-सुभाष मिश्र
हमारे शासन और प्रशासन तंत्र में तीन शब्द बहुत पहले से चले आ रहे हैं— नजऱाना, शुकराना और जबराना। पहले ये शब्द सामाजिक संबंधों के छोटे-छोटे संकेत थे, लेकिन अब वे भ्रष्टाचार की गहराती हुई जड़ों के प्रतीक बन चुके हैं। कोई व्यक्ति किसी अधिकारी या सत्ता में बैठे व्यक्ति से काम निकलवाने या संबंध बनाए रखने के लिए कुछ मिठाई, फूल या उपहार लेकर जाता था—यह नजऱाना था। जब काम हो जाता था तो उसी अधिकारी का आभार व्यक्त करने के लिए कुछ भेंट दी जाती थी—यह शुकराना था। और अब जो तीसरा रूप सबसे भयावह है, वह है जबराना—यानी बिना रिश्वत दिए काम न होना।
आज हालात यह हैं कि अधिकांश सरकारी दफ्तरों में रिश्वत को एक अनकहा रिवाज़ मान लिया गया है। कोई यह नहीं पूछता कि किसी अफसर या कर्मचारी के पास अकूत संपत्ति कहाँ से आई। उल्टे समाज ऐसे लोगों से प्रभावित होता है, उनके घरों की चकाचौंध देखकर गर्व करता है, और कहता है ‘देखो कितनी तरक्की की है! यह तरक्की नहीं, बल्कि उस सड़े हुए सिस्टम की स्वीकृति है जिसने मेहनत और ईमानदारी को मज़ाक बना दिया है।
प्रधानमंत्री ने जब कहा था कि ‘ना खाऊँगा, ना खाने दूँगा तब लोगों में उम्मीद जगी थी कि शायद अब व्यवस्था साफ होगी। पर दस-ग्यारह साल बाद जनता यह देख रही है कि ऊपर का नारा तो जस का तस है, मगर नीचे पूरा ढांचा सड़ चुका है। डबल इंजन, ट्रिपल इंजन जितने भी इंजन जोड़ दिए जाएँ, गाड़ी वहीं अटकी है। एजेंसियाँ अपनी ‘पाक-साफ छवि पर गर्व करती हैं, लेकिन रिश्वतखोरी की खबरें पहले से ज्यादा आ रही हैं। सवाल यह नहीं कि प्रधानमंत्री रिश्वत लेते हैं या नहीं, सवाल यह है कि सिस्टम उनके ‘ना खाने दूँगा को सुन ही नहीं रहा।
जरा हाल की घटनाएँ देखिए। पंजाब में डीआईजी हरचरण सिंह भुल्लर, जो खुद एक आईपीएस अधिकारी और पूर्व डीजीपी के पुत्र हैं, को सीबीआई ने पाँच लाख की रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़ा। उनके ठिकानों से सात करोड़ नकद, डेढ़ किलो सोना और मर्सिडीज़-ऑडी जैसी लग्जऱी कारों की चाबियाँ बरामद हुईं। यही नहीं, असम में एनएचआईडीसीएल के एक वरिष्ठ अधिकारी रीतेन कुमार सिंह के घर से सीबीआई ने सवा दो करोड़ रुपए नकद, कई लग्जऱी गाडिय़ाँ और दिल्ली-गुवाहाटी-बेंगलुरु में करोड़ों की संपत्तियों के दस्तावेज़ बरामद किए। वहीं छत्तीसगढ़ में भी राजस्व और पुलिस विभाग के अधिकारी हाल ही में कमीशनखोरी और अवैध वसूली के मामलों में पकड़े गए हैं। छत्तीसगढ़ में इप सचिव रही सौम्या चौरसिया की अकूत संपत्ति इसका ज्वलंत उदाहरण है। शासन प्रशासन और राजनीति में इस तरह की लोगों की भरमार है। यह अलग बात है की कुछ लोग सलाखों के पीछे हैं या पकड़े गए हैं। यह सिलसिला थमता नहीं, बल्कि रोज़ नई मिसालें जुड़ती जा रही हैं।
