-सुभाष मिश्र
जब राष्ट्रीय गीत बहस का केंद्र बन जाए, तो समझना चाहिए कि राजनीति इतिहास से भी लुभावनी कथा गढ़ लेती है। लोकसभा में ‘वंदे मातरम’ के 150 वर्ष पूरे होने पर हुई चर्चा ने जिस तरह का राजनीतिक तापमान पैदा किया है, वह बताता है कि भारत में भावनाएँ और इतिहास—दोनों को सत्ता और विपक्ष अपनी-अपनी व्याख्याओं में ढालकर प्रयोग करना जानते हैं। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की रचना, जो कभी स्वाधीनता आंदोलन की नसों में ऊर्जा भरने वाला गीत था, आज आरोप-प्रत्यारोप का अखाड़ा बन गया है।
सरकार का पक्ष साफ है वंदे मातरम ‘देश की आत्मा का गीत’ है, ‘राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति’ है, और इसकी ‘गरिमा को पुनर्स्थापित करना’ उनकी जिम्मेदारी है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने बहस के दौरान कांग्रेस पर आरोप लगाया कि ‘तुष्टीकरण’ के दबाव में उसने वंदे मातरम को ‘खंडित’ किया, और नेहरू ने ‘जिन्ना के दबाव में’ उसके स्वरूप में बदलाव कराए। सरकार इसे बंगाल की भूमि के ‘तुष्टिकरण केंद्र’ होने से भी जोड़ती है, एक ऐसा राजनीतिक संकेत जो आने वाले चुनावों के संदर्भ में भी पढ़ा जा रहा है।
दूसरी ओर विपक्ष का तर्क है कि यह बहस जनता के वास्तविक मुद्दों—महँगाई, बेरोजगारी, तंगी, शासन के दबाव, संस्थानों पर संकट से ध्यान भटकाने की कोशिश है। प्रियंका गांधी का आरोप है कि सत्ता पक्ष को जब जवाबदेही से कतराना होता है, तो वह इतिहास के भावनात्मक पन्ने खोलकर विवादों की नई बुनावट कर देता है।
लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि डेढ़ सौ वर्ष पुराने एक गीत पर इतनी उग्र बहस क्यों? क्या वास्तव में वंदे मातरम खतरे में है? या खतरा राजनीति को है, जिसके लिए भावनाएँ हमेशा आसान ईंधन होती हैं? वंदे मातरम का इतिहास भी इतना सरल नहीं है। यह उपन्यास आनंदमठ में प्रकाशित हुआ। इसमें हिन्दू प्रतीकों की प्रधानता थी, जिसके ऐतिहासिक कारण भी थे, ब्रिटिश शासन, संन्यासी विद्रोह, और तत्कालीन समाज की रचना। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जब यह गीत जोश का स्रोत बना, तब भी कुछ समुदायों में इसके कुछ अंशों को लेकर वैचारिक असहमति रही। नेहरू, टैगोर और मौलाना आजाद सहित कई नेताओं ने यह सुझाव भी दिया था कि अगर भारत विविधताओं का देश है, तो राष्ट्रीय गीत ऐसा होना चाहिए जो हर धार्मिक और सांस्कृतिक समूह को सहज लगे। इन्हीं कारणों से वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत का दर्जा तो मिला, परंतु पूर्णरूप से नहीं गाया गया। यह इतिहास है न तो तुष्टीकरण, न ही दमन बल्कि विविधता को समेटने का प्रयास।
आज जब 150 वर्षों बाद वही गीत फिर से संसद में गूँजता है, तो सवाल यह उठता है कि चर्चा ‘राष्ट्रीय भावनाओं’ की है या ‘राजनीतिक रणनीतियों’ की?
यदि आजादी के 75 वर्षों बाद, लोकतंत्र के इतने परिपक्व चरण में, हमें अभी भी ‘वंदे मातरम बोलो या देश छोड़ो’ जैसी बयानबाजी सुनाई देती है, तो यह समझना कठिन नहीं कि समस्या गीत में नहीं, नियति को दिशा देने वाली राजनीति में है।
दरअसल जनता भी यह प्रश्न पूछ रही है यदि इस ऐतिहासिक मौके पर राष्ट्रीय स्मृति को मजबूत करना ही उद्देश्य है, तो क्यों सिर्फ वंदे मातरम? क्यों नहीं सारे जहाँ से अच्छा, जन गण मन, जननी जन्मभूमि, कदम कदम बढ़ाए जा, या आजादी के तमाम अन्य गीत? आखिऱ वंदे मातरम को ही बहस का केंद्रीय बिंदु बनाने का निर्णय किस भावनात्मक लाभांश को साधने की कोशिश है?
सच्चाई यही है कि गीत, प्रतीक और स्मृतियाँ—राजनीति के लिए सबसे आसानी से इस्तेमाल होने वाले औज़ार हैं। और यह इस्तेमाल तब और बढ़ जाता है जब चुनावी मौसम करीब हो या राजनीतिक विमर्श बेरोजगारी-मूल्यवृद्धि जैसे असली प्रश्नों से कतराना चाहता हो।
वंदे मातरम हमारे इतिहास का गौरवशाली अध्याय है इसमें कोई दो राय नहीं।
परंतु इसे श्रद्धा का प्रतीक बनने दीजिए, विवाद का हथियार नहीं। क्योंकि जिस गीत ने कभी लोगों को आजादी की लड़ाई में एकजुट किया था, आज वही गीत अगर विभाजन के विमर्श में फँस जाए, तो यह हमारी राजनीतिक श्रेष्ठता नहीं, बल्कि हमारे लोकतांत्रिक विमर्श की कमजोरी को ही उजागर करता है।
वंदे मातरम सम्मान का विषय है उसे राजनीति का मंच नहीं, राष्ट्रीय आत्मा का स्थान मिलना चाहिए।