हंसा कर ले किलोल, जाने कभेरे मर जाने

दिनेश चौधरी
थियेटर करने वाले लोग थोड़े जुनूनी किस्म के होते हैं, पर अरुण पाण्डेय कुछ ज्यादा ही थे। इसे साधने के फेर में खुद को निचोड़ डाला। सिर्फ नाटक ही करना होता तो वे किसी भी ऐसे संस्थान से बहुत आसानी से जुड़ सकते थे, जहाँ केवल नाटक ही खेले जाते हैं। वहाँ पद, प्रतिष्ठा, पैसे और सम्मान वगैरह खुद-ब-खुद खिंचे चले आते हैं। यह सब करना उनके मिजाज में नहीं था। हर किसी से होता भी नहीं। वे उस धारा के रंगकर्मी थे जो बदलाव की आस में थियेटर करते हैं। बदलाव होता है या नहीं, ये अलग बात है पर इससे दुनिया बदसूरत होने से बची रहती है। इसे खूबसूरत बनाने में लगे कुछ और लोगों की तरह अरुण पांडेय ने भी अपने हिस्से का योगदान दिया और आखिरी समय में शारीरिक पीड़ा झेलते हुए दुनिया से कूच कर गये। उनकी ख्वाहिश खुद का एक ड्रामा स्कूल खोलने की थी। औपचारिक तौर पर यह भले ही मुमकिन न हो सका हो, पर गेट नम्बर-चार के पास उनका दो-मंजिला दीवाने-आम किसी भी ड्रामा स्कूल से कम न था। यहाँ उन्होंने थियेटर के जबलपुर घराने की स्थापना की और गुरु-शिष्य परम्परा के तहत गंडा बांधे बगैर ही न जाने कितने शागिर्द तैयार किये जो थियेटर से लेकर सिनेमाई हलकों में मुंबई-दिल्ली तक लोगों को हलाकान किये हुए हैं।
वे पैदाइशी जबलपुरिया नहीं थे। बनारस के घाट छोड़कर आये थे। इसीलिए यहाँ के शुरुआती दिनों में उन्हें ‘आउट साइडरÓ माना गया। ‘आउट साइडरÓ तो परसाई भी थे, रजनीश भी और ज्ञानरंजन भी, लेकिन नर्मदा के पानी में घुलनशीलता कुछ ज्यादा ही है। जो यहाँ का है वह तो है ही, जो यहाँ से गया वो भी यहीं का है और जो यहाँ आया वो भी। इस शहर में लोगों को जज्ब करने की और लोगों में जज्ब हो जाने की अद्भुत क्षमता है।
उधर पढ़ाई-लिखाई भारतेंदु हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज में हुई, जहाँ हर साल भारतेंदु जयंती पर हरेक क्लास के हरेक सेक्शन को एक नाटक करना पड़ता था। यह अनिवार्य था। वहाँ एक गुलाबराय जी हुआ करते थे जो हरेक क्लास के मॉनिटर को बुलाकर भारतेंदु समग्र से कोई एक आलेख थमा दिया करते थे। 4-5 दिनों का आयोजन हुआ करता था। छठी से लेकर इंटर कॉलेज तक यह सिलसिला चलता रहा तो नाटकों में रूचि स्वभाविक तौर पर पैदा हो गयी थी। फिर एनएसडी से निकलने के बाद बी.वी. कारंथ ने अपनी पहली वर्कशाप सन् 1973 में बनारस में की तो स्थानीय कलाकारों की भीड़ में अरुण भी शामिल हो गये थे। कारंथ साहब ने तब चंद्रगुप्त नाटक तैयार किया। यह बारहवीं की बात रही होगी। इसके बाद वे जबलपुर आ गये।
जबलपुर में एक दिन यूँ ही राह चलते हुए अलखनंदन से भेंट हो गयी। तब ज्ञानरंजन जी अग्रवाल कालोनी वांले मकान में रहते थे। जब पहली बार वहाँ गये तो विवेचना फजल ताबिश के नाटक ‘डरा हुआ आदमीÓ पर काम कर रही थी। तपन बेनर्जी, सीताराम सोनी, राजकुमार कामले, अजय घोष, राजेंद्र दानी वगैरह से इसी दौरान मुलाकात हुई। फिर बकरी, दुलारीबाई, अखाड़े से बाहर आदि नाटकों में काम करते हुए वे अलखनंदन के दुलरुआ अभिनेता बन गये थे। सुबह-शाम उनकी सोहबत में गुजरने लगी थी और धीरे-धीरे वे उन्हें निर्देशन के गुर भी सिखाने लगे थे। अखाडे से बाहर में काम करते हुए उन्होंने अरुण पांडेय को असिस्टेंट डायरेक्टर का जिम्मा सौंप दिया था। इसमें आलोक चटर्जी भी थे।
