आलोक चटर्जी रुके नहीं और न ही थके…

आलोक चटर्जी रुके नहीं और न ही थके

रंगकर्म की जबलपुर से शुरुआत और अंत भी यहीं

पंकज स्वामी , जबलपुर,  रंगकर्मी आलोक चटर्जी के निधन की खबर सुबह से आभासी संसार और डिजीटल मीडिया में प्रसारित हो रही है। उनको जानने-पहचानने वालों की स्मृति घुमड़ घुमड़ कर सामने आ रहे हैं। सभी आलोक चटर्जी को अलग-अलग तरीके से याद कर रहे हैं। रंगकर्मी आशीष पाठक की वॉल पर जबलपुर में आधुनिक रंगकर्म का इतिहास का दस्तावेजी करते समय आलोक चटर्जी से सात किस्तों में बातचीत की गई। इस बातचीत की रिकार्डिंग आलोक चटर्जी से अनुमति लेकर की गई थी। इस बातचीत में आलोक चटर्जी का रंगकर्म जीवन और उनके विचार विस्तृत रूप से उभर कर सामने आए थे। यह बातचीत 21 सितंबर 2023 से 6 जुलाई 2024 के दरम्यान की गई। 6 जुलाई 2024 को आलोक चटर्जी ने आशीष पाठक लिखित व निर्देशित ‘रेड फ्रॉकÓ में एकल अभिनय किया और इसका जबलपुर में मंचन हुआ। आलोक चटर्जी ने रंगकर्म की शुरुआत जबलपुर की और उनका अभिनीत अंतिम नाटक रेड फ्रॉक रहा। इस नाटक के बाद वे औपचारिक रूप से मंच पर नहीं आए। कुछ अज़ीब संयोग रहा कि रेड फ्रॉक की एकमात्र समीक्षा मैंने ही लिखी। इस समीक्षा से आलोक चटर्जी सहमत थे। बाद में यह समीक्षा कोलकाता से अभी हाल में प्रकाशित पत्रिका रंग रस में भी छपी।

आलोक चटर्जी से बातचीत की प्रथम किस्त यहां पर प्रस्तुत है जिसमें विस्तार से बताया गया है कि वे किस प्रकार रंगकर्म से जुड़े-

आलोक चटर्जी: टुगा के मंच की शुरुआत टैगोर की कविता से एक गर्भस्थ शिशु के माता-पिता दमोह से झांसी तक की यात्रा रेल से कर रहे थे। रेल में समय काटने के लिए पिता एक सहयात्री से बात करने लगते हैं। कुछ देर के बाद अनौपचारिक होने के बाद सहयात्री बातचीत में पिता से कहता है कि उसका घरेलू नाम ऐसा है जो दुनिया में किसी का नहीं है। पिता अचरज से पूछते हैं कि भला ऐसा कौन सा नाम है, जो दुनिया में किसी का नहीं? सहयात्री तपाक से जवाब देता है- ‘टुगाÓ। पिता टुगा नाम सुन कर कुछ अंतराल तक सोचते हैं और फिर सहयात्री से कहते हैं कि यदि पुत्र जन्म लेगा तो उसका नाम वे ‘टुगाÓ रखेंगे। नौ माह के बाद मां एक पुत्र को जन्म देती हैं और उसका नाम ‘टुगाÓ रख दिया जाता है। परिवार में कुछ दिन बाद नानी का आगमन होता है। वे नाती ‘टुगाÓ को नया नामकरण देती है-आलोक। एक बंगला परिवार में आलोक का लालन-पालन प्यार दुलार से होने लगता है। भारतीय रेल में कार्यरत पिता निशीथ कुमार चटर्जी व मां चित्रा चटर्जी पारम्परिक बंगला परिवार का प्रतिनिनधित्व करते थे। आलोक का बचपन और स्कूल की पढ़ाई बुंदेलखंड के दमोह में शुरु हुई।

