-सुभाष मिश्र
बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, राज्य का सियासी पारा चढ़ता जा रहा है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिवान दौरे ने इस माहौल को और तीखा कर दिया है, खासकर जब उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) पर बाबा साहेब अंबेडकर के कथित अपमान का आरोप लगाया।
विवाद की शुरुआत एक तस्वीर से हुई, जिसमें लालू प्रसाद यादव के जन्मदिन समारोह में अंबेडकर की तस्वीर को कथित रूप से अनुचित स्थान पर रखा गया। भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी ने इसे दलित समुदाय के अपमान के रूप में पेश करते हुए आरजेडी को कठघरे में खड़ा किया। मोदी ने कहा कि आरजेडी के लोग बाबा साहेब की तस्वीर को पैरों के पास रखते हैं, जबकि वे स्वयं उन्हें दिल में रखते हैं।
यह बयानबाज़ी केवल प्रतीकात्मक नारों तक सीमित नहीं है, बल्कि दलित वोट बैंक को साधने की गहरी रणनीति का हिस्सा है। बिहार में दलित मतदाता लगभग 16 प्रतिशत है और किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। भाजपा-जदयू गठबंधन इन मतदाताओं को लुभाने के लिए अंबेडकर के सम्मान और विकास कार्यों को सामने रख रहा है। वहीं, आरजेडी इस पूरे विवाद को राजनीतिक नौटंकी करार देकर अपने परंपरागत मुस्लिम-यादव समीकरण को और मजबूत करने की कोशिश में है।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में लालटेन और पंजे के शिकंजे से बचने की बात कहकर कांग्रेस और आरजेडी दोनों पर हमला बोला और साथ ही 10,000 करोड़ रुपये की विकास परियोजनाओं की घोषणा की। इन योजनाओं में वंदे भारत ट्रेन और मोतिहारी की योजनाएं प्रमुख हैं, जिससे शहरी और मध्यम वर्ग को साधने की कोशिश की गई है।
दूसरी ओर तेजस्वी यादव बेरोजगारी, महंगाई और सामाजिक न्याय को केंद्र में रखकर ग्रामीण व हाशिये पर मौजूद वर्गों को साथ लाने में जुटे हैं। उनका नारा, बिहार में अबकी बार, अंबेडकर पर आर-पार, यही दिखाता है कि आरजेडी इस मुद्दे को अपने तरीके से पलटने की रणनीति पर काम कर रही है।
इस बार चुनावी रणभूमि में कुछ नए चेहरे भी हैं, जो समीकरणों को और जटिल बना रहे हैं। जन सुराज पार्टी के साथ प्रशांत किशोर, वर्ग आधारित और विकास-केंद्रित राजनीति का दावा कर रहे हैं। वे नीतीश और लालू के शासन को विफल बताते हुए युवाओं और हाशिए के वर्गों में पकड़ बनाने की कोशिश कर रहे हैं, हालांकि जातीय व स्थानीय प्रभाव की राजनीति में उनका असर सीमित हो सकता है।
नीतीश कुमार, जो अब भी एनडीए के केंद्रीय चेहरे हैं, उनके स्वास्थ्य को लेकर विपक्षी सवाल खड़े कर रहे हैं। हालांकि सार्वजनिक सक्रियता और मंचों से उनकी उपस्थिति यह जताने की कोशिश कर रही है कि वे अब भी पूरी तरह सक्रिय हैं। लेकिन उम्र और थकावट को लेकर उठते सवाल उन्हें रक्षात्मक भी बना सकते हैं। तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का प्रमुख दावेदार माना जा रहा है। वे सामाजिक न्याय, बेरोजगारी और महंगाई को अपने अभियान की धुरी बना रहे हैं लेकिन मुस्लिम वोटों पर प्रशांत किशोर और औवेसी की दावेदारी उनके लिए चुनौती बन सकती है।
जातिगत गणना, जो नीतीश सरकार की एक प्रमुख पहल रही है, चुनाव में एक केंद्रीय मुद्दा बनी हुई है। जहां तेजस्वी इसे सामाजिक न्याय से जोड़ रहे हैं, वहीं भाजपा इसे विकास से जोड़कर पेश कर रही है। यह मुद्दा ग्रामीण इलाकों में विशेष रूप से प्रभावी हो सकता है।
लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के चिराग पासवान ने 243 सीटों पर चुनाव लडऩे का ऐलान किया है, जिससे एनडीए के लिए असहज स्थिति बन सकती है। वहीं, औवेसी की पार्टी सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम वोटों को अपनी ओर खींचने की कोशिश में है, जिससे महागठबंधन को नुकसान पहुंच सकता है।
2020 के विधानसभा चुनावों में एनडीए को 125 और महागठबंधन को 110 सीटें मिली थीं। अब जबकि नए खिलाड़ी मैदान में हैं और पुराने गठबंधनों में भी अंतर्विरोध दिख रहे हैं, बिहार का 2025 का चुनाव बेहद जटिल और बहुकोणीय हो गया है। बिहार का मतदाता जातिगत पहचान और स्थानीय नेता की विश्वसनीयता के आधार पर निर्णय लेता है, लेकिन इस बार भावनात्मक मुद्दों के साथ-साथ विकास, रोजगार और शिक्षा जैसे असली सवाल भी निर्णायक साबित हो सकते हैं। अंबेडकर विवाद ने चुनावी बहस की दिशा तय कर दी है, लेकिन यह मतदाता की प्राथमिकताओं पर निर्भर करेगा कि कौन-से मुद्दे अंतत: निर्णायक बनते हैं।