6 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट की एक सुनवाई के दौरान जो दृश्य उभरा, उसने न केवल न्यायालयीन गरिमा को हिलाकर रख गया बल्कि हमारे समाज के भीतर चल रहे गहरे तनाव-लकीरों का एक खतरनाक संकेत भी बनकर सामने आया। 71 वर्षीय वकील राकेश किशोर ने अपनी जूती निकालकर चीफ जस्टिस बी.आर. गवई की ओर फेंकने का प्रयास किया। सुरक्षा कर्मियों ने उसे समय पर रोका और सुनवाई बिना बाधा के जारी रही, पर जो संदेश गया वह बहुस्तरीय और परेशान करने वाला था। कई लोगों के लिए यह स्पष्ट रूप से केवल एक व्यक्तिगत उन्माद नहीं था, बल्कि उन नारों और तर्कों का परिणाम था जो पिछले कुछ हफ्तों से सोशल मीडिया और सार्वजनिक बहस में गरमाई हुई थी।
इस घटना के सीधे पीछे खजुराहो के उस मामले का संदर्भ रहा जिसमें सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने एक पीआईएल को खारिज करते हुए कहा कि मूर्ति संरक्षण का मामला एएसआई के दायरे में आता है। कथित रूप से चीफ जस्टिस ने पुनस्र्थापन की मांग करने वाले व्यक्ति से कहा कि अगर वह विष्णु के भक्त हैं तो ‘प्रार्थना करोÓ। यह टिप्पणी कुछ ही समय में सोशल मीडिया पर प्रसारित होकर धार्मिक संवेदनाओं को भड़का चुकी अफवाहों में बदल गई। अदालत ने बाद में स्पष्ट किया कि टिप्पणी का आशय धार्मिक भावनाओं का अपमान नहीं था और सीजेआई ने सभी धर्मों का सम्मान करने का अपना रुख दोहराया, फिर भी इसका प्रभाव व्यापक और तीक्ष्ण रहा।
मुद्दा केवल धार्मिक नाराजग़ी तक सीमित रहना असंभव है क्योंकि गवई साहब का सामाजिक पृष्ठभूमि—वह दलित समुदाय से आते हैं और बौद्ध परंपरा से जुड़े हैं। घटनास्थल की प्रतीकात्मकता को गहरा करती है। जूता फेंकना भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ में एक उच्चतम अपमान का संकेत है। जब लक्ष्य वह व्यक्ति हो जो संवैधानिक समानता का प्रतीक भी है, तब यह कार्य केवल वैयक्तिक आक्रोश नहीं, संभाव्य सामाजिक और जातिगत तनाव का सूचक माना जाना चाहिए। कई कानूनी और सामाजिक विश्लेषकों ने इसी कारण इसे जातिगत तन्त्र के भीतर रचे-बसे पूर्वाग्रहों से प्रेरित हमला बताया है। दलित अधिकार संगठनों ने इस घटना को ऐसे हमलों की एक कड़ी के रूप में देखा है।
दूसरी ओर घटनाक्रम ने यह भी दिखाया कि सोशल मीडिया और सार्वजनिक भावनाओं का मिश्रण किस तरह कार्यात्मक निर्णयों को भावनात्मक आरोपों में बदल सकता है। सॉलिसिटर जनरल और कुछ वरिष्ठ कानूनी हस्तियों ने कहा कि आज हर कार्रवाई का सोशल मीडिया पर अतिरंजित रूप फैलना घटनाओं को भड़काता है। ऐसा करने से परिणामस्वरूप अस्थिरता पैदा होती है। इस तर्क का अर्थ यह नहीं कि किसी के धार्मिक भावनाओं को आघात पहुँचाना अनदेखा किया जाए। परन्तु यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि संवैधानिक संस्थानों पर हिंसा या अपमान के रास्ते न अपनाए जाएं।