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आसपास का वातावरण एक तरह से भदेस ही था। बुंदेली बोलचाल की भाषा थी। आलोक घर में मां-बाबूजी से बंगला संस्कृति से अवगत हो रहे थे। मां ने शांति निकेतन से संगीत विशारद किया था। उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर के पुत्र से रवीन्द्र व बंगला संगीत की शिक्षा दीक्षा ली थी। दमोह में 18-20 बंगला परिवार रहते थे। पथारिया फाटक के पीछे की ओर प्रत्येक दुर्गा पूजा में बंगला परिवार एकत्रित होते और पूजा के साथ बंगला में गीत व नाटक प्रस्तुत करते थे। मां ने टैगोर की एक कविता ‘प्रार्थनाÓ आलोक को सिखा कर याद करवाई थी। एक दुर्गा पूजा में धकेल कर आलोक को मंच पर भेज दिया गया। इशारे से समझाया गया कि वे मंच पर प्रार्थना कविता का सस्वर पाठ करें। पांच वर्ष के आलोक टैगोर की कविता सुनाने पहली बार मंच पर आए। यह मंच पर उनका आने का पहला मौका था। फिर तो मंच का स?िलसिला ऐसा चला कि आज तक रूका नहीं। वे जबलपुर के पहले रंगकर्मी हैं जिन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से विधिवत प्रशिक्ष्ण प्राप्त किया। आज आलोक चटर्जी की पहचान देश के विख्यात रंगकर्मी के रूप में है। सैकड़ों नाटकों में उनके संवेदनशील अभिनय की चर्चा की जाती है। आलोक चटर्जी सिर्फ रंगमंच के अभिनेता के रूप में सीमित नहीं है, बल्कि वे रंग गुरू भी हैं। मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के निदेशक के रूप में कार्य कर चुके हैं। सैकड़ों रंगकर्म कार्यशाला में उन्होंने हजारों कलाकारों को अभिनय प्रशिक्षण दिया है। अनुपम खेर के एक्टर प्रिपेयर्स में फेकल्टी के रूप में वे फिल्म में किस्मत अजमाने वालों को अभिनय की बारीकियां सिखाते हैं।

आलोक चटर्जी का यहां तक पहुंचने का रास्ता कोई आसान नहीं रहा। आठवीं तक पढ़ाई लिखाई दमोह के मिशन हायर सेकेण्डी स्कूल में हुई। आठवीं कक्षा की परीक्षा जैसे ही उन्होंने पास की तो पिता का ट्रांसफर दमोह से जबलपुर हो गया। जबलपुर में आलोक का दाखिला वर्ष 1975 में सेंट थॉमस स्कूल में करवाया गया। स्कूल में उनकी अभिरूचि नाटक के प्रति हुई। नगर पालिक दमोह द्वारा स्कूलों के लिए एक ड्रामा प्रतियोगिता आयोजित की गई। आलोक चटर्जी ने अपने स्कूल की ओर ‘लखनऊ के नवाबÓ नाटक में एकल अभिनय किया। इस नाटक ने विजेता बनने का गौरव पाया और आलोक को बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला। अवार्ड लेने के बाद टुगा पिताजी के साथ रिक्शे में बैठ घर वापस आ रहे थे। टुगा को उस समय महसूस हुआ कि दमोह की सड़क में गुजरने वाला प्रत्येक शख्स उनको देख कर यह समझ रहा था कि यह बेस्ट एक्टर जा रहा है। टुगा गर्व से रिक्शे में तन कर बैठा हुआ था।

