-सुभाष मिश्र
कबीर ने चेताया था-
मैं कहता अखंड देखी, तू कहता कागज़़ की लेखी।
सच कहूँ तो मरन दावे, झूठे जग बौराना।
आज के पश्चिम बंगाल को अगर समझना है तो इसी चेतावनी को सामने रखना होगा। क्योंकि बंगाल में इस समय जो राजनीति दिखाई दे रही है, वह जितनी मुखर है, उतनी ही धुंधली भी। चुनाव की घोषणा अभी नहीं हुई है, लेकिन बयानबाज़ी उस मुकाम पर पहुँच चुकी है जहाँ हर शब्द किसी रणनीति का औज़ार बन चुका है। ‘बैटल ऑफ़ बंगालÓ अब सिफऱ् सत्ता संघर्ष नहीं, बल्कि पहचान, भय और स्मृति की राजनीति का नाम बन गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राष्ट्रवादी और सांस्कृतिक प्रतीकों पर आधारित वक्तव्य, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का आक्रामक क्षेत्रीय तेवर, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की वैचारिक दूरी की घोषणा और अब हुमायूं कबीर की नई पार्टी का ऐलान—इन सबको अलग-अलग नहीं पढ़ा जा सकता। यह एक ही राजनीतिक क्षण के अलग-अलग अध्याय है।
ममता बनर्जी खुद को ‘स्ट्रीट फाइटर कहती है। यह केवल व्यक्तित्व का बयान नहीं, बल्कि बंगाल की राजनीतिक परंपरा का दावा है। बंगाल ने हमेशा केंद्र की सत्ता को सवालों के कटघरे में खड़ा किया है। यहां राजनीति किताबों से कम और सड़कों से ज़्यादा बनी है। ममता इसी विरासत को आगे बढ़ाते हुए यह संदेश देती हैं कि बंगाल को बाहर से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि वह हर उस विमर्श को चुनौती देती हैं जो बंगाल की बहुलता को एकरेखीय बनाने की कोशिश करता है।
इसके बरक्स प्रधानमंत्री मोदी का बंगाल में राजनीतिक हस्तक्षेप विकास से ज़्यादा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रतीकों के सहारे होता है। राम मंदिर का निर्णय अदालत से हो चुका है, लेकिन राजनीति में उसका प्रयोग अब भी जारी है। बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण जैसी बातों का उठना न तो संवैधानिक यथार्थ से मेल खाता है और न ही कानूनी प्रक्रिया से। यह दरअसल भावनाओं को पुनर्जीवित करने की राजनीति है, जिसका असर बंगाल जैसे संवेदनशील सामाजिक ताने-बाने पर पडऩा ही है।
इसी संदर्भ में मोहन भागवत का यह कहना कि आरएसएस को बीजेपी के नज़रिए से देखना ग़लत है, एक वैचारिक स्पष्टीकरण हो सकता है। लेकिन राजनीति में केवल संरचनाएँ नहीं, भाषाएं भी बोलती हैं। जब प्रतीक, शब्दावली और लक्ष्य एक जैसे दिखें तो संगठनात्मक दूरी का दावा ज़मीनी राजनीति में कम असर डालता है। बंगाल में, जहाँ संघ की उपस्थिति ऐतिहासिक रूप से सीमित रही है, वहाँ यह दूरी और भी संदिग्ध होकर सामने आती है।
इसी राजनीतिक पृष्ठभूमि में हुमायूं कबीर का प्रकरण बंगाल की राजनीति को एक नई दिशा में मोड़ता है। हुमायूं कबीर पहले बीजेपी से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं, फिर तृणमूल कांग्रेस में आए और अब नई पार्टी बनाने का ऐलान कर रहे हैं। टीएमसी ने उन्हें निलंबित किया है और ममता बनर्जी का सीधा आरोप है कि वह बीजेपी के इशारे पर काम कर रहे हैं। यह आरोप राजनीति में असामान्य नहीं है, लेकिन हुमायूं कबीर की भाषा इस पूरे विवाद को गंभीर बना देती है।
हुमायूं कबीर मुसलमानों से सीधे अपील कर रहे हैं कि अगर उन्हें वोट दिया गया तो बाबरी मस्जिद बनेगी। यह बयान केवल भ्रामक नहीं है, बल्कि खतरनाक भी है। बाबरी मस्जिद का मामला सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से समाप्त हो चुका है। उसे चुनावी वादे की तरह पेश करना न केवल संवैधानिक वास्तविकता से इनकार है, बल्कि मुस्लिम समुदाय को भावनात्मक भ्रम में रखने की कोशिश भी है।
यहां सवाल यह नहीं है कि हुमायूं कबीर की पार्टी कितनी सीटें जीतेगी। असली सवाल यह है कि क्या यह मुस्लिम वोटों को विभाजित करने की रणनीति है। बंगाल में मुस्लिम मतदाता अब तक अपेक्षाकृत एकजुट रहे हैं और उनकी राजनीतिक समझ भावनाओं से ज़्यादा सुरक्षा और प्रतिनिधित्व पर आधारित रही है। ऐसे में अचानक एक नई पार्टी का उभार, वह भी अव्यवहारिक धार्मिक वादों के साथ संदेह को जन्म देता है।
राजनीति में समुदायों के भीतर विभाजन पैदा करना कोई नई रणनीति नहीं है। लेकिन बंगाल में यह प्रयोग इसलिए संवेदनशील है, क्योंकि यहाँ धार्मिक राजनीति हमेशा बाहरी हस्तक्षेप के रूप में देखी जाती रही है। मुस्लिम राजनीति को अगर केवल बाबरी मस्जिद जैसे प्रतीकों तक सीमित किया जाएगा तो वह न प्रतिनिधित्व दे पाएगी, न सुरक्षा।
इसी पूरे माहौल में बांग्लादेश की घटनाएं वहाँ हिंसा, हिंदू युवक की हत्या और चुनावी अस्थिरता बार-बार बंगाल की बहस में लाई जा रही है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश का रिश्ता इतिहास, विभाजन और सांस्कृतिक निरंतरता से बना है। लेकिन हर सीमा-पार घटना को बंगाल के भीतर राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करना, यथार्थ से ज़्यादा भय पैदा करता है।
सच यह है कि बंगाल में आज कई परतों की राजनीति चल रही है। एक तरफ़ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश है, दूसरी तरफ़ क्षेत्रीय अस्मिता की रक्षा। एक ओर मुस्लिम राजनीति को भावनात्मक प्रतीकों में समेटने का प्रयास है, दूसरी ओर आम मुसलमान की रोज़मर्रा की चिंताएं शिक्षा, रोजग़ार और सुरक्षा हाशिये पर है।
कबीर की चेतावनी यहां फिर सामने आती है। मंच से बोले गए शब्द बहुत हैं, लेकिन अखंड देखी हुई सच्चाई यह है कि बंगाल को न तो डर से चलाया जा सकता है, न ही भ्रम से। ‘बैटल ऑफ़ बंगालÓ दरअसल इस बात की लड़ाई है कि राजनीति सच के सहारे होगी या शोर के।
चुनाव आएंगे, नारे बदलेंगे, चेहरे बदलेंगे। लेकिन असली परीक्षा यह है कि क्या बंगाल का मतदाता इस शोर के बीच सच को पहचान पाएगा या फिर कागज़़ की लेखी एक बार फिर अखंड देखी पर भारी पड़ जाएगी।