प्रधानमंत्री ने घटना की कड़ी निंदा की और चीफ जस्टिस के संयम की प्रशंसा की, बार काउंसिल ने आरोपी वकील के विरुद्ध निलंबन की कार्रवाई की और कई बार एसोसिएशनों ने इसे ‘न्यायिक गरिमा पर हमलाÓ कहा। यह एक पक्ष है जो लोकतंत्र की संस्थागत रक्षा पर ज़ोर देता है। वहीं आलोचक पूछ रहे हैं कि क्या वह सामाजिक संदर्भ जो किसी न्यायाधीश की पहचान को एक लक्ष्य बनाता है, उसे हल्के में लिया जा सकता है। कुछ ने इस बात पर भी आशंका जताई कि यदि लक्ष्य किसी ऊपरी तबके का न्यायाधीश होता तो क्या कार्रवाई का स्वरूप अलग होता। ऐसी चर्चाएं हमें यह याद दिलाती हैं कि संस्थागत सुरक्षा और सामाजिक समानता दोनों को साथ-साथ संभालना आवश्यक है।
यहां पर एक और महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि न्यायपालिका-संबंधी आलोचना और सार्वजनिक बहस की सीमाएं क्या होनी चाहिए? लोकतंत्र में नागरिकों को न्यायालय के निर्णयों पर आलोचना करने का अधिकार है, परंतु वही लोकतंत्र हिंसा और अपमान को रोके बिना टिक नहीं सकता। अगर अदालत के भीतर किसी न्यायाधीश को प्रत्यक्ष रूप से निशाना बनाया जा सकता है, तो यह सिर्फ उस न्यायाधीश की व्यक्तिगत सुरक्षा का प्रश्न नहीं रहता। यह न्यायपालिका की निष्पक्षता, आम नागरिकों के न्याय में भरोसे और संवैधानिक व्यवस्था के समग्र स्वास्थ्य पर असर डालता है। इसी कारण से कानूनी प्रावधानों के तहत कंटेम्प्ट और अन्य आवश्यक कार्रवाइयों का सहारा लेना एक मानक प्रतिक्रिया है पर साथ में सामाजिक संवाद और समझ बढ़ाने के उपाय भी उतने ही ज़रूरी हैं।
इस पूरे प्रकरण से सीख यह निकलती है कि हम एक ऐसी समाजिक स्थिति में हैं जहां तकनीकी फैसलों, संवैधानिक अधिकारों और हस्तक्षेपों को भावनात्मक और जातिगत परतों में तौलकर देखा जा रहा है। इसीलिए आवश्यक है कि मीडिया, प्लेटफॉर्म और सार्वजनिक हस्तियां जिम्मेदार ढंग से संवाद करें, अफवाहों का खनन रोकें और संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को बनाए रखें। साथ ही यह भी जरूरी है कि न्यायपालिका और सुरक्षा तंत्र अपनी सुरक्षा प्रक्रिया की समीक्षा करें ताकि कोर्ट परिसर में ऐसा कोई भी सुरक्षा भंग दोबारा न हो। आखिरकार, अगर सबसे ऊपर बैठे न्यायाधीश की रक्षा नहीं की जा सकती तो सामान्य नागरिकों का भरोसा कैसे कायम रहेगा।
हमारे सामने जो सख्त विकल्प है, वे सरल हैं। पारदर्शी और निष्पक्ष जांच, सोशल मीडिया पर जिम्मेदार रिपोर्टिंग, अनुशासनात्मक और कानूनी कार्रवाई जहां आवश्यक हो और समाज में संवैधानिक चेतना का सतत संवर्धन न केवल इस घटना की कड़ी और निष्पक्ष जांच होनी चाहिए, बल्कि उसे एक अवसर के रूप में भी लेना चाहिए ताकि हम यह तय कर सकें कि धार्मिक संवेदनशीलता का सम्मान और न्यायिक स्वतंत्रता—दोनों को कैसे साथ-साथ सुरक्षित रखा जाए। यदि हम इसे केवल एक ‘जूता फेंकनेÓ के मामूली कृत्य का रूप देकर टाल देंगे तो हमें कल किसी और मंच पर उसी प्रकार की बेपरवाही की कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसलिए आज कठोर सच का सामना कर समाज में शांति और समानता बहाल करनी होगी जो हमारे संविधान का मूल उद्देश्य है।
क्या यह जातिगत मानसिकता का हमला है?

09
Oct