Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – छत्तीसगढ़ में ज़मीनी स्तर के चुनावों का शंखनाद

Editor-in-Chief सुभाष मिश्र

-सुभाष मिश्र

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मंशा के अनुरूप वन नेशन-वन इलेक्शन की तजऱ् पर छत्तीसगढ़ में शहरी और ग्रामीण सत्ता के लिए नगरीय निकाय और त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के लिए चुनाव होने जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के इस ज़मीनी स्तर के चुनाव में महिलाओं की अहम भूमिका रहने वाली है जिसकी वजह उनकी संख्या का पुरुषों से ज़्यादा होना है। वैसे भी वर्तमान में पंचायती राज व्यवस्था के लिए तयशुदा आरक्षण पचास प्रतिशत से ज़्यादा पदों पर महिलाएँ क़ाबिज़ हैं। एक ओर जहां नगरीय निकाय के चुनाव दलीय आधार पर पार्टियों के सिम्बल पर लड़े जायेगे वहीं दूसरी ओर पंचायतों के चुनाव ग़ैर दलीय आधार पर होंगे। नगरीय निकाय के चुनावों में ईवीएम मशीन का उपयोग होगा, वहीं पंचायत के चुनाव मतपत्रों के आधार पर होंगे। वर्तमान में अधिकांश नगरीय निकायों में कांग्रेस के लोग कॉबिज हैं, और सत्ता परिवर्तन के साथ वे भी सत्ता यानी भाजपा की ओर जाने लगे हैं। वहीं मुख्यमंत्री विष्णु देव साय जिनके नेतृत्व में यह चुनाव हो रहा हैं वे कह रहे हैं हमीं ने बनाया है, हमीं सँवारेंगे। भूपेश बघेल की सरकार के पहले छत्तीसगढ़ में 15 साल डॉ रमनसिंह के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार थी, जिसने पंचायत प्रतिनिधियों के लिए हमर छत्तीसगढ़ जैसी महत्वाकांक्षी योजना चलाई थी। अब देखना दिलचस्प होगा की शहरीय सत्ता पर कौन क़ाबिज़ होगा। चूँकि पंचायत चुनाव गैरदलीय आधार पर होंगे तो सभी पार्टियां जीतने वालों को अपनी जीत बतायेगी। महापौर के चुनाव में अब पार्षदों की भूमिका ख़त्म हो जायेगी। जनता जिसे चाहेगी उसे चुनेगी।
बहुचर्चित वेब सीरीज़ पंचायत में एक प्रसंग आता है जब थाने में बैठे पुलिस अधिकारी कहते हैं कि गांव में हलचल शुरू हो गई, मतलब की चुनाव आने वाला है। निश्चय ही लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर के विकेंद्रीकरण के परिणाम स्वरूप गठित होने वाले पंचायत जनकल्याण के सशक्त माध्यम के साथ साथ राजनीतिक महत्वाकांक्षो की नर्सरी भी होती है। जहां के पायदान को पार करते हुए मंत्री, विधायक, सांसद जैसे महत्वपूर्ण पद पर पहुंचने की चाह होती है। अभी के सरकार में उपमुख्यमंत्री से लेकर 10 के करीब विधायक पंचायत राज संस्थाओं से ही है, जो इन संस्थाओं के महत्व को और भी गौरवान्वित करते हैं।
चुनाव जितनी छोटी इकाई का होता, उसमें जीत हार भी उतनी ही दिलचस्प और मुक़ाबले की होती है। यहाँ पार्टी से उपर उठकर आपसी सम्बन्ध, सक्रियता और लोकप्रियता मायने रखती है। विवाद भी वैचारिक कम आपसी ज़्यादा होते हैं। ज़मीनी स्तर की सक्रियता और राजनीति से जुड़े वार्ड पार्षद का चुनाव हो या पंच, सरपंच का चुनाव हो। यही चुनाव भविष्य की राजनीति को प्रभावित करते हैं। छत्तीसगढ़ में इस बार महापौर का चुनाव सीधे होगा यानी पार्षद नहीं जनता जिसे चाहेगी वही महापौर बनेगा। 14 में से दस नगर निगम, 53 में से 49नगर पालिका, 122 में से 114 नगर पंचायत के चुनाव के साथ-साथ पंचायती राज व्यवस्था के 1 लाख 75हजार 258 पदों पर चुनाव होगा। सर्वाधिक 160180 पंच और 11672 सरपंच, 2973 जनपद पंचायत सदस्य और 433 जिला पंचायत सदस्य के लिए चुनाव होंगे। छत्तीसगढ़ में पंचायत के 1406 ऐसे मतदान केन्द्र भी हैं जहां वाईफाई कन्टीविटी नहीं है ।
छत्तीसगढ़ में नगरीय और ग्रामीण यानी पंचायती राज व्यवस्था के तहत होने वाले चुनावों का ऐलान हो गया है और आचार संहिता भी लागू हो गई है। महापौर और पार्षद के लिए 11 फऱवरी और त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के लिए 17, 20 और 23 फऱवरी को मतदान होगा। नगरीय निकायों के परिणाम 15 फऱवरी को तथा पंचायती व्यवस्था के तहत मुख्यालय स्तर पर 18 फऱवरी, 21 फऱवरी और 24 फऱवरी को परिणाम घोषित होंगे।
