सत्तासीनों की धार्मिक , साम्प्रदायिक आयोजनों में हिस्सेदारी

सत्तासीनों की धार्मिक , साम्प्रदायिक आयोजनों में हिस्सेदारी

इस समय साधु संतों, पंडे-पंडितों से ज्यादा धर्म की ध्वजा उठाये राजनीतिक लोग दिखते हैं। हमारे संवैधानिक मूल अधिकारों में हमारी धार्मिक स्वतंत्रता का भी अधिकार है किन्तु पूजा पाठ, ईश्वर की आराधना व्यक्ति की अपनी निजता है। सदियों से धार्मिक प्रदर्शनों, आडंबरों को लेकर हमारे सत्पुरुषों ने आलोचना की है किन्तु यह कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, जातिगत त्यौहारों में इस समय जिस तरह से प्रदर्शन हो रहा है वह देखते ही बनता है।
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को अपनी मूल विशेषता मानता है, जिसका अर्थ है कि राज्य को सभी धर्मों के प्रति तटस्थ और समान व्यवहार करना चाहिए। जब सरकार धर्म विशेष को लेकर अपनी धार्मिक आस्थाओं को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करती है, धार्मिक आयोजनों में सक्रिय रूप से भाग लेती है, और धर्मगुरुओं के साथ निकटता दिखाती है, तो यह संविधान की इस मूल भावना के साथ संघर्ष कर सकता है।

संविधान सभी व्यक्तियों को अपने धर्म का पालन करने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, बशर्ते यह सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के खिलाफ न हो। अनुच्छेद 27 का प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति ऐसे करों को देने के लिए बाध्य नहीं होगा, जो किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विशेष रूप से विनियोजित है। सरकार का कर्तव्य है कि वह सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहे और किसी विशेष धर्म का पक्ष न ले। यदि सरकार अपनी धार्मिक आस्थाओं को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करती है या धार्मिक आयोजनों में सक्रिय रूप से भाग लेती है, तो यह संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना के खिलाफ हो सकता है।

तमाम विवादों के बावजूद इस समय संविधानिक धर्मनिरपेक्षता की दो विशेषताएँ हैं। पहला सभी धर्मों के लिए सम्मान। राज्य को सभी धर्मों के प्रति सम्मानपूर्ण दृष्टिकोण रखना चाहिए। दूसरा सैद्धांतिक दूरी। राज्य को किसी भी धर्म से सैद्धांतिक दूरी बनाए रखनी चाहिए, अर्थात् किसी विशेष धर्म का पक्ष नहीं लेना चाहिए। सरकार को अपनी धार्मिक आस्थाओं को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने से बचना चाहिए और सभी धर्मों के प्रति तटस्थता बनाए रखनी चाहिए। यह संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुरूप होगा और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करेगा।

भारत में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत संविधान में निहित है, जो राज्य को सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहने की अपेक्षा करता है। जब सत्ताधारी नेता धार्मिक गुरुओं, प्रवचनकारों, साधु-संतों के साथ मंच साझा करते हैं, उनके अवैज्ञानिक वक्तव्यों को चुपचाप सुनते हैं, और दूसरे धर्मों की आलोचना पर मौन रहते हैं, तो यह संविधान की इस मूल भावना के खिलाफ हो सकता है।
राजस्थान में शिक्षा का सांप्रदायिकीकरण किया गया। राजस्थान सरकार ने शिक्षा में धार्मिक तत्वों को शामिल करने की कोशिश की, जिससे वैज्ञानिक चिंतन की भावना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। कुछ मामलों में, सरकार ने पर्यावरणीय चिंताओं के बावजूद धार्मिक आयोजनों में सक्रिय भाग लिया, जिससे धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठे।

पूर्व और वर्तमान सत्ताधारी नेताओं के आचरण में धर्म और उससे जुड़े आयोजनों को लेकर काफ़ी अंतर दिखाई देता है। पूर्व के नेता धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक थे। उन्होंने सभी धर्मों के प्रति सम्मान दिखाया और किसी विशेष धर्म का पक्ष नहीं लिया। वर्तमान के कुछ नेता धार्मिक आयोजनों में सक्रिय भाग लेते हैं, धार्मिक नेताओं के साथ मंच साझा करते हैं, और कभी-कभी दूसरे धर्मों की आलोचना पर मौन रहते हैं, जिससे धर्मनिरपेक्षता की भावना पर प्रश्न उठते हैं। सत्ताधारी नेताओं को संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना का पालन करते हुए सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहना चाहिए। धार्मिक आयोजनों में भाग लेने या धार्मिक नेताओं के साथ मंच साझा करने से बचना चाहिए, ताकि समाज में समरसता बनी रहे और संविधान की मूल भावना की रक्षा हो सके।

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