-सुभाष मिश्र
दिसंबर की आखिरी सांझ जब कैलेंडर का एक और पन्ना पलटने को होता है, तब समय केवल तारीख़ नहीं बदलता—वह हमारे भीतर जमा हुए अनुभवों, आशंकाओं, उपलब्धियों और पाश्चातापों का भी हिसाब मांगता है। 2025 ऐसा ही एक वर्ष रहा जिसने हमें एक साथ कई शताब्दियों में जीने का एहसास कराया। कहीं हम आस्था और परंपरा की भाषा बोलते रहे तो कहीं कृत्रिम बुद्धिमत्ता और डेटा के युग में कदम बढ़ाते रहे। कहीं अहिंसा का स्मरण रहा तो कहीं हिंसा की ख़बरें हमारी संवेदनाओं को झकझोरती रहीं। इसलिए 2025 को विदा करते हुए यह सवाल स्वाभाविक है क्या इसे केवल बीत जाने दें, या जाते हुए लम्हों से कहें जऱा ठहरो, कुछ याद करना है, कुछ सीखना है, और कुछ भूलकर आगे बढऩा है।
2025 ने हमें सिखाया कि साल केवल घटनाओं का संग्रह नहीं होते, वे समाज की दिशा तय करते हैं। यह वर्ष भारत के लिए घटनाओं का नहीं, दिशा का वर्ष रहा। सुरक्षा, धर्म, अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र—चारों एक साथ परीक्षा में थे। नक्सलवाद के विरुद्ध निर्णायक राष्ट्रीय दबाव ने यह संकेत दिया कि चार दशक पुराने सशस्त्र संघर्ष का अंत अब केवल सपना नहीं रहा। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती इलाक़ों में नक्सली नेतृत्व को भारी क्षति पहुँची। यह सुरक्षा की उपलब्धि थी पर इसके साथ यह सवाल भी जुड़ा रहा कि शांति केवल बंदूक से नहीं, विकास और भरोसे से आती है।
धार्मिक-पर्यटन और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद 2025 में केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि आर्थिक-राजनीतिक मॉडल के रूप में सामने आए। अयोध्या के बाद उज्जैन, काशी, केदारनाथ, ओंकारेश्वर जैसे केंद्र विकास की भाषा में बोले गए। आस्था और अर्थ का यह मेल नई संभावनाएं भी लाया और नई बहसें भी कि क्या धर्म विकास का साधन है या राजनीति का औज़ार? 2025 ने इस प्रश्न को खुला छोड़ दिया।
आर्थिक मोर्चे पर यह वर्ष उम्मीद और बेचैनी दोनों लेकर आया। निवेश, उद्योग और इंफ्रास्ट्रक्चर की बात हुई पर रोजग़ार और महँगाई आम जनजीवन के सबसे बड़े सवाल बने रहे। युवा, मध्यम वर्ग और शहरी गरीब की असहजता आंकड़ों से ज़्यादा सड़कों और सोशल मीडिया पर दिखी। यही 2025 का यथार्थ था विकास की घोषणाएं और जीवन-यापन की चिंता, साथ-साथ।
न्यायपालिका ने भी इस वर्ष अपनी भूमिका को रेखांकित किया। व्यक्तिगत स्वतंत्रता, जांच एजेंसियों की सीमाएँ और नागरिक अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने कार्यपालिका-न्यायपालिका संतुलन पर नई बहस को जन्म दिया। वहीं ईडी-सीबीआई की कार्रवाइयां पूरे साल राजनीति के केंद्र में रहीं। भ्रष्टाचार बनाम बदले की राजनीति का द्वंद्व लोकतंत्र की सेहत पर सवाल छोड़ गया।
जलवायु संकट 2025 में भविष्य की चेतावनी नहीं रहा वह वर्तमान का संकट बनकर सामने आया। भीषण गर्मी, बाढ़, जल संकट ने यह स्पष्ट कर दिया कि पर्यावरण अब अलग विषय नहीं, बल्कि नीति, अर्थ और समाज—सबका साझा सवाल है। डिजिटल इंडिया के अगले चरण में एआई और डेटा नियंत्रण पर हुई चर्चा ने सुविधा और निजता के बीच नई रेखाएँ खींचीं।
अब यदि हम अपने प्रदेशों छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की ओर देखें तो 2025 की तस्वीर और भी ठोस हो जाती है। छत्तीसगढ़ ने राज्य स्थापना के 25 वर्ष पूरे किए। यह रजत जयंती उत्सव का अवसर था, पर आत्ममंथन का भी। नक्सल विरोधी अभियानों में मिली सफलताएँ, औद्योगिक निवेश के प्रस्ताव, स्वास्थ्य शिविर और जनकल्याण योजनाएँ ये उपलब्धियाँ रहीं। वहीं नक्सली हमले, ईडी की छापेमारी, सामाजिक-राजनीतिक विवाद यह याद दिलाते रहे कि शांति और विकास की राह अभी पूरी नहीं हुई। 2025 छत्तीसगढ़ के लिए संक्रमण का वर्ष रहा—संघर्ष से स्थिरता की ओर बढ़ता हुआ।
मध्य प्रदेश में 2025 समीक्षा का साल रहा। महिला-केंद्रित राजनीति—विशेषकर लाड़ली बहना योजना ने राजनीति की धुरी तय की। धार्मिक-पर्यटन मॉडल को आर्थिक इंजन के रूप में पेश करने की कोशिश तेज़ हुई। कृषि, जल संकट, शहरीकरण और आदिवासी क्षेत्रों पर फोकस बढ़ा। पर वर्ष के अंत में यही सवाल बचा—घोषणाएँ ज़मीन पर कितनी उतरीं? 2026 के लिए यह प्रदेश निर्णय और जवाबदेही की दहलीज़ पर खड़ा है।
2025 की सबसे बड़ी विशेषता यही रही कि हम एक साथ कई युगों में जीते दिखे। हम गांधी की अहिंसा की बात भी करते रहे और युद्ध की भाषा भी सुनते रहे। हम परंपरा को थामे रहे और तकनीक की रफ्तार से भी चकित रहे। यह विरोधाभास ही इस वर्ष की पहचान बना। तो क्या याद रखें और क्या भूलें? याद रखें वे क्षण—जब सुरक्षा की दिशा में भरोसा जगा, जब युवाओं ने खेल और शिक्षा में नाम किया, जब समाज ने कठिन परिस्थितियों में भी उम्मीद नहीं छोड़ी। भूलें वे कड़वाहटें जो केवल विभाजन बढ़ाती हैं, वे नफरतें—जो संवाद के रास्ते बंद करती हैं। 2025 ने हमें यह सिखाया कि बीता हुआ समय साक्षी होता है, आरोपी नहीं। उसका सम्मान यही है कि उससे सीख लेकर आगे बढ़ा जाए।
वर्षांत केवल विदाई नहीं, स्वागत भी है। 2025 की विदाई हमें यह स्मरण कराती है कि समय अस्थिर है, पर दृष्टि स्थिर हो सकती है। यदि दृष्टि संतुलित रही तो 2026 केवल नई तारीख़ नहीं होगा—वह नई संभावना होगा। इसलिए जाते हुए लम्हों से यही कहना है—ठहरो, ताकि हम तुम्हें समझ सकें, और फिर मुस्कुराकर विदा करें, इस विश्वास के साथ कि आने वाला समय अधिक रोशनी, अधिक उत्तरदायित्व और अधिक मानवीयता लेकर आएगा।