आलोक चटर्जी को नाटकों के हलके में अरुण ही लेकर आये थे। आलोक क्रिकेट कॉमेंट्री किया करते थे, जो बड़ी अद्भुत हुआ करती थी। कभी संजीव कुमार की आवाज में, कभी अमिताभ बच्चन की आवाज में तो कभी शशि कपूर की। कॉमेंट्री और मिमिक्री साथ-साथ चलती थी। आलोक के पास अद्भुत कला थी पर अलखनंदन उन पर ज्यादा भरोसा नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यह कभी भी फिल्मों में भाग जाएगा। इसलिए सहायक निर्देशन के साथ-साथ उन्होंने अरुण से यह भी कह रखा था कि जरूरत पडऩे पर वे आलोक की भूमिका करने के लिये तैयार रहें।
संयोग से परसाई जी की रचनाओं पर आधारित निठल्ले की डायरी अरुण पाण्डेय के सबसे चर्चित नाटकों में से एक है। इसके तैयार होने की कहानी भी बहुत दिलचस्प है। अरुण पत्रकारिता के पेशे में आ गये थे। अखबार में परसाई जी का कॉलम छपता था और वह बेहद लोकप्रिय था। तो अरुण ने खुद ही यह जिम्मेदारी ली कि उनके कॉलम में कभी कोई बाधा नहीं आए। परसाई जी के घर से सामग्री लाते, उसकी कंपोजिंग की जाती, प्रूफ की जाँच होती, छपाई से पहले उसे परसाई जी को दिखाते और उनकी अंतिम स्वीकृति के बाद ही सामग्री छपा करती थी। ये परसाई जी से सघन निकटता वाला दौर था, तो इसी दौरान एक बार उनसे अरुण ने कहा कि आप व्यंग्य इतना बढिय़ा लिखते हैं तो नाटक क्यों नहीं लिखते? जवाब मिला कि नाटक बिल्कुल अलग विधा है, यह मुझसे सधता नहीं है। अरुण ने कहा कि नाटक तो आप लिख ही रहे हैं! उसमें संवाद हैं, घटना है, कास्टयूम और प्रापर्टी भी आप बता ही देते हैं क्योंकि आपका ऑब्जर्वेशन बहुत बढिय़ा है। परसाई जी ने कहा कि नाटक ही लिखा है तो खेल डालो। अरुण ने इस चुनौती को स्वीकार किया और निठल्ले की डायरी का जो पहला ड्राफ्ट तैयार किया वह लगभग 8 घंटे की अवधि वाला था। इसे किसी तरह कसते-कसाते छोटा किया गया, हालांकि उनका बस चलता तो वे इसे कुछ इन्टरवल के साथ पूरा ही खेलने की ख्वाहिश रखते थे।
अरुण पाण्डेय द्वारा निर्देशित नाटक दुर्गा के एक प्रभावशाली दृश्य में सम्राट अकबर गोंड रानी दुर्गावती को भेंट में एक चरखा भिजवाते हैं। संकेत और संदेश यह कि राज-काज महिलाओं का काम नहीं है, कपड़ों की बुनाई करो और घर का काम-काज संभालो। इस पर रानी का जवाब बहुत दिलचस्प और जबरदस्त होता है पर कहना कुछ और है। तब सम्राट अकबर ने कहाँ सोचा होगा कि वे प्रतीक के तौर पर जिस चरखे का इस्तेमाल साम्प्रज्य के विस्तार के लिए कर रहे हैं, वही चरखा आगे चलकर गांधी नामक एक शख्स के हाथों साम्राज्यवाद के विस्तार के विरोध प्रतीक बन जाएगा। प्रतीकों-बिम्बों के मायने और उनकी अवधारणा कालखण्ड के हिसाब से बदलती रहती है। इसलिए एक ऐसे रंगचिंतक के रूप में, जिसकी आवाजाही लोक और आधुनिक के बीच लगातार बनी हुई हो, अरुण अपने हुनर को पतली रस्सी में चलने की तरह उम्र भर साधते रहे। बुदेलखण्डी लोक कला के तत्वों को अपने आदिम रंगो-बू के साथ सहेज कर उन्हें आधुनिक नाटकों में बरतने का हुनर अरूण पाण्डेय के यहाँ वैसा ही दिखाई पड़ता है, जैसा हबीब तनवीर के नाटकों में छत्तीसगढ़ी का।
