अगले बरस आने की कामना के साथ गणेशजी की विदाई

पुढच्या वर्षी लवकर या यानी अगले वर्ष जल्दी आना—गणेश विसर्जन के अवसर पर गूंजने वाला यह नारा अब केवल महाराष्ट्र तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पूरे देश में अपनी पहचान बना चुका है। यह नारा बताता है कि गणेशोत्सव केवल धार्मिक पर्व नहीं रहा, बल्कि भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक जीवनधारा का हिस्सा बन चुका है।

गणेशोत्सव मूलत: घरों तक सीमित उत्सव था। किंतु 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसे सार्वजनिक स्वरूप दिया और इसे स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ दिया। तिलक ने महसूस किया कि धार्मिक आस्था के इस साझा मंच के जरिए समाज को ब्रिटिश शासन के खिलाफ जागरूक और संगठित किया जा सकता है। तब से यह पर्व केवल पूजा का आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना का माध्यम बन गया।

आज गणेशोत्सव का स्वरूप और भी व्यापक हो चुका है। पहले जहाँ मोहल्लों की समितियां आपसी सहयोग से प्रतिमाएं स्थापित करती थीं, वहीं अब कॉरपोरेट, व्यवसायिक समूह, राजनेता और संगठन इसके आयोजक बन गए हैं। बड़े-बड़े पंडालों में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाटक, लोककला और आधुनिक मनोरंजन गतिविधियाँ भी शामिल हो गई हैं। रायपुर, भिलाई, बिलासपुर और दुर्ग जैसे शहरों में नौ दिनों तक न केवल धार्मिक भक्ति का रंग छाया रहता है, बल्कि कालोनियों और कैंपसों में हाऊजी-तंबोला, फैंसी ड्रेस और नृत्य-गायन जैसी प्रतियोगिताएँ भी उत्सवधर्मिता का नया आयाम रचती हैं।

हालांकि इस बदलाव के साथ विवाद भी जुड़े हैं। रायपुर में हाल ही में एक फिल्मी गाने पर पंडाल में हुए डांस को लेकर धार्मिक संगठनों ने आपत्ति दर्ज कराई। यह घटना दिखाती है कि आधुनिक मनोरंजन और पारंपरिक धार्मिक मर्यादा के बीच संतुलन साधने की चुनौती आज भी बनी हुई है।

गणेशोत्सव का एक बड़ा पहलू इसकी अर्थव्यवस्था से भी जुड़ा है। देशभर में मूर्ति निर्माण, सजावट, मिठाई-खानपान, बिजली-रोशनी और परिवहन से हजारों करोड़ रुपये का कारोबार होता है। छत्तीसगढ़ में भी यह पर्व स्थानीय कारीगरों और व्यापारियों की आजीविका का अहम आधार है। रायपुर शहर में ही हर साल 15,000 से अधिक प्रतिमाएं स्थापित होती है, जबकि बिलासपुर में 300 से ज्यादा सार्वजनिक पंडाल लगते हैं। रायपुर का चंद्रयान थीम वाला पंडाल, जिसकी ऊँचाई 120 फीट और चौड़ाई 70 फीट है, लगभग ?10 लाख की लागत से तैयार किया गया। वहीं गोलबाजार गणेशजी को 750 ग्राम सोने का मुकुट, जिसकी कीमत लगभग 70 लाख आँकी जाती है, पहनाया गया।

यह सब दर्शाता है कि गणेशोत्सव अब केवल आस्था ही नहीं, बल्कि भव्यता और आर्थिक गतिविधियों का भी बड़ा केंद्र है। लेकिन इस उत्सव के साथ पर्यावरणीय चुनौतियाँ भी जुड़ी हैं। प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों का विसर्जन नदियों और तालाबों को प्रदूषित करता है। रायपुर में ध्वनि प्रदूषण का स्तर कई बार 70 डीबीए से ऊपर दर्ज किया गया है। इसी वजह से अब पर्यावरण-अनुकूल मिट्टी की मूर्तियों और कृत्रिम तालाबों की पहल को प्रोत्साहन मिल रहा है। नागरिक संगठन और प्रशासन, एनजीटी के निर्देशों के तहत, पंडाल निर्माण और ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण की कोशिश कर रहे हैं।

डिजिटल युग ने भी गणेशोत्सव को नया स्वरूप दिया है। अब पंडालों की लाइव स्ट्रीमिंग, ऑनलाइन दर्शन और वर्चुअल आरती के जरिए देश-विदेश में बसे लोग भी इस उत्सव से जुड़ पाते हैं। सोशल मीडिया पर पंडालों की भव्यता और गणेश प्रतिमाओं की तस्वीरें साझा करना लोगों के लिए गौरव और उत्साह का विषय बन गया है। यदि क्षेत्रीय विविधता की बात करें तो मुंबई में लालबाग का राजा, पुणे का दगडूशेठ हलवाई गणपति, हैदराबाद का खैरताबाद गणेश, गोवा के पारंपरिक गोवई पंडाल और अहमदाबाद का शाहपुर का राजा विशेष प्रसिद्ध हैं। इसी क्रम में रायपुर और बिलासपुर जैसे छत्तीसगढ़ी शहर भी अपनी भव्यता और अनूठी थीम वाले पंडालों के कारण राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपनी पहचान बना रहे हैं। स्पष्ट है कि गणेशोत्सव आज भारतीय समाज में केवल धार्मिक आस्था का पर्व नहीं है। यह सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक चेतना और आर्थिक गतिविधियों का भी प्रतीक बन चुका है। बदलते समय में यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि परंपरा और आधुनिकता का संतुलन बनाए रखते हुए हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को और मजबूत बना सकते हैं। गणेशोत्सव की यही सबसे बड़ी शक्ति है—आस्था से उत्सवधर्मिता और उत्सवधर्मिता से सामाजिक एकता की ओर बढऩा।

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