Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – बिना रीढ़ का सरकारी तंत्र

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से - बिना रीढ़ का सरकारी तंत्र

-सुभाष मिश्र

जब सरकारी तंत्र कहा जाता है तो इसका आशय उस पूरी सरकारी व्यवस्था से है जो शासन-प्रशासन चलाने में काम आती है। इस तंत्र में वे सब लोग हैं जो राजकोषीय मद से वेतन, भत्ते, मानदेय, पेंशन और सुविधाएं लेते हैं, वे चाहे सरकारी अफ़सर, कर्मचारी, अधिकारी, जज, तमाम आयोगों के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सदस्य, निर्वाचित नेता, मंत्री या निकायों के पदाधिकारी ही क्यों ना हों, वे सरकारी तंत्र से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं। इन सबका मिला-जुला रूप ही सरकारी तंत्र है। अधिकांश लोगों का जीवन सार यही है-जैसी चले बयार पीठ को तैसी कीजिए।
आजादी के बाद का समय ऐसा था जब राजनीतिज्ञ उच्च डिग्रियों के साथ बड़े कॉलेजों से पढ़े थे। उनके ज्ञान और उनकी ईमानदारी से अफसर डरते थे। समाज से तब के राजनीतिज्ञों का गहरा संबंध था और समाज की जरूरत, कमी और कमजोरी को समझते थे। देश-दुनिया की जानकारी रखते थे और शैक्षणिक ज्ञान और व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर शासन-प्रशासन में दक्ष थे। तब राजनीतिज्ञ ही सरकार चलाते थे। फिर ऐसा दौर आया जब मध्य वर्ग और निम्न वर्ग के सामान्य पढ़े-लिखे या बिल्कुल अनपढ़ कुछ लोग भी राजनीति में दाखिल होने लगे बल्कि मंत्री तक बनने लगे। जो पढ़े-लिखे थे उनमें से अधिकांश व्यावहारिकता और ज्ञान के स्तर पर शून्य थे। तब यह बात ज्यादा स्पष्ट होने लगी थी कि डिग्री या शिक्षा का ज्ञान से सीधे-सीधे कोई संबंध नहीं है। इस तरह की हवा अभी भी चल रही है और इसका परिणाम यह हुआ कि अफसरों का शासन में दखल बढऩे लगा। वो मंत्रियों को सलाह देने के नाम पर परोक्ष में खुद शासन करने लगे। इस मुहावरे को यहीं से ज्यादा लोकप्रियता मिली कि असली शासन तो आईएएस और आईपीएस चला रहे हैं। अफसर ज्यादा प्रभावशाली और ताकतवर होने लगे। प्रशासन में बाबुओं का भी एक ऐसा वर्ग होता है जिन्हें लगता है कि अफसर तो नाम के हैं, असली प्रशासन तो हम चलाते हैं। आज के समय में स्थिति थोड़ी और बदल गई है। आज की राजनीति में कुछ नेता ज्यादा जिद्दी, दंभी और भ्रष्ट भी होने लगे हैं। अफसर की सलाह मानने-सुनने की अपेक्षा अपनी जिद को अफसर पर और कर्मचारियों पर थोपते हैं अन्यथा तबादले की तलवार तो अफसर और कर्मचारियों पर लटकी ही है। भ्रष्ट अफसरों को धमकाने और अपने लोगों को ठेके या लाइसेंस दिलाने के लिए अफसरों पर दबाव बढऩे लगा है। तबादले या निलंबन के डर से अफसर न केवल नेताओं की बात मानने लगे हैं बल्कि झुकने लगे हैं। कुछ तो इतना ज्यादा झुकने लगे हैं कि चरणों में लोटते हैं। ये हवाओं के विरुद्घ रूख नहीं करते।
जबलपुर हाईकोर्ट ने एक मामले में हमारे देश के ज्युडिशरी सिस्टम पर एक गंभीर टिप्पणी की है। ये टिप्पणी समूचे सरकारी तंत्र की स्थिति बयां करती है। प्रशासनिक शब्दावली में आरआर और प्रमोटी शब्द का बड़ा चलन है। जो लोग यूपीएससी से सीधे सिलेक्ड होते हैं वे आरआर और जो राज्य सेवा से प्रमोट होकर आईएएस,आईपीएस,आईएफएस बनते हैं उनकी अपने कॉडर में दोयम दर्जे की स्थिति होती है। ये बात आफिस तक होती तो भी ठीक थी अब इनकी परिवार की भी ये शब्दावली है। राजनीतिज्ञ भी इस बात को समझते हैं और ऐसे अफसरों से दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं। आर आर के लिए प्रमोटी शब्द ना हुआ कोई दुत्कार या अपमान हो गया। हाईकोर्ट जजों की पीठ ने कहा है कि हाई कोर्ट व जिला कोर्ट के बीच का रिश्ता सामंती सोच का है जिसमें हाईकोर्ट एक सवर्ण और लोअर कोर्ट के जजों को शूद्र समझा जाता है।
मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने एक फैसले में उच्च न्यायालय और जिला न्यायपालिका के रिश्तों को लेकर तीखी टिप्पणी की है। यह टिप्पणी जस्टिस अतुल श्रीधरन और जस्टिस दिनेश कुमार पालीवाल की बेंच ने की। बेंच व्यापमं केस से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिका भोपाल के पूर्व एससी-एसटी कोर्ट जज जगत मोहन चतुर्वेदी ने लगाई थी। उन्हें एक आरोपी को अग्रिम जमानत देने के बाद बर्खास्त किया गया था। हाईकोर्ट का यह अब्जरवेशन बहुत ही सोचने लायक़ है जिसमें कहा गया है कि हाईकोर्ट के जजों से जिला जज ऐसे मिलते हैं जैसे रीढ़हीन स्तनधारी हो। जब जिला कोर्ट के जज हाईकोर्ट के जजों से मिलते हैं तो उनकी शारीरिक भाषा ऐसी होती है जैसे कोई रीढ़विहीन स्तनधारी गिड़गिड़ा रहा हो। रेलवे स्टेशन पर स्वागत करना,जलपान कराना आम बात हो गई है। हाई कोर्ट की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्त जजों को शायद ही कभी बैठने को कहा जाता है।
मैं लंबे समय तक जजों की कालोनी में उनका पड़ोसी रहा है। एक जज के घर में पारिवारिक समारोह में डिनर का समय हो गया था लेकिन कोई भी जूनियर जज प्लेट नहीं उठा रहा था, मैंने कहा चलो खाना लेते हैं तो दो जजों ने कहा पहले डीजे साहब खाना शुरू करें फिर ले लेंगे। मुझे यह बात नागवार गुजऱी। मैंने बाद में इसकी पड़ताल की तो मालूम पड़ा कि बिलासपुर हाईकोर्ट के जज जब रायपुर आते हैं तो उन्हें रिसीव करने और सी ऑफ रायपुर जिले की बॉर्डर पर आते जाते हैं। यहां तक कि उनकी पारिवारिक यात्रा को भी मैनेज करते हैं। जिस भी जज ने इसमें थोड़ी बहुत लेटलतीफ़ी या चूक की है वह माईलॉड लोगों के कोपभाजन का शिकार हुआ है।
यही वजह है कि हाईकोर्ट के कुछ संवेदनशील जजों को यह बात नागवार लगी और उन्हें यह कहना पड़ा कि यह रिश्ता सम्मान का नहीं, बल्कि डर और हीनता पर आधारित है। यह मानसिकता इतनी गहरी है कि असर न्यायिक फैसलों में भी दिखता है। कई बार योग्य मामलों में जमानत नहीं दी जाती या सबूतों के अभाव में दोषसिद्धि हो जाती है। सिर्फ इसलिए कि आदेश ‘गलत’ न मान लिया जाए। राज्य की न्याय प्रणाली की असली तस्वीर जिला कोर्ट की स्वतंत्रता से दिखती है, न कि केवल हाई कोर्ट से। लेकिन जब हाई कोर्ट बार-बार छोटी-छोटी बातों पर सख्त रवैया अपनाता है, तो जिला जज डर जाते हैं। परिवार, नौकरी और प्रतिष्ठा के डर से वे न्याय नहीं कर पाते, बस दिखावा करते हैं।
जिस प्रकरण में यह टिप्पणी की गई उस प्रकरण में कोर्ट ने आदेश देते हुए माना कि याचिकाकर्ता जज को सिर्फ अलग सोचने और काम करने के कारण दंडित किया गया। हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि उन्हें सेवा समाप्ति की तारीख से सेवानिवृत्ति तक का बकाया वेतन 7 फीसदी ब्याज सहित दिया जाए।
