-सुभाष मिश्र
ऐसे समय जब होली और जुम्मा के नाम पर देश में तनाव पैदा करने की कोशिशे हो रही है तब हमें समझना पड़ेगा कि होली का त्यौहार रंगों और उल्लास का प्रतीक है। पुरानी दुश्मनियों को भुलाकर लोग गले मिलते हैं। सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को मजबूत करता है। विभिन्न जातियों, धर्मों और समुदायों को आपस में जोडऩे का काम करता है। होली सिर्फ एक त्यौहार नहीं, बल्कि रंगों, प्रेम, भाईचारे और आनंद का उत्सव है। यह हमें सिखाती है कि जीवन में हर रंग की अहमितयत होती है और बुराई पर हमेशा अच्छाई की जीत होती है। कुछ नेताओं के बयान होली के रंग को बदरंग करना चाहते हैं। 64 साल बाद ऐसा संयोग आया है जब जुम्मा और होली एक साथ पड़े हैं। बिहार में चुनाव है इसलिए वहां नेतागण तनाव पैदा करने के हरसंभव प्रयास कर रगे है। इसके जरिए देश की राजनीति को एक अलग ही रंग में रंगने की कोशिशें जारी है। कोई दो बजे तक होली खेलने की बात कह रहा है तो कई जुम्मे की नमाज घर में ही अदा करने की सलाह दे रहें है। हमेशा की तरह जबर्दस्ती रंग न लगाएं और कोई अगर खुशी और भूल चूक से रंग लगा भी दे तो उसका बुरा न माने। नेता, मीडिया मिलकर होली को शांतिपूर्वक मनाने की कोशिशों पर पानी फेरते नजर आ रहे हैं। मस्जिदों को त्रिपाल से ढंकने की कवायद के बीच हिन्दू-मुस्लिम नेताओं की बेहुदा बयान बाजी जारी हैं।
होली भारत का एक प्रमुख और रंगों से भरा हुआ पर्व है, जिसे पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई की जीत, प्रेम और भाईचारे का प्रतीक है। यदि हम होली के धार्मिक और पौराणिक महत्व की बात करें तो लोकमानस में सर्वाधिक कथा प्रह्लाद और होलिका की है। प्रह्लाद, जो भगवान विष्णु के भक्त थे, उन्हें उनके पिता हिरण्यकश्यप ने मारने की कई कोशिशें कीं। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका, जो आग में न जलने का वरदान प्राप्त थी, प्रह्लाद को लेकर आग में बैठी, लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से होलिका जल गई और प्रह्लाद सुरक्षित रहे। तभी से होली बुराई के नाश और भक्ति की विजय का पर्व माना जाता है।
मथुरा और वृंदावन में होली का विशेष महत्व है क्योंकि इसे श्रीकृष्ण और राधा की प्रेम लीलाओं से जोड़ा जाता है। बरसाने की लठमार होली प्रसिद्ध है, जिसमें महिलाएं पुरुषों को रंगों और डंडों से मारती हैं। ब्रज के इलाके, मंदिर, गलियां होली के जिन गीतों पर झूमती और नाचती है, कम ही लोग जानते होगें कि उन गीतों को किसने और कब बनाया। आपको जानकर हैरानी होगी कि कृष्ण और राधा की लीला और होली के रंगों से भरे ये गीत एक मुसलमान शायर की जुबान से निकली है, जिनका नाम है नज़ीर अकबराबादी।
सिर्फ नज़ीर अकबराबादी ही नहीं बल्कि भारत में अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी और रसखान जैसे कई शायर हुए जो हिंदू और मुसलमानों की साझी विरासत यानी गंगा-जमुनी संस्कृति की मिसाल हैं। इन्हीं में एक है नज़ीर अकबराबादी। उर्दू अदब के एक बेहतरीन शायर में नज़ीर अकबराबादी का नाम लिया जाता है। इन्हें सांप्रदायित सौहार्द का उदाहरण माना जाता है। नज़ीर अकबराबादी को आम लोगों का कवि कहा जाता है।
नज़ीर अकबराबादी का नाम वली मुहम्मद और उपनाम ‘नज़ीर’ था। अपने नाम के साथ उन्होंने ‘अकबराबादी’ जोड़ा। कहा जाता है कि उनका जन्म 1735 में बसंत पंचमी के दिन हुआ था और इसलिए इस दिन लोग उनके मजार पर फूल चढ़ाने जाते हैं। नज़ीर ने अपने पसंदीदा त्योहार होली पर भी कई शीर्षक और रंग को लेकर नज्में लिखीं।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली के
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारेंं होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़म शीशए जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की॥
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