टुगा जबलपुर पहुंच कर आलोक चटर्जी के रूप में परिवर्तित होने लगे थे। लाल ईंटों वाला विशाल सेंट थॉमस स्कूल में उस समय हालैंड के एक फादर प्राचार्य थे। वे स्कूल के विद्यार्थियों को मैदान में खेलने और नाटकों के मंचन के लिए प्रेरित करते रहते थे। उन्होंने स्कूल की फुटबाल, हॉकी, बैडमिंटन की टीमें बनवाई थीं। यह वही स्कूल था जहां आलोक चटर्जी से पूर्व जबलपुर दिव्येन्दु गांगुली भी विद्यार्थी रह चुके थे। उन्होंने नाटकों में अभिनय कर के प्रसिद्धि हासिल की थी। सेंट थॉमस स्कूल के महावीर सर हिन्दी विषय के शिक्षक थे। वे विद्यार्थियों से स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस पर नाटकों का मंचन करवाते थे। आलोक को जबलपुर और स्कूल के माहौल में नाटकों के मंचन की गहराइयां समझने को मिलीं।

ग्यारहवीं की बोर्ड परीक्षा हुई और आलोक अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हो गए। जैसा पारम्परिक भारतीय परिवार में होता है, वैसा ही आलोक के परिवार में भी हुआ। आलोक के बड़े भाई इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे। परिवार खासतौर से पिता की इच्छा थी कि आलोक डॉक्टरी की पढ़ाई करें। आलोक का मेडिकल कॉलेज में चयन हो गया। एक सप्ताह तक जबलपुर मेडिकल कॉलेज में पढऩे के बाद आलोक का मन बैचेन हो गया। उन्होंने पिता के समक्ष हथियार डालते हुए कहा कि वे मेडिकल की पढ़ाई नहीं कर पाएंगे। पिता ने इसका कारण जानना चाहा। आलोक ने उत्तर दिया कि यदि वे मेडिकल की पढ़ाई करेंगे तो दो साल में उनकी आंखों पर चश्मा चढ़ जाएगा…सफेद कोट और उसकी जेब में विल्स सिगरेट की डिब्बी होगी। डॉक्टर साहब…डॉक्टर साहब कहते हुए घूमने लगूंगा। आलोक ने पिता से स्पष्ट रूप से कह दिया कि वे तो नाटक करना चाहते हैं। मोटी किताबों के बीच उनको नाटक करने का मौका कहां मिलेगा। पिता अवाक रह गए। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने आलोक से पूछा क्या वे मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई छोड़ देंगे? उन्होंने देखा कि आलोक पर उनकी बात का कोई असर नहीं पड़ा। वैसे भी पिता ने ग्वालियर में शेक्सपियर के नाटक किए थे। वे उदार व्यक्ति थे। उन्होंने पुत्र से कहा कि वे नहीं चाहते कि उनका पुत्र ‘गधा रंगकर्मीÓ कहलाए जाए। ग्रेजुएशन के लिए क्या करोगे? आलोक ने कहा वे बीएससी कर लेंगे। दो माह पढ़ कर पास हो जाएंगे। पिता ने तुरंत कहा कि यदि पास नहीं हुए या सप्लीमेंट्री आई तो घर से निकाल बाहर कर देंगे। आलोक ने पिता से कहा कि यदि वे पास नहीं हों तो उनको बिल्कुल घर निकाल दिया जाए। पिता ने कहा जाओ नाटक करो और साथ में अपनी बीएससी की पढ़ाई भी करते चलो।

आलोक चटर्जी ने जबलपुर के राबर्टसन साइंस कॉलेज में दाखिला ले लिया। साइंस कॉलेज में दाखिला लेना और भविष्य में नए मोड़ की कल्पना स्वयं आलोक ने कभी नहीं की थी। वर्ष 1977-78 में साइंस कॉलेज में आलोक को फर्स्ट ईयर में अपने से एक साल वरिष्ठ अरूण पाण्डेय मिल गए। उनके साथ राकेश दीक्षित भी थे। अरूण पाण्डेय ने आलोक में नाटकों के प्रति रूचि देखी। अरूण पाण्डेय ने प्रस्ताव दिया कि वे दो साल से नाटक कर रहे हैं, इसलिए इस बार नाटक में आलोक प्रविष्ट हो जाएं। कॉलेज की सोशल गेदरिंग में काका हाथरसी का नाटक ‘हमीर का हलवाÓ मंचित होना तय हुआ। नाटक में तुकबंदियों में संवाद थे। जैसे ‘क्यों ताल बहादुर उर्फ लल्लू, क्या सोच रहे हो कल्लू।’ आलोक ने उस्ताद की भूमिका में सधा हुआ अभिनय किया और उन्हें अवार्ड भी मिल गया। आलोक ने सेकंड ईयर में रमेश मेहता का नाटक ‘प्रमोशन किया।

