सुभाष मिश्र
( विनोद कुमार शुक्ल और 30 लाख की रायल्टी प्रसंग)

हिंदी जगत में इन दिनों यह सवाल जोरदार बहस का विषय है कि जब हिंदी युग्म जैसे प्रकाशक विनोद कुमार शुक्ल को उनकी चार किताबों की महज़ छह माह में 90 हज़ार प्रतियों की बिक्री का पूरा हिसाब देकर तीस लाख रुपये की रॉयल्टी दे सकते हैं तो अन्य प्रकाशक ऐसा क्यों नहीं करते? क्यों वही प्रकाशक, जिन्होंने वर्षों से विनोदजी की किताबें छापी है, इस रॉयल्टी का दसवां हिस्सा भी भुगतान नहीं कर पाए?
स्वयं विनोदजी को भी अपने प्रकाशकों से हिसाब मांगना चाहिए। उदाहरण के लिए राजकमल प्रकाशन समूह ने अपने विज्ञापनों में उनकी दस किताबों को प्रचारित किया—नौकर की कमीज़, खिलेगा तो देखेंगे, हरी घास वाली छप्पर वाली झोपड़ी, सब कुछ होना बचा रहेगा, आकाश धरती को खटकता है, बौना पहाड़, कविता से लंबी कविता, प्रतिनिधि कविता और वह आदमी चला गया नया गर्म कोट पहिन कर चला गया विचार की तरह। इसके बावजूद पारदर्शिता और रॉयल्टी भुगतान का सवाल उठता ही है।

समस्या यह है कि हिंदी के अधिकांश लेखक किताब छपने के एहसान से ही इतने दब जाते हैं कि प्रकाशक से हिसाब माँगने का साहस नहीं जुटा पाते। कई प्रकाशक औपचारिकता निभाने के नाम पर साल-दो साल में बिक्री का एक संक्षिप्त स्टेटमेंट और थोड़ी-बहुत राशि भेज देते हैं। इसके विपरीत हिंदी युग्म ने विनोदजी के पुत्र शाश्वत को मेल पर किताबों की बिक्री का पूरा ब्यौरा भेजा। सवाल यह है कि क्या बाकी प्रकाशक भी इस पारदर्शिता का अनुसरण करेंगे? क्योंकि किताबों की बिक्री पूरी तरह प्रकाशक की ईमानदारी पर निर्भर है। अगर किसी पुस्तक की वास्तविक बिक्री 1000 प्रतियों की हो और प्रकाशक उसे 100 दिखा दे, तो लेखक क्या कर लेगा?
दरअसल, हिंदी लेखक का यह भी दुर्भाग्य है कि उसे किताबों की बिक्री का अंदाज़ा तक नहीं होता। परिणामस्वरूप लेखकों की आर्थिक स्थिति कभी सशक्त नहीं हो पाती।
विनोद कुमार शुक्ल ऐसे कवि हैं जो विचारधारा के पुल से होकर नहीं, बल्कि कविता की नदी को खुद तैर कर पार करते हैं। उन्होंने चलताऊ मुहावरों को तोड़कर संवेदना और काव्य-शिल्प को नया आयाम दिया। अपनी काव्यभाषा के चयन में वे विरल, संयमी और सजग कवि माने जाते हैं।
सोशल मीडिया पर हिंदी युग्म की रॉयल्टी चर्चा का विषय बनी। कोई उन्हें बिक्री के आधार पर हिंदी साहित्य का अब तक का सबसे लोकप्रिय और श्रेष्ठ लेखक कह रहा है तो कोई इसे सोशल मीडिया मार्केटिंग की नई रणनीति बता रहा है। लेकिन यह निर्विवाद है कि सबसे कम समय में सबसे ज्यादा किताबें बिकने और सर्वाधिक रॉयल्टी पाने वाले लेखक के रूप में वे अपूर्व उदाहरण हैं।
सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी थी—
विनोद शुक्ल जी, तीस लाख और हिंदी युग्म यह शगूफ़ा नहीं है।
वरिष्ठ लेखक राजेंद्र चंद्रकांत राय का कहना है कि हिंदी युग्म ने वास्तव में हिंदी लेखन और लेखकों के लिए एक नया युग शुरू किया है। उनके अनुसार हर अच्छी पहल की सराहना होनी चाहिए, न कि आलोचना।
प्रकाशन की नई पीढ़ी अब हाई-टेक है और बाजार की तकनीक को गहराई से समझ चुकी है। अब तक जिन लेखकों ने कुछ सौ या कुछ हजार प्रतियों से आगे उम्मीद छोड़ दी थी, उन्हें समझना होगा कि उनके कॉपीराइट्स उनके बच्चों का भविष्य बन सकते हैं। तीस लाख रुपये भले आज की दुनिया में बहुत बड़ी राशि न हो, लेकिन यह संकेत है कि साहित्य से भी लेखकों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ की जा सकती है।