ब्यूरोक्रेसी में जिनसे आपके संबंध बन गये वे अच्छे से पेश आते हैं पर ज्युडिशरी में ऐसा नहीं है। ज्युडिशरी में ऐसा कम ही होता है की सीनियर जूनियर के यहां चला जाये। डिप्टी कलेक्टर या डीएसपी से प्रमोट अफ़सर ब्यूरोक्रेसी के मकडज़ाल में फंसकर बहुत बार ये भी भूल जाते हैं की, उनके पास एक रीढ़ की हड्डी भी है। कुछ लोग केंचुए की तरह लिजलिजे होते हैं और कुछ दो नाक वाले। यह भी सच है कि जो अपने से बड़ों से प्रताडि़त, अपमानित होता वह अवसर मिलने पर अपने से नीचे के, कमजोर आदमी पर रौब गाँठता है। रैगिंग की पूरी प्रणाली इस पर आधारित है। हमारी रैगिंग सीनियर ने की है अब हम सीनियर हैं तो हम रैगिंग लेंगे।
दरअसल, अंग्रेजों के समय में कलेक्टर या पुलिस कप्तान यानी आजकल जिसे एसपी कहा जाता है, का मुख्य काम लगान वसूलना, राजस्व में कमी नहीं आने देना और क्रांतिकारी और विरोध करने वालों को दमनपूर्वक दबाना होता था। वो किसी की नहीं सुनते थे। रौब-दाब, गुस्सा और प्रताडि़त करना एक तरह से उनकी ड्यूटी का हिस्सा होता था और उनके अफसर इसे उनके काबिलियत मानते थे क्योंकि वह ज्यादा लगान वसूल करके देते थे। विरोध दबाते थे। क्रांतिकारियों को पकड़ते थे या मार देते थे। यही काम अंग्रेजी हुकूमत में जजों का भी था। क्रांतिकारियों को कड़ी-से-कड़ी सजा देना। मातहतों को डराना-धमकाना, प्रशासन में सख्ती दिखाना और इसके लिए वे आमजन और मातहतों के साथ अमानवीय बर्ताव भी करते थे। यह सब उनके काम का हिस्सा होता था। आजादी के बाद बहुत सारी चीज़ें बदली लेकिन अफसरी करने की है शैली अंग्रेज भारतीय अफसरों को सौंप गए और जिसमें उन्हें आज भी आनंद आता है। अधीनस्थों को डांटना-डपटना, आमजन के साथ बुरा बर्ताव करना अंग्रेजों से यह उन्हें विरासत में मिला और ये इसे अफसरी का अनिवार्य हिस्सा मानते हैं। आजादी मिल गई लेकिन भारतीय प्रशासन में सामंती व्यवस्था और अंग्रेजी व्यवस्था आज भी घुली-मिली है।
सामंतशाही की मानसिकता लोकतंत्र के आधार स्तंभों में व्याप्त है और सबसे ज्यादा सामंतशाही राजतंत्र में, राजनीतिक पार्टियों में है। जवाहरलाल नेहरू के समय उनके बहुत से सहयोगी उन्हें जवाहर या पंडित कहकर संबोधित करते हुए खुलेआम अपनी असहमति दर्ज कराते थे किन्तु कालांतर में असहमति का कोई स्थान नहीं रहा और तो और नाम लेकर बुलाना तो दूर आप सामने आकर ढंग से बातचीत नहीं कर सकते, नमस्ते नहीं कर सकते। सभी राजनीतिक दलों के सुप्रीमो वनमैन आर्मी की तरह हैं, जहां उनके कुछ खास सिपहसलार को एंट्री है।
लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा के अध्यक्षों का सम्मान था, प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक उनसे सम्मान से पेश आते, लोकाचार में नहीं मन से उनका सम्मान करते थे लेकिन अब वैसी स्थिति नहीं है। यहां तो राज्यसभा हो या लोकसभा या विधानसभा सब जगह रबर स्टाम्प की ज़रूरत है, जो अपने मन, विवेक से निर्णय लेने की कोशिश करें तो उससे जबरन इस्तीफ़ा ले लिया जाता है। न्यायपालिका और कार्यपालिका भी सामंत़शाही की इस बीमारी से अछूती नहीं है। मीडिया जिसे लोकतंत्र में चौथा स्तंभ कहा जाता है, जहां कभी संपादक नामक संस्था बहुत सम्माननीय और निर्णायक होती थी, अब उसका स्थान मैनेजमेंट और मालिकों ने ले लिया है। यहां भी सामंतवादी मानसिकता फल-फूल रही है।

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