इस नाटक में भी आलोक को बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला। आलोक कॉलेज में लोकप्रिय हो गए। उस समय कॉलेज में सिटी पेनल व हॉस्टल पेनल के मध्य प्रतिद्वंदिता रहती थी लेकिन आलोक की दोस्ती दोनों से थी। जब आलोक थर्ड ईयर में पहुंचे तो सिटी पेनल की तरह से बोला गया कि पिछले सोलह सालों से हॉस्टल पेनल चुनाव जीत रहा है इसलिए सिटी पेनल को चुनाव जीतना चाहिए। आलोक को कॉलेज की यूनियन में सिटी पेनल की ओर से जनरल सेक्रेटरी पद के लिए खड़ा करने का प्रस्ताव आया। आलोक ने इस प्रस्ताव पर कहा कि न तो उनके पास पैसा है और न ही बाहु बल और न ही सम्पर्क। इनके बिना वे चुनाव कैसे लड़ेंगे। उस समय आलोक चंसोरिया अध्यक्ष का चुनाव सिटी पेनल की ओर से लड़ रहे थे। उन्होंने आलोक चटर्जी से कहा कि वे एक्टर हैं और इस वजह से पूरा कॉलेज उनको जानता पहचानता है। आलोक ने कहा कि यदि वे जीतेंगे तो सब को सौ ग्राम मूंगफली खिला देंगे। साइंस कॉलेज में इतिहास बना और पूरा सिटी पेनल चुनाव जीत गया। आलोक चटर्जी जनरल सेक्रेटरी बन गए। इससे पूर्व अरूण पाण्डेय जनरल सेक्रेटरी का चुनाव सिटी पेनल से जीत चुके थे लेकिन पेनल के अन्य लोग पराजित हुए थे।
अरूण पाण्डेय व राकेश दीक्षित की घनिष्ठता के चलते आलोक चटर्जी की मुलाकात हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन, अलखनंदन से हुई। इन लोगों ने आलोक से कहा कि कॉलेज के नाटक में काम करने से कुछ नहीं होगा। उस समय जबलपुर में मिलन, मित्र संघ, कचनार सांस्कृतिक व कला में सक्रिय संस्थाएं थीं। विवेचना की बौद्धिक नाटकों के मंचन से अलग पहचान बन रही थी। अलखनंदन उस समय तक वेटिंग फॉर गोदो व गिनी पिग जैसे नाटक कर चुके थे। विवेचना का रूतबा इन नाटकों से बढ़ चुका था। अरूण पाण्डेय व राकेश दीक्षित के साथ एक दिन आलोक चटर्जी एक दिन शाम को राइट टाउन स्थित जीएस कॉलेज पहुंच गए। यहां विवेचना की नियमित रिहर्सल हुआ करती थीं। जिस समय आलोक रिहर्सल में पहुंचे तब हमीदुल्ला के नाटक ‘दिरेन्देÓ की रिहर्सल हो रही थी। साइंस कॉलेज के प्राध्यापक डा. मगन भाई पटेल, डा. मदन पटेरिया व डा. प्रभात मिश्रा भी विवेचना से जुड़े हुए थे। डा. प्रभात मिश्रा ने भी आलोक को विवेचना जाने के लिए प्रेरित किया था। कुछ दिन में ही दरिन्दे नाटक में आलोक चटर्जी को एक भूमिका दी गई। इस तरह से आलोक ने विवेचना के लिए पहला नाटक दिरन्दे किया। इस नाटक का प्रथम मंचन लखनऊ में हुआ। यह आलोक के लिए जीवन में पहली बार अपने शहर से बाहर नाटक में अभिनय करने का मौका था।

