Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से- जब पड़ोसी बने परेशानी

-सुभाष मिश्र

आदमी जब भी सोचता है तो सबसे पहले अपने पड़ोस के बारे में सोचता है, क्योंकि जब तक पड़ोस अच्छा न हो, चैन से रहना मुश्किल हो जाता है। चाहे वह मोहल्ला हो, कॉलोनी हो या फिर कोई देश। पड़ोस की बेचैनी सीधे हमारे रोज़मर्रा के जीवन को प्रभावित करती है। यही बात देशों पर भी लागू होती है। भारत आज दुनिया के बड़े और प्रभावशाली देशों में गिना जाता है, लेकिन उसके ठीक आसपास का माहौल अगर अशांत हो, अविश्वास से भरा हो और भारत विरोधी गतिविधियों से ग्रस्त हो, तो यह केवल विदेश नीति का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चिंता का विषय बन जाता है।
पिछले कुछ समय से यह साफ़ दिखाई दे रहा है कि भारत के कई पड़ोसी देशों में भारत विरोधी माहौल लगातार गहराता जा रहा है। नेपाल, जो सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक रूप से भारत के सबसे कऱीब माना जाता रहा है, वहां आज भारत को संदेह की निगाह से देखा जा रहा है। जिस नेपाल को हम राम-सीता, जनकपुर और काशी-पशुपतिनाथ की साझा विरासत से जोड़ते हैं, वहीं आज भारतीय नागरिकों और उनकी संपत्तियों को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। वहां की राजनीति में यह स्वर सुनाई देने लगा है कि भारतीय या तो अपनी जमीन छोड़ें या नागरिकता पर पुनर्विचार करें। यह बदलाव अचानक नहीं है। यह उस राजनीति का परिणाम है जो आंतरिक असंतोष और बाहरी प्रभावों के सहारे भारत विरोध को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है।
श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते कभी सहज नहीं रहे। तमिल मुद्दे ने दोनों देशों के संबंधों पर गहरी छाया डाली और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या ने इस रिश्ते को एक दर्दनाक मोड़ दे दिया। हाल के वर्षों में जब श्रीलंका आर्थिक संकट से जूझ रहा था, भारत ने आगे बढ़कर मदद की, लेकिन इसके बावजूद वहां की राजनीति और समाज में भारत के प्रति संदेह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ। संकट के समय मदद स्वीकार करना और संकट गुजरते ही पुराने आरोपों को फिर से हवा देना, यह पड़ोसी देशों की राजनीति का एक जाना-पहचाना तरीका बन चुका है।

