बिहार फिर चुनावी तपिश में है। यहां चुनाव महज़ लोकतंत्र का पर्व नहीं, बल्कि जाति, वर्ग, रोजगार और सत्ता के समीकरणों का संघर्ष भी होता है। हर बार की तरह इस बार भी वही पुराने वादे, वही पुरानी कड़वाहटें, वही गठबंधन की उठापटक और वही ‘जनता सब जानती है वाला आत्मविश्वास हवा में तैर रहा है। फर्क बस इतना है कि इस बार बेरोजगारी का मुद्दा पहले से कहीं अधिक तीखा है और युवाओं के भीतर बेचैनी साफ दिखाई देती है।
तेजस्वी यादव ने अपने अभियान का केंद्र एक करोड़ नौकरियां बनाया है। एक ऐसा नारा जो सुनने में क्रांतिकारी लगता है, पर अमली स्तर पर सवालों से भरा हुआ। बिहार की आर्थिक स्थिति, उद्योगों का अभाव, और सीमित संसाधन यह बताने के लिए काफी हैं कि इतनी बड़ी संख्या में रोजगार देना आसान नहीं है। पर यह भी सच है कि बेरोजगारी आज बिहार की सबसे बड़ी राजनीतिक जमीन बन चुकी है, और जो इसे समझेगा, वही जनता के दिल तक पहुंच पाएगा।
दूसरी ओर, भाजपा सुशासन की बात कर रही है। वही सुशासन जिसकी परिभाषा नीतीश कुमार के लंबे शासनकाल ने गढ़ी थी, लेकिन जो अब लोगों के लिए कुछ फीकी पड़ चुकी है। भाजपा यह भरोसा दिलाने में लगी है कि ‘डबल इंजनÓ की सरकार विकास को और गति देगी। मगर जनता अब नारों से ज्यादा नतीजे चाहती है। उसे सड़कों और पुलों से ज्यादा रोजग़ार और सुरक्षा चाहिए।
राहुल गांधी इस बार ‘वोट चोरीÓ की बात कर रहे हैं, जो दरअसल विपक्ष की चिंता को उजागर करता है कि सत्ता का खेल लोकतांत्रिक मर्यादाओं से आगे जा चुका है। लेकिन जनता यह भी देख रही है कि कांग्रेस खुद अपने संगठनात्मक ढांचे और नेतृत्व संकट से कितना उबर पाई है। इस बीच छोटे दलों का गणित भी दिलचस्प है। कोई जाति के समीकरण पर सीट मांग रहा है, कोई अपने क्षेत्रीय प्रभुत्व के आधार पर। बिहार का हर चुनाव जाति और वफादारी के पुराने फार्मूलों पर टिके होने के बावजूद एक नए तनाव को जन्म देता है, वह है उम्मीद और अविश्वास का टकराव।
दरअसल बिहार का मतदाता अब नारा नहीं, नतीजा चाहता है। उसे रोजगार चाहिए, शिक्षा चाहिए, सुरक्षा चाहिए, और पलायन से मुक्ति चाहिए। लेकिन जब राजनीति जातीय समीकरणों के जाल में फंसी हो, तब असली मुद्दे अक्सर हाशिए पर चले जाते हैं। यही इस बार के चुनाव का सबसे बड़ा तनाव है, मुद्दों का चुनाव से गायब हो जाना।
गांव-गांव में, चौपालों में, और शहरों के चाय ठेलों पर अब चर्चाएं सिर्फ नेताओं की नहीं, बल्कि भविष्य की भी हैं। युवा यह पूछ रहे हैं कि आखिर कब तक बिहार के सपने दिल्ली या मुंबई जाकर पूरे होंगे। महिलाएं यह देख रही हैं कि शिक्षा और सुरक्षा के नाम पर हुए वादों में उनकी जगह कितनी बनी। किसान यह सोच रहा है कि उसके खेतों का मूल्य चुनावी घोषणापत्र में क्यों नहीं है।
बिहार का यह चुनाव सत्ता परिवर्तन से कहीं अधिक मनोवैज्ञानिक युद्ध है। जहां जनता अपने ही भरोसे की परीक्षा ले रही है। तेजस्वी, नीतीश, मोदी, राहुल—सब अपनी-अपनी दिशा में दौड़ रहे हैं, पर जनता की मंजि़ल अब भी वही है, एक स्थिर, ईमानदार और अवसर देने वाला बिहार। तनाव इसलिए भी है क्योंकि हर कोई अपने-अपने ‘बिहारÓ की बात कर रहा है। किसी के लिए यह जाति का बिहार है, किसी के लिए विकास का, किसी के लिए सत्ता का। लेकिन असली बिहार उस सन्नाटे में छिपा है, जहां गांव के बच्चे अब भी टूटी खिड़की से शहरों की रोशनी देखते हैं।
इस बार का चुनाव शायद बिहार की राजनीति को नया मोड़ दे या फिर पुराने ढर्रे को ही दोहराए, यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी। मगर इतना तय है कि यह चुनाव नारेबाज़ी से नहीं, जनता की बेचैनी से लिखा जाएगा। और अगर नेताओं ने इस बेचैनी को समझने की कोशिश नहीं की, तो परिणाम फिर वही होंगे, तनाव बढ़ेगा, बदलाव नहीं।
बिहार का चुनाव और तनाव

10
Oct