पुलिस व्यवस्था का इतिहास उठाकर देखें तो मुखबिर इसकी रीढ़ माने जाते रहे हैं। अपराध और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस के लिए मुखबिर आंख और कान की तरह होते थे। सूचना देने वालों को इसके बदले आर्थिक प्रोत्साहन भी मिलता था। इसके लिए विशेष सीक्रेट फंड बनाया जाता था, लेकिन अब हालात यह है कि यह फंड भी अफसरों और विभागीय लोगों की बंदरबांट का जरिया बन गया है। सवाल यह है कि अगर मुखबिरों की भूमिका सिकुड़ गई है तो उनकी जगह किसने ले ली है? जवाब साफ है—आज के समय में पुलिस को मुखबिर नहीं, बल्कि लाईजनर चाहिए।
लाईजनर आज सरकारी व्यवस्था का नया और अहम किरदार है। वह मुखबिर की तरह चुपचाप सूचना देने वाला नहीं, बल्कि अफसर और सत्ता के बीच पुल का काम करने वाला दलाल है। डीएमएफ (डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड) से लेकर पुलिस मुख्यालय तक, हर जगह लाईजनर मौजूद हैं। पहले यह काम नेताओं के कुछ खास कार्यकर्ता या पत्रकार निभाते थे, लेकिन अब प्रोफेशनल लाईजनरों की पूरी फौज खड़ी हो गई है।
इनकी सबसे बड़ी ताकत यही है कि सरकार बदलने से इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। ये लोग हर सत्ता में अपने हुनर और पहुँच से घुसपैठ बना लेते हैं। यही कारण है कि लोग कहते हैं—
ना गगन बदला है, ना चमन बदला है, ये मुर्दे वही हैं, फिर कफऩ बदला है।
लाईजनरों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। कल कांग्रेस सरकार में भी सक्रिय थे, आज भाजपा सरकार में भी वही उतनी ही सक्रियता से काम कर रहे हैं।
हाल ही में फर्जी पुलिस इंस्पेक्टर बनकर काम करने वाला आशीष घोष गिरफ्तार हुआ। यह मामला केवल एक व्यक्ति का नहीं है, बल्कि पूरे सिस्टम के चरित्र को उजागर करता है। कभी पुलिस विभाग में ड्राइवर रहा आशीष खुद को सब-इंस्पेक्टर और एसीबी अधिकारी बताकर घूमता था। ट्रांसफर-पोस्टिंग में दलाली करता, वसूली करवाता और ड्रग माफियाओं से सौदेबाजी तक कर डालता।
असल में आशीष पुलिस का मुखबिर नहीं, बल्कि लाईजनर था। उसके संबंध दस से ज्यादा आईपीएस अफसरों से बताए जाते हैं। अधिकांश थानों में ऐसे प्राइवेट आदमी मिल जाएंगे जो पुलिस की सीधी वसूली और गैरकानूनी कामों के लिए काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर का बैकग्राउंड सटोरियों, जुआरियों या छोटे अपराधियों का होता है। वे अब थानों के अनौपचारिक हिस्से हैं—कभी गवाह बनकर, तो कभी दलाल बनकर।
आशीष की गिरफ्तारी ने यह स्पष्ट कर दिया कि पुलिस के भीतर असली और नकली दोनों तरह के लाईजनर पल रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ को विभाग संरक्षण देता है और कुछ अपनी सीमाएं लांघने पर पकड़ लिए जाते हैं।
छत्तीसगढ़ जैसे खनिज और वन संपदा से समृद्ध राज्य में भ्रष्टाचार की संभावनाएं अनगिनत हैं। 2014 के बाद से डीएमएफ (डिस्ट्रिक्ट मिनरल फंड) अफसरों और सप्लायरों के लिए एक भ्रष्टाचार अभयारण्य बन चुका है।