आज वेबसीरीज़ और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म कहानियों के अधिकार लाखों में खरीद रहे हैं। ऐसे में यदि युवा प्रकाशक ‘राइटर्स बैंकÓ जैसी परिकल्पनाओं के साथ हिंदी साहित्य का नया बाजार तलाश रहे है तो इसे समयानुकूल और सुखद कहा जाएगा।
इसके उलट, वरिष्ठ साहित्यकार और पूर्व ब्यूरोक्रेट डॉ. सुशील द्विवेदी अपने अनुभव साझा करते हैं। उनकी किताब मध्यवर्ती वर्ष 1983 में भारत भवन, भोपाल के उद्घाटन अवसर पर प्रकाशित हुई थी। सरकार ने उस समय 1000 प्रतियां खरीदी थीं। एक साल बाद प्रकाशक ने हिसाब भेजा तो उसमें केवल उन्हीं 1000 प्रतियों का उल्लेख था, मानो उसके बाद एक भी प्रति न बिकी हो। यह घटना बताती है कि लेखकों के साथ किस हद तक अपारदर्शिता बरती जाती रही है।
स्पष्ट है कि लेखक, प्रकाशक को अमीर बनाने के लिए नहीं लिखते। अब वक्त आ गया है कि हिंदी के लेखक सामूहिक रूप से हिसाब माँगें और रॉयल्टी का वास्तविक हक़ हासिल करें। वरना हिंदी साहित्य का लेखक अपनी ही रचनाओं की कमाई से हमेशा वंचित रह जाएगा।
जरुरत है कि प्रकाशक ईमानदारी बरतें, जैसा लग रहा है हिन्द युग्म ने बरता है, नहीं तो भविष्य हिन्द युग्म जैसे प्रकाशकों का रहेगा। अगर यह हिन्द युग्म ट्रेंड चल गया तो चाहे कितना भी बड़ा प्रकाशक हो बाजार से बाहर हो जायेगा। प्रकाशक अपने कामकाज , भुगतान में पारदर्शिता दिखाये और लेखक भी अपने हक के लिए जैसा की बात-बात पर बहुत से लेखक सोशल मीडिया पर बोलते हैं, दिखते हैं अपने खिलाफ होने वाले शोषण अत्याचार और बौद्धिक संपदा की कथित चोरी पर भी बोलें, लिखें।
प्रसंगवश बक़ौल हरिशंकर परसाई –
इस देश में बुद्धिजीवी सब शेर हैं, पर वे सिचारों की बारात में बैण्ड बजाते हैं।
और गजानन माधव मुक्तिबोध के शब्दों में कहूँ तो –
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोडऩे होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता
अरुण कमल एक।
मुक्तिबोध की उस कविता के आसपास सोचा जाए तो कह सकते हैं कि इस मामले में आश्चर्यजनक रूप से राजकमल और वाणी जैसे और बहुत से बड़े प्रकाशकों के लेखकों की इस मामले में चुप्पी दिख रही है। ऐसा नहीं है कि वे अपनी मिली रॉयल्टी से हिन्द युग्म की इस घटना के बाद संतुष्ट होंगे। दरअसल, अब वे बस अपने लिए प्रकशक का विकल्प तलाशने तक चुप है, बस इसलिए की कहीं हाथ में है जो वह भी ना छूट जाये। ऐसे लेखकों की चुप्पी हिंदी के लिए दुर्भाग्यजनक है जो बात बेबात वैसे तो बहुत मुखर हंै, अपने प्रकाशक पर सवाल उठाते हुए उनकी सांसें अटकी हुई हैं।