1 नवंबर 2000 को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित छत्तीसगढ़ में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) के आधार पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को लागू की गई। पंचायती राज व्यवस्था के अंर्तगत जो
आरक्षण का प्रावधान है उसके तहत अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाओं के लिए पंचायतों में आरक्षण रखा गया है। छत्तीसगढ़ में महिलाओं के लिए 50फीसदी आरक्षण लागू है। महिलाओं के लिए 50फीसदी आरक्षण के बावजूद, कई बार वे केवल प्रॉक्सी नेताओं की भूमिका में रहती हैं, और वास्तविक सत्ता उनके परिवार के पुरुषों के पास होती है। महिलाओं और आदिवासी समुदायों में नेतृत्व क्षमता बढ़ाने पर जोर दिया जाए। महिलाओं को प्रॉक्सी नेताओं के बजाय सशक्त और स्वतंत्र प्रतिनिधि बनने के लिए प्रेरित किया जाए।
छत्तीसगढ़ में पंचायतों और नगरीय निकायों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण एक विवादास्पद मुद्दा बन गया है। यह विवाद राज्य की राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी व्यवस्था को प्रभावित कर रहा है। यह मुद्दा संविधान के अनुच्छेद 243डी और 243टी के तहत पंचायतों और नगरीय निकायों में आरक्षण से संबंधित प्रावधानों के अंतर्गत पंचायत और नगरीय निकायों में ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाकर 27फीसदी किया।
इससे कुल आरक्षण (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी) का अनुपात 50फीसदी से अधिक हो गया, जो कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सीमा का उल्लंघन है। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने 50फीसदी से अधिक आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया और ओबीसी आरक्षण को समाप्त करने का आदेश दिया। अदालत ने यह भी कहा कि ओबीसी आरक्षण बढ़ाने से पहले सरकार को विस्तृत डेटा संग्रह और अध्ययन करना चाहिए। ओबीसी समुदाय ने जातिगत जनगणना की मांग की ताकि उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण का निर्धारण हो सके। ओबीसी आरक्षण का मुद्दा छत्तीसगढ़ में एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दा बन गया है।
विपक्ष ने सरकार पर जातिगत ध्रुवीकरण और चुनावी लाभ के लिए आरक्षण में छेड़छाड़ का आरोप लगाया। सुप्रीम कोर्ट के 1992 के इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50फीसदी तय की गई थी।
छत्तीसगढ़ में एसटी, एससी और ओबीसी के लिए आरक्षण मिलाकर यह सीमा पार कर गई। ओबीसी जनसंख्या का सटीक डेटा उपलब्ध नहीं है। जातिगत जनगणना की कमी के कारण आरक्षण के लिए आधार तैयार करना मुश्किल हो गया है। उच्च न्यायालय ने यह तर्क दिया कि सरकार बिना ठोस आधार के ओबीसी आरक्षण बढ़ा रही है। अदालत ने राज्य सरकार को ओबीसी आरक्षण का समर्थन करने के लिए मजबूत डेटा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया, लेकिन सरकार ने इसे चुनौती दी।
छत्तीसगढ़ में ओबीसी आरक्षण विवाद ने राजनीतिक, सामाजिक और कानूनी मुद्दों को जन्म दिया है। यह विवाद केवल आरक्षण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समावेशी विकास, सामाजिक न्याय और संवैधानिक प्रावधानों के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता को दर्शाता है। यदि इस मुद्दे को न्यायपूर्ण और पारदर्शी तरीके से सुलझाया जाए, तो यह राज्य के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने को मजबूत कर सकता है।

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