ईडी की जांच के अनुसार डीएमएफ घोटाला 6350 करोड़ रुपये तक जा पहुँचा। इसमें अफसरों और लाईजनरों के बीच बँटी-बंधाई हिस्सेदारी थी। बीज निगम के जरिए की गई खरीदी में 60 प्रतिशत तक कमीशन लिया गया। कलेक्टर को 40 प्रतिशत, सीईओ को 5 प्रतिशत, एसडीओ को 3त्न और सब-इंजीनियर को 2.5 प्रतिशत हिस्सा मिलता था। यही नहीं, नियमों में ऐसे बदलाव किए गए जिनसे मटेरियल सप्लाई, कृषि उपकरण और मेडिकल उपकरणों की खरीदी में भरपूर कमीशन निकाला जा सके।
यह सिर्फ एक विभाग की कहानी है। हर जिले और हर योजना में ऐसे नए प्रावधान ढूँढ लिए गए हैं जो विकास की बजाय कमीशनखोरी को बढ़ावा देते हैं। यहाँ भी भूमिका मुखबिर की नहीं, बल्कि लाईजनर की होती है। वही तय करता है कि किस सप्लायर को काम मिलेगा, किस अफसर को कितने प्रतिशत में हिस्सा मिलेगा। सरकार भले ही पेपरलेस दफ्तरों का दावा करती हो, लेकिन असलियत यह है कि गांधीजी की तस्वीर वाले नोट के बिना कोई फाइल आगे नहीं बढ़ती। कंप्यूटर और लैपटॉप का कर्सर भी इशारे के बिना नहीं चलता।
राजस्व, परिवहन और आबकारी विभागों में तो लाईजनरों का पूरा नेटवर्क बना हुआ है। पटवारी से लेकर एसडीएम, कलेक्टर, एसपी और आईजी तक, हर अधिकारी के अपने-अपने प्राइवेट आदमी हैं। ये लोग वसूली से लेकर अय्याशी तक का इंतजाम करते हैं। परिवहन विभाग में चेकपोस्ट और फ्लाइंग स्क्वॉर्ड से लेकर आबकारी विभाग में प्लेसमेंट एजेंसी तक, हर जगह ऐसे दलाल मिल जाएंगे।
ये लोग न सिर्फ अधिकारियों की मदद करते हैं, बल्कि खुद भी इसे साइड बिजनेस मानकर मोटी कमाई करते हैं। इसमें व्यापारी, उद्योगपति और नेता तक शामिल हैं।
विष्णुदेव साय की सरकार खुद को सुशासन और जीरो टॉलरेंस वाली सरकार कहती है। कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार पर सारे घोटालों का ठीकरा फोडऩा आसान है, लेकिन भाजपा की सरकार को भी दो साल पूरे हो चुके हैं।
हकीकत यह है कि जल जीवन मिशन, लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण से जुड़ी योजनाएं, खनिज और वन विभाग की खरीदी—हर जगह भ्रष्टाचार की खबरें अब भी सुर्खियों में हैं। कमीशनखोरी का खेल रुका नहीं है, बल्कि सिर्फ खिलाडिय़ों के चेहरे बदले हैं।
मुखबिर कभी पुलिस का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन अब पूरा तंत्र लाईजनरों के इर्द-गिर्द घूम रहा है। मुखबिर सूचना देता था, जबकि लाईजनर सूचना के साथ सौदा भी करता है। यही फर्क है पुराने और नए सिस्टम में।
छत्तीसगढ़ की मौजूदा हकीकत यही है कि विकास योजनाएं, खनिज फंड, पुलिसिंग या प्रशासन—सब जगह सत्ता और तंत्र की धुरी मुखबिरों से खिसककर लाईजनरों पर टिक गई है। सरकार अगर सचमुच सुशासन चाहती है तो उसे यह तय करना होगा कि वह मुखबिरों का सिस्टम बहाल करेगी या फिर लाईजनरों का राज ही नया मॉडल बनकर कायम रहेगा।