Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – हड़ताल, हवाई सेवाएं और निजीकरण की दिशा

-सुभाष मिश्र

इंडिगो के कर्मचारियों की हालिया हड़ताल ने देश को एक ऐसे सच के सामने लाकर खड़ा किया है जिसे हम वर्षों से अनदेखा करते आए हैं। सैकड़ों उड़ानों का रद्द होना, एयरपोर्टों पर भगदड़, यात्राओं का टूटना, शादी-मृत्यु जैसे संवेदनशील अवसरों का बिगड़ जाना—ये केवल परिचालन संबंधी कठिनाइयां नहीं थीं; यह एक चेतावनी थी। जब एक ही निजी कंपनी पूरे क्षेत्र में निर्णायक प्रभुत्व बना लेती है तो उसकी किसी भी आंतरिक समस्या का बोझ सीधे नागरिक पर आ जाता है।
यह घटना बताती है कि भारत की नागरिक उड्डयन व्यवस्था अब किस कदर निजी हाथों पर निर्भर हो चुकी है। इंडियन एयरलाइंस का पतन, एयर इंडिया का महंगा पुनर्गठन, कुछ चुनिंदा कंपनियों का तेज़ उदय—इन सबने मिलकर ऐसा ढांचा तैयार किया है जिसमें प्रतियोगिता कम और एकाधिकार की प्रवृत्ति अधिक है। नतीजा यही कि एक हड़ताल से पूरा देश ठहर जाता है और सरकार को अपने ही फैसलों से पीछे हटना पड़ता है। यह उपभोक्ता अधिकारों की मजबूती नहीं, बल्कि उनकी असुरक्षा को रेखांकित करता है।
पर इस बहस को केवल इंडिगो तक सीमित करना भी गलत होगा। यह घटना बहुत बड़े वैचारिक प्रश्न का हिस्सा है क्या भारत अपनी अर्थव्यवस्था को एक ऐसे मॉडल की ओर ले जा रहा है जिसमें राज्य का स्थान लगातार सिकुड़ता जा रहा है और निजी पूँजी लगभग हर क्षेत्र में निर्णायक भूमिका ग्रहण कर रही है? दूरसंचार हो, शिक्षा हो, स्वास्थ्य हो, बिजली-ऊर्जा हो या परिवहन लगभग हर जगह सरकार पीछे हट रही है और निजी क्षेत्र केंद्रीय भूमिका में आ रहा है।
निजीकरण का तर्क अक्सर बेहतर सेवा और कुशलता के नाम पर पेश किया जाता है, पर वास्तविकता यह है कि निजी क्षेत्र का मूल चरित्र लाभ केंद्रित होता है। नागरिक उसके लिए उपभोक्ता है, न कि अधिकार संपन्न व्यक्ति। यह अंतर छोटा नहीं है; यही अंतर तय करता है कि संकट की घड़ी में प्राथमिकता किसे मिलेगी जनता को या मुनाफे को?
प्रश्न यह भी है कि क्या रणनीतिक और नागरिक जीवन से जुड़े क्षेत्रों को बाज़ार की पूरी दया पर छोड़ देना सुरक्षित है? इंडिगो की हड़ताल एक उदाहरण है कि एकाधिकार किस प्रकार पूरे तंत्र को एक झटके में अस्थिर कर सकता है। आज यह उड्डयन है, कल यह दूरसंचार हो सकता है या स्वास्थ्य। जब बाज़ार में विकल्प सीमित हों, तो उपभोक्ता केवल भुगतान करता है—उसके अधिकार, सुरक्षा और सुविधा सब अनिश्चितताओं पर टिकी रहती है।
भारत जैसे विशाल और विविध समाज में राज्य की भूमिका केवल एक नियामक की नहीं, बल्कि एक संरक्षक और सेवाप्रदाता की भी होनी चाहिए। सरकार कल्याणकारी होती है; वह घाटे में भी सेवा दे सकती है क्योंकि उसका लक्ष्य नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति है। निजी क्षेत्र ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह सेवा को सामाजिक अधिकार नहीं, व्यावसायिक उत्पाद मानता है। इसलिए यह अनिवार्य है कि मूलभूत सेवाएँ सार्वजनिक नियंत्रण में रहें, निजी क्षेत्र में वास्तविक प्रतिस्पर्धा हो, एकाधिकार नहीं और उपभोक्ता अधिकार इतने मजबूत हों कि किसी एक कंपनी का संकट पूरे देश का संकट न बन जाए।
इंडिगो की हड़ताल ने हमें याद दिलाया है कि बाज़ार का स्वभाव सुविधा से अधिक निर्भरता पैदा कर सकता है और निर्भरता से अधिक असुरक्षा। विकास का लक्ष्य तभी व्यापक और न्यायपूर्ण होगा जब उसका केंद्र नागरिक हो न कि कुछ चुनिंदा कंपनियों की बैलेंस शीटें। यदि राज्य पीछे हटेगा और बाज़ार आगे बढ़ेगा, तो नागरिक बीच में हमेशा कुचला ही जाएगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *