वर्तमान समय में हिमालयी क्षेत्र में ढहते पहाड़ और तटबंध तोड़ती नदियां एक गंभीर पर्यावरणीय संकट का रूप ले चुकी हैं। पिछले कुछ वर्षों से भारत के उत्तरी हिस्सों, विशेषकर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे राज्यों में लैंडस्लाइड्स, फ्लैश फ्लड्स और ग्लेशियल लेक आउटबस्र्ट फ्लड्स (जीएलओएफ) की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। ये घटनाएं न केवल जान-माल की भारी क्षति का कारण बन रही हैं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित कर रही हैं। हाल ही में 5 अगस्त 2025 को उत्तराखंड के धाराली गांव में एक फ्लैश फ्लड ने पांच लोगों की जान ली और 100 से अधिक लोग लापता हो गए, जब भारी वर्षा के कारण नदी ने अपने तटबंध तोड़ दिए। इसी तरह 2023 में हिमाचल प्रदेश में मॉनसून की भारी बारिश से हुए लैंडस्लाइड्स और बाढ़ ने 48 लोगों की जान ली और हजारों को बेघर कर दिया। इन घटनाओं की जड़ें जलवायु परिवर्तन, मानवीय हस्तक्षेप और प्राकृतिक कारकों में छिपी हैं, जिनकी गहन पड़ताल आवश्यक है।
प्रमुख घटनाओं पर नजर डालें तो 2013 की केदारनाथ आपदा सबसे विनाशकारी थी, जिसमें 6,000 से अधिक लोग मारे गए थे। क्लाउडबस्र्ट और ग्लेशियर मेल्ट के कारण चोराबाड़ी झील फटी, जिससे मंदाकिनी नदी ने रौद्र रूप धारण कर लिया। 2021 में चमोली जिले की ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में ग्लेशियर टूटने से आई बाढ़ ने 200 से अधिक लोगों की जान ली। मुख्य रूप से टपोवन हाइड्रो प्रोजेक्ट के मजदूरों ने जान गंवाई। 2023 में सिक्किम में ल्होनक झील के फटने से आई जीएलओएफ ने 10 लोगों की जान ली और 2,400 पर्यटकों को फंसा दिया। 2024 में त्रिपुरा और केरल में भी इसी तरह की बाढ़ और लैंडस्लाइड्स ने सैकड़ों लोगों को प्रभावित किया। ये घटनाएं दर्शाती है कि पिछले पाँच वर्षों में हिमालयी क्षेत्र में ऐसी आपदाएं 300 से अधिक मौतों का कारण बनी है, विशेषकर उत्तराखंड में जहां 2021 में 300 से अधिक हताहत हुए।
इन घटनाओं के प्रमुख कारणों की पड़ताल करें तो जलवायु परिवर्तन सबसे ऊपर है। बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे जीएलओएफ की संभावना बढ़ गई है। हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में 54,000 ग्लेशियरों में से कई सिकुड़ रहे हैं जो भविष्य में बाढ़ का खतरा बढ़ा रहे हैं। इसके अलावा भारी वर्षा और क्लाउडबर्स्ट मुख्य ट्रिगर हैं, जो ढलानों की स्थिरता को प्रभावित करते हैं। मानवीय कारक भी कम नहीं हैं। अनियोजित निर्माण, हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स, डिफॉरेस्टेशन और माइनिंग ने मिट्टी की क्षरण को बढ़ावा दिया है। उदाहरणस्वरूप, हिमालय में वनों की कटाई से ढलान अस्थिर हो जाते हैं और भूकंपीय गतिविधियां इसे और खराब करती हैं। नदियों के तटबंध टूटने का कारण अक्सर डैम और बैराज से असंतुलित जल प्रवाह होता है जो मिट्टी को कमजोर करता है। सिक्किम की 2023 घटना में ग्लेशियर झील के फटने का कारण जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ अनियोजित विकास था।
इन आपदाओं से हुए नुकसान की बात करें तो यह बहुआयामी है। पिछले पांच वर्षों में लैंडस्लाइड्स और बाढ़ से हिमालयी क्षेत्र में हजारों करोड़ का आर्थिक नुकसान हुआ है। 2021 चमोली आपदा में इंफ्रास्ट्रक्चर, जैसे पुल और सड़कें पूरी तरह नष्ट हो गए,जिससे पर्यटन और व्यापार ठप हो गया। मानवीय क्षति में मौतों के अलावा, विस्थापन और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं प्रमुख हैं। 2025 की धाराली घटना में 100 लोग लापता हैं, जो परिवारों को स्थायी दर्द दे रही है। दरअसल, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सॉफ्ट सॉइल यानी नरम मिट्टी के पहाड़ हैं जिनमें सुरंग बनाना या बहुत अधिक भारी निर्माण करना जोखिम भरा काम है। जंगल कट रहे हैं जिससे पहाड़ों पर पेड़ों की जमीन से पकड़ कम हो रही है। इन क्षेत्रों के अधिकांश पहाड़ ज्यादा उम्र के नहीं हैं इसलिए इनका घनत्व अपेक्षाकृत कम हैं जिससे मामूली से भूकंप या नींव खोदने के लिए या सुरंग के लिए ब्लास्ट करने पर निर्मित संरचनाओं के टूटने का जोखिम बढऩे लगा है।
पर्यावरणीय नुकसान में जैव विविधता की हानि और मिट्टी का क्षरण शामिल है, जो कृषि और जल स्रोतों को प्रभावित करता है। कुल मिलाकर, 2020-2025 के बीच इन घटनाओं से 500 से अधिक मौतें और लाखों का विस्थापन हुआ है। भविष्य की आशंका और भी भयावह है। जलवायु परिवर्तन से वर्षा पैटर्न बदल रहे हैं, जिससे फ्लैश फ्लड्स और लैंडस्लाइड्स की आवृत्ति बढ़ेगी। हिमालय में बढ़ती शहरीकरण और डिफॉरेस्टेशन से जोखिम कई गुना हो जाएगा। विशेषज्ञों के अनुसार यदि उत्सर्जन नहीं रोका गया, तो 2050 तक जीएलओएफ घटनाएँ दोगुनी हो सकती हैं, जो लाखों लोगों को प्रभावित करेगी। भूकंपीय जोखिम वाले क्षेत्र में यह संकट और गहरा सकता है।
बचाव के उपायों पर ध्यान दें तो सबसे पहले सस्टेनेबल डेवलपमेंट जरूरी है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) की नेशनल लैंडस्लाइड रिस्क मिटिगेशन प्रोग्राम (एनएलआरएमपी) के तहत ईवएस (अर्ली वार्निंग सिस्टम) को मजबूत किया जाए। टेक्नोलॉजी जैसे सैटेलाइट मॉनिटरिंग और स्मार्ट बोल्डर्स का उपयोग ढलानों की स्थिरता बनाए रख सकता है। वन संरक्षण, एफोरेस्टेशन और अनियोजित निर्माण पर रोक लगानी होगी। हिंदू कुश हिमालयी डीआरआर हब जैसे पहल से स्थानीय समुदायों को प्रशिक्षित किया जाए। इसके अलावा जलवायु अनुकूलन नीतियाँ अपनाकर, जैसे बायो इंजीनियरिंग और रिवर बेसिन मैनेजमेंट, नुकसान कम किया जा सकता है। सरकार, एनजीओ और स्थानीय लोगों के सहयोग से ही इस संकट से निपटा जा सकता है।
अंत में, ढहते पहाड़ और तटबंध तोड़ती नदियां एक चेतावनी हैं कि हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना होगा। यदि समय रहते उपाय नहीं किए गए तो हिमालयी क्षेत्र का भविष्य और अंधकारमय हो सकता है। आशा है कि नीति-निर्माता इस दिशा में तत्काल कदम उठाएंगे।