फिल्म की शुरुआत में एक वकील नहीं, एक कवि बैठा दिखता है। उसकी मेज़ पर गजानन माधव मुक्तिबोध की तस्वीर रखी है—वही मुक्तिबोध जो कहा करते थे, कहीं कोई तो होगा, जो सच बोलेगा। और फिर बैकग्राउंड में एक कविता बजती है, जो किसी मुकदमे की दलील नहीं, खेतों की चीख जैसी लगती है —
खेत से उठती धूल अब
कानून की फाइलों में जा बैठी है,
हल की धार से बहस नहीं होती
बस मुआवजे के पन्ने पलटते हैं।

इस दृश्य में कविता अदालत से बड़ी हो जाती है। जॉली अब कोई कानूनी पात्र नहीं, बल्कि उस मौन किसान की आवाज़ है जिसे विकास की मशीनरी ने कुचल दिया। जॉली एलएलबी 3 दरअसल एक ऐसा मुकदमा है जिसमें न्याय के कटघरे में खुद व्यवस्था खड़ी है।
सुभाष कपूर की जॉली एलएलबी त्रयी— 2013, 2017 और 2024 भारतीय न्यायपालिका पर सिनेमा का सबसे प्रखर व्यंग्य कही जा सकती है। पहली फिल्म में अरशद वारसी का जॉली शोहरत की तलाश में अदालत तक आता है, पर वहां उसे सच्चाई का नग्न चेहरा दिखता है—जहाँ कानून के अनुच्छेद भी वर्ग आधारित हैं। दूसरी फिल्म में अक्षय कुमार का जॉली पेशेवर है, मगर सिस्टम की चालाकी उसे अंतरात्मा की अदालत में दोषी बना देती है। तीसरी फिल्म में जब दोनों जॉली अदालत में आमने-सामने हैं, तब यह मुकदमा किसी केस का नहीं, न्याय और व्यवस्था की साझेदारी का बन जाता है।

इस बार अदालत परभट्टा गांव की कहानी सुनती है। कहा गया है कि यह फिल्म एक वास्तविक घटना से प्रेरित है — और यह बात उसे सिनेमा से उठाकर समाज की जमीन पर ला खड़ा करती है। यह वही भूमि है जहाँ विकास के नाम पर खेत छीने जा रहे हैं, और किसानों को मुआवजे की उम्मीद में अदालतों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भारतमाला प्रोजेक्ट के तहत भूमि अधिग्रहण में हुए घपले, कागज़ी खातेदारों को मुआवजा और असली किसानों का विस्थापन—ये सब इस परभट्टा की असंख्य प्रतिकृतियाँ हैं। हर गाँव में अब कोई न कोई परभट्टा है—जहाँ खेत की मेड़ से अदालत की फाइल तक की दूरी में पूरा जीवन बिखर जाता है।
फिल्म का न्यायाधीश (सौरभ शुक्ला) इस बार महज़ चरित्र नहीं, एक विचार है — विवेक का वह स्वर जो सत्ता, पूंजी और कानून के गठजोड़ के बीच फंसे आम आदमी को अब भी याद दिलाता है कि न्याय केवल फैसले का नाम नहीं, संवेदना का भी है। अदालत की हर सुनवाई के पीछे एक अदृश्य पीड़ा गूंजती है — किसान, मजदूर, विस्थापित और वो नागरिक जो लोकतंत्र के तमाशे में दर्शक बना दिया गया है।

जॉली एलएलबी 3 में मुक्तिबोध की तस्वीर केवल सजावट नहीं, अंतरात्मा का आईना है। जॉली उसी कवि का वारिस है जिसने लिखा था —मुझे कदम-कदम पर चिन्ह छोडऩे हैं। वह अपने तर्कों में कविता खोजता है और कविता में न्याय। अदालत का माहौल जब शब्दों और सबूतों से भर जाता है, तो बैकग्राउंड में वही आवाज़ फिर लौटती है —
जिसे खेत की मेड़ों पर दबा दिया गया था,
वह सच अब अदालत में पेश है,
और जज साहब सोच रहे हैं—
क्या न्याय में भी अब मुआवजा तय होता है?
तीनों फिल्मों की बनावट में सुभाष कपूर ने अदालत को समाज के आईने की तरह रखा है। पहली फिल्म में यह आईना सादा था, दूसरी में चमकदार, और तीसरी में टूटा हुआ — जिसमें हर किरदार, हर दर्शक अपना टेढ़ा चेहरा देख सकता है। यह त्रयी मनोरंजन के साथ-साथ एक बौद्धिक हस्तक्षेप है, जो यह कहती है कि जब संसद मौन हो जाए, तब अदालत को कविता बोलनी चाहिए।
सिनेमा का यही रूप हमें यह भरोसा देता है कि कला केवल आनंद नहीं देती, विवेक भी जगाती है। जॉली एलएलबी 3 के जॉली जब अदालत में खड़े होकर कहते हैं —माई लॉर्ड, यह केस सिर्फ मेरा नहीं, उस हर नागरिक का है जो अपने हक़ की गवाही देना चाहता है,—तो वह आवाज़ परदे से बाहर आती है और हमारे भीतर गूंजती है। शायद इसलिए, यह फिल्म देखना एक मुकदमे में शामिल होना है — उस मुकदमे में जहाँ हम सब या तो गवाह हैं, या अभियुक्त।
सिनेमा अब केवल मनोरंजन नहीं, समाज के आत्मनिरीक्षण का माध्यम है। जॉली एलएलबी 3 हमें याद दिलाती है कि अदालतें सिर्फ फैसले नहीं, विचार देती हैं — और जब कविता न्याय की भाषा बन जाए, तो शायद देश थोड़ा और संवेदनशील हो सके।