आलोक चटर्जी को विवेचना के नाटक मणि मधुकर के ‘इकतारे की आंखÓ से मंच पर आने का पूरी तरह से मौका मिला। ‘इकतारे की आंखÓ के सफल मंचन के बाद यह नाटक दिल्ली में श्रीराम कला केन्द्र के राष्ट्रीय नाट्य समारोह में मध्यप्रदेश की अधिकृत प्रविष्टि के रूप में गया। आलोक ने इस नाटक में तीन भूमिकाएं निभाई थीं। उन्होंने इसमें मौलवी, महमूद दर्जी व साधू की भूमिकाओं के साथ गीत व नृत्य में भी रहे। रेखा अलखनंदन ने यह भूमिकाएं आलोक के लिए तय की थी। नाटक में राकेश दीक्षित व आलोक लीडिंग पेयर होते थे। इस नाटक के मंचन के बाद एनएसडी के फाइनल ईयर के कुछ विद्यार्थी आलोक चटर्जी से मिलने आए। आलोक ने उस समय तक एनएसडी का नाम ही नहीं सुना था। एनएसडी के विद्यार्थियों ने आलोक के अभिनय की तारीफ की। आलोक का महसूस हुआ कि अभी तो वे बीएससी में ही पढ़ रहे हैं और लोगों को दिल्ली में उनका अभिनय अच्छा लगा। इस घटना से आलोक का आत्मविश्वास बढ़ा।

जबलपुर वापस आने पर अलखनंदन ने आलोक चटर्जी को फज़़ल ताबिश के नाटक ‘अखाड़े के बाहरÓ में मुख्य भूमिका सौंपी। यह बिल्कुल नया नाटक था। अलखनंदन को इस नाटक को तैयार कर भोपाल के राज्य नाट्य महोत्सव में मंचित करना था। भोपाल से पूर्व इस नाटक का मंचन सागर व विदिशा में होने थे। नाटक में जियाला की भूमिका आलोक चटर्जी व तपन बैनर्जी छोटू की भूमिका निभाते थे। साइंस कॉलेज के प्राध्यापक डा. प्रभात मिश्रा ने नाटक में गोश्तखोर की रोचक भूमिका निभाई थी। गोश्तखोर की पत्नी की भूमिका ज्ञानरंजन की पत्नी सुनयना ने अदा की। अलखनंदन की कॉस्ंिटग अद्भुत हुआ करती थी। गोश्तखोर की भूमिका के लिए उन्हें ऐसे कलाकार की ज़रूरत थी, जो खूबसूरत दिखे लेकिन काम उसके कमीनेपन से भरे हुए हों। अलखनंदन ने यह भूमिका प्रभात मिश्रा को दी। पत्नी की भूमिका के लिए कोई महिला कलाकार नहीं मिल रही थीं। तब बहुत सोच विचार कर यह भूमिका सुनयना जी को सौंपी गई। अलखनंदन के मित्र अजय घोष की पत्नी आलोक चटर्जी की हीरोइन बनीं। उनकी उम्र उस समय करीब छब्बीस वर्ष की थी। आलोक 19-20 साल के थे। नाटक की रिहर्सल हो या मंचन आलोक को महसूस होता था कि उम्र के फासले के कारण वे हीरोइन कम भाभी नजऱ आती थीं। अलखनंदन, अजय घोष व उनकी पत्नी ने आलोक की झिझक को कम करने में पूरी मदद की। अलखनंदन अपनी शैली में आलोक से कहते थे-‘Óबंगाली लड़के तेरे को यह रोल करना है-वर्ना भगा दूंगा।’Ó ‘अखाड़े के बाहरÓ नाटक ने आलोक चटर्जी को स्थापित कर दिया।

(फोटो-रेड फ्रॉक में आलोक चटर्जी)

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