-सुभाष मिश्र
देश में लोकतंत्र की सबसे मज़बूत नींव मतदाता सूची है। जब वह कमजोर होती है तो पूरा लोकतांत्रिक ढांचा डगमगाने लगता है। चुनाव आयोग ने अब पूरे देश में विशेष गहन पुनरीक्षण-स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) की प्रक्रिया शुरू करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। आयोग के शीर्ष अधिकारियों ने हाल ही में राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारियों से विस्तृत मंथन किया है। इस अभियान का उद्देश्य आगामी चुनावों से पहले मतदाता सूचियों को दुरुस्त करना और उन्हें अधिक सटीक व पारदर्शी बनाना है।
एसआईआर का मकसद पुराने, गलत या दोहराए गए रिकॉर्ड को हटाना और उन नामों की पहचान करना है जो या तो स्थानांतरित हो चुके हैं, मृत हैं या फिर अवैध विदेशी प्रवासियों की श्रेणी में आते हैं। आयोग का कहना है कि यह प्रक्रिया लोकतंत्र की शुचिता के लिए जरूरी है ताकि मतदान सूची में केवल वास्तविक मतदाता ही बने रहें। यह भी तय हुआ है कि यह प्रक्रिया चरणबद्ध तरीके से चलेगी। शुरुआत उन राज्यों से की जाएगी जहां 2026 में विधानसभा चुनाव होने हैं जिनमें असम, केरल, पुद्दुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। वहीं जिन राज्यों में स्थानीय निकाय चुनाव चल रहे हैं, वहां यह प्रक्रिया बाद में शुरू होगी ताकि चुनावी मशीनरी पर अतिरिक्त दबाव न पड़े।
बिहार इस दिशा में पहला उदाहरण बन चुका है। वहां हाल ही में मतदाता सूची का पुनरीक्षण पूरा कर लिया गया है और 30 सितंबर को 7.42 करोड़ मतदाताओं की अंतिम सूची जारी हुई है। आयोग के सूत्रों के अनुसार बिहार के अनुभव से मिली सीख को अन्य राज्यों में अपनाया जाएगा। दिल्ली में पिछला गहन पुनरीक्षण 2008 में और उत्तराखंड में 2006 में हुआ था, जबकि अधिकांश राज्यों में यह 2002 से 2004 के बीच हुआ था। अब सभी राज्यों से कहा गया है कि वे अपने पुराने रिकॉर्ड के आधार पर मौजूदा मतदाताओं का मिलान करें।
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार का कहना है कि देशभर में एसआईआर की तैयारी पूरी हो चुकी है और आयोग बहुत जल्द इसकी शुरुआत करेगा। हर चरण को चार महीने के भीतर पूरा करने की योजना है और जून 2026 तक देश की पूरी मतदाता सूची को अद्यतन कर लेने का लक्ष्य है। आयोग का तर्क है कि यह केवल प्रशासनिक काम नहीं बल्कि लोकतंत्र की शुद्धिकरण प्रक्रिया है।
फिर भी इस पूरी प्रक्रिया को लेकर राजनीतिक असहमति बनी हुई है। कांग्रेस और कई विपक्षी दलों ने इसे वोट चोरी अभियान कहा है। ममता बनर्जी का कहना है कि यह लोकतंत्र पर हमला है, जबकि भाजपा और चुनाव आयोग का दावा है कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को अधिक विश्वसनीय बनाने का प्रयास है। विवाद की असली जड़ यही है संस्थागत भरोसे का संकट। जब किसी निष्पक्ष संस्था पर राजनीतिक छाया पडऩे लगती है तो उसके निर्णयों पर भी संदेह खड़ा हो जाता है।
पर सवाल केवल मतदाता सूची की सफाई का नहीं है। यह भी देखना होगा कि जो नाम इस सूची में रह जाते हैं, वे अपने विवेक और जिम्मेदारी के साथ मतदान करते भी हैं या नहीं। हर चुनाव के बाद मतदान प्रतिशत का आंकड़ा यही बताता है कि लोकतंत्र की असली ताकत- यानी भागीदारी-अभी भी अधूरी है। अगर सौ में से केवल साठ लोग ही वोट डाल रहे हैं तो क्या हम सचमुच कह सकते हैं कि यह ‘जनता की सरकारÓ है? लोकतंत्र की आत्मा केवल वोट डालने के अधिकार में नहीं, बल्कि उस अधिकार के प्रयोग में निहित है।
मतदान को लेकर नई सोच की आवश्यकता है। क्या मतदान केवल एक दिन का आयोजन होना चाहिए या इसे अधिक लचीला और सुविधाजनक बनाया जा सकता है? क्या बहु-दिनीय मतदान, चरणबद्ध मतदान या प्रवासी मतदाताओं के लिए आसान व्यवस्था पर विचार नहीं होना चाहिए? क्या हमें इस बात पर भी विमर्श नहीं करना चाहिए कि स्कूलों, दफ्तरों, मीडिया और समाज में मतदान-संस्कृति को कैसे गहराई से विकसित किया जाए ताकि नागरिक अपने वोट को केवल अधिकार नहीं, बल्कि जिम्मेदारी के रूप में समझें?
दरअसल, यह पूरा विमर्श केवल मतदाता सूची की तकनीकी सफाई का नहीं, बल्कि लोकतंत्र के उस आत्मिक स्वास्थ्य का है जिसमें जनता को उसकी असली भूमिका मिले। हमारे लोकतंत्र में जनता जनार्दन को ईश्वर की तरह पूजने का रिवाज तो है पर वही जनता जब मतदान नहीं करती या बेपरवाह रहती है, तो उसकी शक्ति कागज़ पर रह जाती है।
बहुत पहले दुष्यंत कुमार ने लिखा था—
न हो कमीज़ तो पाँव से पेट ढँक लेंगे ये लोग,
कितने मुनासिब हैं इस सफऱ के लिए।।
यह पंक्ति आज भी लोकतंत्र की विडंबना को बेनकाब करती है। जनता, जिसे सबसे बड़ा कहा गया, वही व्यवस्था के सबसे नीचे खड़ी है—संघर्ष करती हुई, उम्मीद लगाए हुए। मतदाता सूची का पुनरीक्षण अगर उस जनता को लोकतंत्र के केंद्र में लाने की शुरुआत बने, तो यह सिर्फ प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मरम्मत की दिशा में एक सच्चा प्रयास कहा जाएगा।