सब धाराएं पनपीं। कबीर, रैदास, नानक, दादू, घासीदास जैसे संतों ने स्थापित धार्मिक संरचनाओं पर सवाल उठाए, पाखंड को चुनौती दी, लेकिन उनका प्रतिकार भी विचार से हुआ, हिंसा से नहीं। मत का सम्मान, असहमति की स्वीकृति और संवाद की संस्कृति—यही भारतीय समाज की आत्मा रही है।
लेकिन कालांतर में यह परंपरा कमजोर होती गई। शास्त्रार्थ की जगह प्रवचन ने ले ली। संवाद की जगह एकतरफा व्याख्या आने लगी। प्रश्न करने की जगह श्रद्धा के नाम पर मौन को महिमामंडित किया गया। रचनाकार चाहे वह तुलसी हों या किसी पुराण के मूल लेखक—से बड़ा उनका व्याख्याकार हो गया। आज स्थिति यह है कि ग्रंथ कम पढ़े जाते हैं, उनकी व्याख्याएं अधिक सुनी जाती हैं और उन व्याख्याओं पर सवाल करना ‘आस्था पर हमला मान लिया जाता है।
यहीं से समस्या शुरू होती है। जब ईश्वर, धर्म और परंपरा को सवालों से परे रख दिया जाता है, तब प्रवचनकर्ता को असीम सत्ता मिल जाती है। वह अपनी सुविधा, अपनी राजनीति और अपने बाजार के हिसाब से धर्म की व्याख्या करने लगता है। मीडिया, सोशल मीडिया और आक्रामक मार्केटिंग ने इस सत्ता को और मजबूत किया है। खबरों में बने रहने के लिए उत्तेजक बयान, दूसरे वर्गों को आहत करने वाली भाषा और ‘हम बनाम वे का नैरेटिव गढ़ा जाता है।
छत्तीसगढ़ में इन दिनों जो विवाद चल रहा है, वह इसी व्यापक संकट का ताजा उदाहरण है। बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर पं. धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री के प्रवचनों, उनके बयानों और उनके राजनीतिक संदर्भों ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि धर्म, प्रवचन और राजनीति की सीमाएं कहां हैं। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा कथावाचकों पर अंधविश्वास फैलाने और उन्हें ‘पाखंडी कहने के बाद शुरू हुई बयानबाजी अब व्यक्तिगत आरोपों, ‘देश छोडऩे जैसी टिप्पणियों और ‘बीजेपी एजेंट जैसे आरोपों तक पहुंच चुकी है। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय इसे संतों और सनातन परंपरा के अपमान के रूप में देख रहे हैं तो विपक्ष इसे सत्ता-समर्थित धार्मिक राजनीति का उदाहरण बता रहा है।
यह विवाद केवल दो नेताओं या एक कथावाचक तक सीमित नहीं है। यह उस बुनियादी प्रश्न से जुड़ा है कि क्या आज का धार्मिक मंच शास्त्रार्थ के लिए तैयार है? क्या कोई प्रवचनकर्ता अपने दावों, चमत्कारों और व्याख्याओं पर सार्वजनिक, तार्किक बहस के लिए तैयार है? भूपेश बघेल द्वारा शास्त्रार्थ की चुनौती देना चाहे उसके पीछे राजनीति हो। असल में उसी खोई हुई परंपरा की याद दिलाता है, जिसमें तर्क का सामना तर्क से होता था, न कि अपमान से।
छत्तीसगढ़ की मिट्टी कबीर, गुरु घासीदास और सतनाम की परंपरा से बनी है। यह वह भूमि है जहां शांति, समता और विवेक की वाणी गूंजी है। यहां धर्म कभी भी केवल कर्मकांड नहीं रहा, वह सामाजिक न्याय और मानवीय गरिमा से जुड़ा रहा है। ऐसे में यदि कोई भी प्रवचन या धार्मिक आयोजन लोगों को बांटने, डराने या सवाल पूछने वालों को देशद्रोही ठहराने लगे, तो उस पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
समस्या धर्म में नहीं, धर्म के राजनीतिक उपयोग में है। जब किसी कथावाचक को सरकारी संरक्षण, विशेष सुविधाएं और सत्ता के मंच मिलते हैं तो उसकी बात केवल आध्यात्मिक नहीं रह जाती वह राजनीतिक संदेश बन जाती है और जब राजनीति धर्म की आड़ लेकर आलोचना से बचने की कोशिश करती है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है।
आज जरूरत इस बात की है कि हम शास्त्र की परंपरा को केवल अतीत की गौरवगाथा न मानें, बल्कि उसे वर्तमान का औजार बनाएं। प्रवचन हों, कथाएं हों, लेकिन उनके साथ सवाल पूछने की आज़ादी भी हो। आस्था हो, लेकिन अंधविश्वास नहीं। संतों का सम्मान हो, लेकिन आलोचना को अपमान न माना जाए।
निर्णय जनता करेगी यह कहना आसान है। लेकिन जनता तभी सही निर्णय कर सकती है, जब उसके सामने संवाद, तर्क और सत्य के रास्ते खुले हों। शास्त्रार्थ की वापसी इसी लोकतांत्रिक चेतना की वापसी होगी। अन्यथा प्रवचन की ऊंची आवाज़ में विचार की धीमी आवाज़ दबती चली जाएगी और यही भारतीय समाज की सबसे बड़ी हार होगी।