सरकार चाहे डबल इंजन की हो या ट्रिपल, इंजन की आवाज़ ज़रूर गूंजती है—पर सरकारी गाड़ी फिर भी उसी गति से चलती है, जैसी फाइलें मंत्रालयों की अलमारियों में सरकती हैं। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, अफसर—सभी एक ही पार्टी के क्यों न हों, लेकिन “सिस्टम” का इंजन तो वही पुराना डीज़ल वाला है, जो स्टार्ट होते-होते ही खाँसने लगता है।
छत्तीसगढ़ की एक पुरानी कहावत है—“सौ झूठ, हज़ार लबारी, ऐसे चले काम सरकारी।” यह कहावत दरअसल हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का जीवंत प्रतीक है। सरकारी दफ्तरों की चाल उतनी ही धीमी होती है जितनी किसी मेला मैदान में ऊँट की सवारी।

कहते हैं, योजनाएँ बनती हैं जनता के लिए, लेकिन फाइलें बनती हैं अफसरों के लिए। जब कोई योजना दो विभागों में उलझ जाए—तो समझ लीजिए फ़ाइलों का खेल शुरू। एक विभाग लिखेगा—“विचाराधीन”, दूसरा कहेगा—“मामला परीक्षण में है”, और तीसरा बोलेगा—“स्पष्टीकरण हेतु भेजा गया”। इस दौरान साल बीत जाते हैं, बजट खत्म हो जाता है और योजना “समीक्षा बैठक” में दम तोड़ देती है।
बस्तर से लेकर बिलासपुर, रायपुर से अंबिकापुर—कहीं पुल अधूरा, कहीं स्कूल की बिल्डिंग बिना बिजली के, कहीं अस्पताल बिना दवाओं के। यह सब “डबल इंजन” के वादों और “ट्रिपल इंजन” की ताकत के बावजूद होता है, क्योंकि इंजन भले तीन हों, ड्राइवर तो वही सरकारी तंत्र है जो “धीरे चलो” के साइन बोर्ड के साथ पैदा हुआ है।
कचना ओवरब्रिज—सरकारी गति का स्मारक
रायपुर के कचना रेलवे फाटक पर ओवरब्रिज की मांग जनता बरसों से कर रही थी। 48 करोड़ 78 लाख की प्रशासकीय स्वीकृति, 871 मीटर लंबा और 12 मीटर चौड़ा पुल—कागज़ों पर सब कुछ शानदार दिखता है। निर्माण सितंबर 2023 में शुरू हुआ, अप्रैल 2025 तक पूरा होना था। ठेका 35 करोड़ में दे दिया गया। अब 2025 के अक्टूबर में पुल की जगह “डबल गर्डर बनाम सिंगल गर्डर” की बहस खड़ी है।
रेलवे कहता है—“सेफ्टी स्टैंडर्ड की गाइडलाइन में यह संभव नहीं।”
लोक निर्माण विभाग कहता है—“हमारी डिज़ाइन बेहतर है।”
जनता कहती है—“हमें सिर्फ रास्ता चाहिए।”
पर सरकार के इंजन को कौन समझाए कि जनता को सुरक्षा से ज़्यादा सुविधा की ज़रूरत है। फाइलें रेलवे और पीडब्ल्यूडी के बीच ऐसे दौड़ रही हैं जैसे दो खंभों के बीच अटकी पतंग।
जब योजनाएँ फ़ाइलों में पलती हैं
कचना ओवरब्रिज अकेला नहीं है।
• रायगढ़ के खरसिया फ्लाईओवर की बात करें—सात साल में दो बार उद्घाटन, पर अब तक अधूरा। लागत 60 करोड़ से बढ़कर 120 करोड़ हो गई।
• बिलासपुर स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट—स्मार्ट स्ट्रीट लाइटें लगीं पर वाई-फाई कभी नहीं चला। फाइबर केबल बिछाने का खर्च बढ़ता गया, पर नेटवर्क नहीं आया।
• महासमुंद का जिला अस्पताल—मशीनें आ गईं, पर ऑपरेटर नहीं। दवाएं खरीदी गईं, पर स्टोर में सड़ गईं।
• राजनांदगांव की सड़क परियोजना—पहले 25 करोड़ में स्वीकृत, फिर बारिश और देरी के बहाने 62 करोड़ में पूरी।
यह सब देखकर समझ आता है कि हमारे देश में “विकास” कोई घटना नहीं, बल्कि एक लम्बी प्रशासनिक प्रक्रिया है—जिसमें समय सीमा लचीली होती है और जवाबदेही वैकल्पिक।
सरकारी काम का अपना रोमांस
सरकारी काम में एक अजीब रोमांस है—“कल करेंगे” का वादा हमेशा बना रहता है। अगर कोई काम एक महीने में हो जाए तो अफसरों की नींद उड़ जाती है—क्योंकि सिस्टम तो तभी मज़ा देता है जब काम “विचाराधीन” रहे। फ़ाइलें दफ्तरों में ऐसे घूमती हैं जैसे सरकारी अफसरों की चाय में चम्मच। हर नोटिंग, हर टिप्पणी एक नई तारीख जोड़ देती है।
इसीलिए भारत में विकास की रफ़्तार “कछुए की चाल” नहीं, बल्कि “सरकारी चाल” है—जो कछुए से भी धीमी और मगरमच्छ से भी भारी।
लागत बढ़ाने की सरकारी कला
हमारे यहाँ लागत बढ़ना कोई गलती नहीं, कला है।
जिस परियोजना का प्रारंभिक अनुमान 20 करोड़ होता है, वह समय सीमा बढ़ते-बढ़ते 60 करोड़ तक पहुँच जाती है। कारण—“महंगाई”, “डिज़ाइन में बदलाव”, “टेंडर में तकनीकी सुधार” या “बारिश की अधिकता”।
दरअसल ये सब सरकारी बहानेबाज़ी के स्वीकृत कारण हैं। जनता भी जानती है कि पैसा बढ़ेगा, अफसर भी जानते हैं, ठेकेदार तो जान ही रहा होता है—बस, समय नहीं जानता कि कब पूरा होगा!
ई-गवर्नेंस से ई-मजाक तक
गाँव-गाँव में ई-गवर्नेंस की बातें खूब होती हैं। कंप्यूटर खरीदे गए, प्रिंटर लगाए गए, पर बिजली और इंटरनेट की सुविधा नहीं। सो, लैपटॉप अब फाइलें दबाने का वज़नदार औज़ार बन गए हैं। अस्पतालों में एक्सरे मशीन है, पर ऑपरेटर नहीं; डिजिटल क्लासरूम हैं, पर टीचर नहीं।
अंत में
सरकारें बदलती हैं, इंजन बढ़ते हैं, नारे नए आते हैं—लेकिन सरकारी तंत्र की चाल वही पुरानी है।
डबल इंजन हो या ट्रिपल, फाइलें फिर भी “प्रगति पर” ही रहती हैं।
जनता पुल, सड़क, अस्पताल और रोजगार चाहती है—पर उसे मिलती है मीटिंग, प्रस्ताव और संशोधन।
कह सकते हैं कि भारत में विकास की सबसे बड़ी चुनौती “विपक्ष” नहीं, बल्कि विभाग हैं।
क्योंकि हमारे यहाँ हर फाइल की कहानी यही कहती है—
“शासन संकल्पित है, कार्य प्रगति पर है, और जनता प्रतीक्षित है।”