इसुरी और हंसा कर दे किलोल के बगैर अरुण पाण्डेय की रंगयात्रा का जि़क्र मुकम्मल नहीं हो सकता। इसी क्रम में अरुण पाण्डेय का नाटक हंसा कर दे किलोल भी बड़ा लोकप्रिय रहा। इसकी पृष्ठभूमि सन् 1857 से भी पहले बुंदेला विद्रोह की थी। 1824 के आस-पास। इसमें एक बड़ी अद्भुत और रोचक घटना थी जो एक मृदंगिये के इर्द-गिर्द घूमती थी। इस मृदंग वादक की एक प्रेयसी थी, जिसे वह जी-जान से चाहता था। वह राई नर्तकी है और मधुकर शाह के दरबार में उसका नृत्य चल रहा था। दरबार में एक अंग्रेज अधिकारी भी शामिल है, जो बतौर अतिथि आया हुआ है। वह मधुकर शाह से नर्तकी को अपने घर भेजने को कहता है पर मधुकर शाह साफ इंकार कर देते हैं। अंग्रेज नर्तकी का अपहरण कर लेता हैं और बलात्कार के बाद उसकी हत्या हो जाती है। इस घटना से मृदंगिये का खून खौल उठता है। वह कुल्हाड़ी लेकर अंग्रेजों की छावनी में पहुँच जाता है और एक साथ कई लोगों का काम तमाम कर देता है। गिरफ्तारी के बाद उसे फाँसी की सजा सुनाई जाती है। संयोग से जिस जेल में उसे रखा जाता है, उसके जेलर की पत्नी को बुंदेलखण्ड की कला व संस्कृति से बड़ा लगाव था। उसे पता था कि मृदंगिया बहुत ऊँचे दर्जे का कलाकार है। वह उसकी फाँसी की सजा रद्द करवाने के लिए लंदन की हुकुमत को खत भेजती है। अब यहाँ जो बात अनायास उभर कर सामने आती है वह यह है कि बुंदेलखण्ड का कल्चर बरतानिया के कल्चर से कुछ कम नहीं है। यहाँ शेक्सपियर के सॉनेट के समक्ष तुलसीदास की चौपाई खड़ी नजर आती हैं। नाटक एक तरह से वर्चस्ववाद को चुनौती देता नजर आता है।
बहरहाल, मृदंगिया बहुत पापुलर था और उसकी फाँसी का समय नजदीक आ गया। उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछी गयी। मुदंगिये ने कहा कि वह मृदंग बजाना चाहता है और मृदंग बजाते हुए नाचना चाहता है, साथ के लिए दो बेड़नियाँ बुला दी जाएँ। इस बात के ऐलान पर समूचे बुदेलखण्ड की बेड़नियाँ टूट पड़ती हैं। जितने गाने-बजाने वाले लोग थे. वे भी इक_ा हो गये। जेल में तिल धरने भर की जगह भी बाकी नहीं रही। उधर वह दल भी आ पहुँचा है, जिसे फाँसी मुआफी की मांग पर फैसला देना है। हंसा कर ले किलोल, जाने कभेरे मर जाने इस पंक्ति पर आखिरी नृत्य चल रहा है। यह हुकुमत की ताकत के आगे कला का प्रतिरोध है, जो हमारे लोक की बडी शक्ति को रेखांकित करता है। आखिरकार,गंगा किनारे से चलकर आयी मिट्टी की एक देह नर्मदा के पानियों में घुल-मिल गयी। जो ख्याल था, वो जिंदा है, आगे भी रहेगा। अरुण जाने से पहले जी भरकर किलोल कर गये। वे भले ही कुछ जल्दी चले गए, पर उन्होंने एक भरपूर जिंदगी जी। अपने मन की जिंदगी। जो चाहा सो किया। जो नहीं करना था वो भी किया। जो नहीं करना था, उसकी तकलीफ मीनू भाभी झेलती रहीं। पर कभी-कभी कुछ तकलीफें भी बेहद आत्मीय और अनिवार्य होती हैं और इनका छिन जाना ज्यादा कष्टदायक होता है। उम्मीद है कि वे खुद को इस कष्ट से बाहर निकालने का रास्ता ढूँढ़ लेंगी।

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