सबसे अधिक चिंता बांग्लादेश की स्थिति को लेकर है। यह वही बांग्लादेश है, जिसके निर्माण में भारत की निर्णायक भूमिका रही। मुजीबुर्रहमान भारत के निकटतम सहयोगियों में गिने जाते थे। लेकिन आज वहां भारत विरोधी माहौल खुले तौर पर दिखाई दे रहा है। ढाका से लेकर छोटे कस्बों तक भारत के खिलाफ बयानबाज़ी, अफवाहें और हिंसक घटनाएं सामने आ रही हैं। हाल ही में दो अखबारों के दफ्तर जलाए गए, ईशनिंदा के नाम पर एक हिंदू नागरिक की हत्या कर दी गई और अल्पसंख्यकों पर हमलों की खबरें लगातार आ रही हैं। फरवरी में चुनाव कराने का वादा करने वाली कार्यकारी सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या वह निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव करा पाएगी या भारत विरोध एक बार फिर सत्ता संघर्ष का आसान रास्ता बनेगा।
पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों की कहानी तो किसी से छिपी नहीं है। वहां भारत विरोध केवल नीति नहीं, पहचान का हिस्सा बन चुका है। हर आंतरिक विफलता का दोष भारत पर मढ़ देना वहां की राजनीति की पुरानी आदत है। चीन के साथ हाल के दिनों में संबंधों को सुधारने की कोशिशें ज़रूर हो रही हैं, लेकिन सीमा विवाद और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा अभी भी एक बड़ी सच्चाई है। म्यांमार जैसे छोटे पड़ोसी देशों में भी अस्थिरता भारत की सुरक्षा और कूटनीति के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर रही है।
इन तमाम घटनाओं के बीच यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत अपने पड़ोस में वह भरोसा और अपनापन कायम कर पा रहा है, जिसकी एक बड़े देश से अपेक्षा की जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की बढ़ती भूमिका और वै िश्वक सम्मान के बावजूद अगर हमारे आसपास के देश असहज महसूस कर रहे हैं तो यह केवल उनकी समस्या नहीं, हमारी नीति की भी परीक्षा है।
इन हालातों पर देश के भीतर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी शुरू हो चुके हैं। कांग्रेस इसे भारत की विदेश नीति का भटकाव बता रही है और यह सवाल उठा रही है कि पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते सुधारने में सरकार क्यों असफल रही। वहीं भाजपा का तर्क है कि भारत के बढ़ते वैश्विक कद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सक्रिय कूटनीति से कुछ देशों में असुरक्षा की भावना पैदा हुई है, जो भारत विरोध के रूप में सामने आ रही है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का यह बयान कि पाकिस्तान के रास्ते बांग्लादेश में भारत विरोधी गतिविधियों को हवा दी जा रही है, इस बहस को और राजनीतिक रंग देता है। लेकिन इन तमाम बयानों के बीच मूल सवाल जस का तस खड़ा है—क्या भारत अपने पड़ोस में भरोसे का माहौल बनाने में चूक रहा है?
सच्चाई यह है कि आज दुनिया भर में राष्ट्रवाद अपने उभार पर है। हर देश अपनी पहचान, अपने संसाधनों और अपने नागरिकों को केंद्र में रखकर राजनीति कर रहा है। छोटे देशों में यह राष्ट्रवाद अक्सर बड़े पड़ोसी के विरोध में खुद को मजबूत करने की कोशिश करता है। भारत का आकार, उसकी अर्थव्यवस्था और उसकी सैन्य राजनीतिक ताकत कई पड़ोसी देशों में भय और असंतुलन की भावना पैदा करती है। इस भावना का फायदा वहां की राजनीति उठाती है और भारत को एक ऐसे देश के रूप में पेश करती है, जो उनके मामलों में दखल देता है।
इसी बीच चीन ने इस क्षेत्र में बेहद चतुराई से अपनी जगह बनाई है। आर्थिक निवेश, बुनियादी ढांचा परियोजनाएं और त्वरित सहायता के जरिए उसने नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देशों में अपनी पकड़ मजबूत की है। भारत जहां ऐतिहासिक रिश्तों और भावनात्मक जुड़ाव पर भरोसा करता रहा, वहीं चीन ने लेन-देन आधारित कूटनीति से खाली जगह भर दी। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत की नेबरहुड फस्र्ट नीति घोषणाओं तक सीमित दिखने लगी, जबकि जमीनी स्तर पर प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया।
यह भी स्वीकार करना होगा कि पड़ोसी देशों के साथ संबंध केवल सरकारों के बीच समझौतों से नहीं बनते। वहां की जनता के मन में भारत की छवि कैसी है, यह उतना ही महत्वपूर्ण है। जब भारत विरोधी घटनाओं पर हमारी प्रतिक्रिया केवल कूटनीतिक बयान तक सीमित रह जाती है और जनस्तर पर संवाद नहीं होता तो गलतफहमियों को फैलने का मौका मिल जाता है। मीडिया, शिक्षा, संस्कृति और व्यापार जैसे क्षेत्रों में सतत संपर्क ही भरोसे की असली नींव होता है।
भारत आज विश्व मंच पर जिस भूमिका की आकांक्षा कर रहा है—विश्व गुरु की भूमिका—वह केवल वैश्विक सम्मेलनों और अंतरराष्ट्रीय प्रशंसा से पूरी नहीं होगी। विश्व गुरु बनने के लिए पहले पड़ोस का भरोसेमंद मित्र बनना ज़रूरी है। बड़ा देश होने का अर्थ केवल शक्ति प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि छोटे पड़ोसियों की आशंकाओं को समझना और उन्हें दूर करना भी उतना ही आवश्यक होता है। भारत को यह स्वीकार करना होगा कि उसकी हर नीति, हर बयान और हर कदम का असर उसके पड़ोस पर सबसे पहले पड़ता है।
पश्चिम बंगाल में चुनावी माहौल और बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता, इन दोनों के बीच चल रही घटनाएं इस पूरे क्षेत्र को और संवेदनशील बना देती हैं। सीमा के दोनों ओर होने वाली हर छोटी घटना बड़ी राजनीति का हिस्सा बन जाती है। ऐसे समय में संयम, संवाद और संतुलन ही सबसे बड़ा हथियार होते हैं। उग्र बयानबाज़ी चाहे वह सत्ता पक्ष की ओर से हो या विपक्ष की ओर से, स्थिति को बेहतर करने के बजाय और उलझा देती है।
आखिरकार, भारत को यह तय करना होगा कि वह अपने पड़ोस को केवल रणनीतिक चुनौती के रूप में देखेगा या साझे भविष्य के अवसर के रूप में। पड़ोसी देशों की स्थिरता भारत की स्थिरता से जुड़ी है। अगर आसपास अशांति रहेगी तो उसकी आंच हमारे भीतर भी पहुंचेगी। इसलिए विदेश नीति में आत्मविश्वास के साथ-साथ संवेदनशीलता भी उतनी ही जरूरी है।
घर तभी सुरक्षित होता है जब पड़ोस शांत हो। देश भी तभी मजबूत होता है जब उसके पड़ोसी भरोसे में हों। भारत के सामने आज सबसे बड़ी कूटनीतिक चुनौती यही है कि वह अपने वैश्विक कद को बनाए रखते हुए अपने पड़ोस का विश्वास फिर से अर्जित करे। क्योंकि अंतत:, जब पड़ोसी परेशानी बन जाए तो सबसे पहले नींद उसी घर की उड़ती है जो सबसे बड़ा होता है।

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