ये घटनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि भ्रष्टाचार अब कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक संरचना बन चुका है, एक संस्कृति या स्वीकृति। और यही सबसे बड़ा ख़तरा है।
आज सरकारी नौकरी का आकर्षण वेतन नहीं, बल्कि ‘ऊपर की कमाई है। राजनीति में भी यही हाल है। पंचायत से लेकर संसद तक, चुनाव अब लोकतंत्र का पर्व नहीं, बल्कि पूँजी का महोत्सव बन गए हैं। करोड़ों रुपए खर्च कर कोई उम्मीदवार जीतता है, तो वह राजनीति को सेवा नहीं, निवेश मानता है और फिर अपने ‘रिटर्न के लिए तंत्र पर दबाव डालता है। नतीजा यह है कि रिश्वत, कमीशन और दलाली की त्रिमूर्ति अब लोकतंत्र के साथ स्थायी सहचर बन चुकी है।
छोटे से छोटा नेता या अधिकारी लग्जऱी गाड़ी में घूमता है, और लोग कहते हैं ‘कितनी किस्मत वाला है! यह किस्मत नहीं, यह कमीशनखोरी की कमाई है। समाज ने अब ईमानदारी को मूर्खता मान लिया है। जो चालाक है, वही सफल है। जो चुप है, वही सुरक्षित है।
हमारे नाटकों में एक पुराना गीत गूंजता था—
दम दम मस्त कलंदर
गोरे हकीम भागे रे भैय्या,
आ गए हकीम काले,
बदल गई है चाबी,
लेकिन बदले नहीं हैं ताले
मैं हूं थानेदार रे भैय्या मैं हूं सूबेदार
पहले एक मूर्गी खाता था अब खाता हूं चार
दम दम मस्त कलंदर।।
आज यही गीत हमारे लोकतंत्र की सच्चाई बयान करता है। अंग्रेज़ चले गए, हमारे अपने लोग आ गए, झंडे और नारे बदल गए, लेकिन ताले वही हैं। भ्रष्टाचार की चाबी बस एक हाथ से दूसरे हाथ में गई है।
कभी-कभार कोई पकड़ा जाता है, कोई डीआईजी, कोई ठेकेदार, कोई इंजीनियर और खबरों में सनसनी मच जाती है। पर जनता जानती है कि ‘जो पकड़ा गया वही चोर है, जो नहीं पकड़ा गया वही सिपाही। यही इस पूरे तंत्र का सबसे बड़ा व्यंग्य है। कानून अब न्याय का नहीं, अवसर का औजार बन चुका है। हमारे समाज की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि भ्रष्टाचार अब अपराध नहीं, संस्कृति बन चुका है। लोग कहते हैं, ‘सिस्टम ऐसा ही हैÓ और यही बात उसे और मजबूत करती है। जब तक हम यह स्वीकार करते रहेंगे कि रिश्वतखोरी अपरिहार्य है, तब तक कोई ‘ना खाने दूँगा सच नहीं बन पाएगा।
अंतत:, यह कविता इस पूरे विमर्श को सटीक रूप में समेटती है —
‘पकड़ो पकड़ो चोर है भाई,
कौन चोर है कौन सिपाही,
कैसे पता चलेगा भाई
जो पकड़ा गया वह चोर है भाई,
और जो नहीं पकड़ आया, वह है सिपाही।
यह कविता केवल व्यंग्य नहीं, बल्कि हमारे विवेक का आईना है। यह हमें याद दिलाती है कि अगर हमने इस सड़ांध को सामान्य मान लिया, तो आने वाली पीढिय़ाँ ईमानदारी शब्द का अर्थ ही भूल जाएँगी।