Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – कहने को तो हैं दुनिया में सुखऩवर बहुत अच्छे

-सुभाष मिश्र

मिर्जा असद-उल्लाह बेग ख़ाँ, जिन्हें दुनिया मिर्जा ग़ालिब के नाम से जानती है, को याद करना किसी एक शायर की जयंती मनाना भर नहीं है। यह उस परंपरा को याद करना है जिसमें कविता मनोरंजन नहीं, आत्मसंवाद है, जिसमें शेर तालियां बटोरने का औज़ार नहीं, समय से सवाल करने की हिम्मत है। 27 दिसंबर 1797 को आगरा में जन्मे और 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में इस दुनिया से रुख़्सत हुए ग़ालिब आज भी हमारे बीच हैं—अपनी भाषा में, अपने अंदाज़ में और अपने असहज सवालों में।
ग़ालिब ऐसे दौर के शायर थे जब एक पूरी सभ्यता ढह रही थी। मुग़ल सल्तनत आखिरी साँसें गिन रही थी, सामाजिक मूल्य बिखर रहे थे और व्यक्ति भीतर से अकेला होता जा रहा था। लेकिन ग़ालिब ने न तो इस विघटन को विलाप में बदला और न ही शायरी को महज़ इश्किय़ा रोमांटिकता तक सीमित किया। उन्होंने शायरी को सोचने का औज़ार बनाया।
शायद इसीलिए वे आत्मविश्वास से कह सके—कहने को तो हैं दुनिया में सुखऩवर बहुत अच्छे, कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और।
ग़ालिब का यह ‘अंदाज़ उन्हें अपने समय से आगे और हमारे समय के भीतर ले आता है। उनकी शायरी में प्रेम है, लेकिन प्रेम के साथ जीवन की विडंबना भी है; ईश्वर है, लेकिन ईश्वर से सवाल भी है; समाज है, लेकिन समाज के पाखंड पर चोट भी है।
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले आज के मनुष्य की बेचैनी का भी बयान है जो उपभोग, सफलता और पहचान की दौड़ में लगातार टूट रहा है।
भारतीय काव्य परंपरा में ग़ालिब को अगर ठीक से समझना हो तो उन्हें कबीर की परंपरा में रखकर देखना चाहिए। कबीर की तरह ग़ालिब भी किसी एक खांचे में नहीं बैठते। न पूरी तरह धार्मिक, न पूरी तरह नास्तिक; न पूरी तरह इश्किय़ा, न केवल दार्शनिक। कबीर कहते हैं—हम ना मरैंं, मरिहैं जग सारा कोई—और ग़ालिब लिखते हैं—हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया, पर याद आता है। दोनों के यहाँ ‘मैं का यह प्रश्न दरअसल समाज से मुठभेड़ है।
आज जब हम ग़ालिब को याद करते हैं तो यह सवाल टालना मुश्किल है कि आज की शायरी किस दिशा में जा रही है। कविता और गज़़ल का बड़ा हिस्सा मंचीय प्रदर्शन में तब्दील होता जा रहा है। शेर कम, अभिनय ज़्यादा; संवेदना कम, ड्रामेबाज़ी ज़्यादा। तालियाँ पाने की जल्दी में भाषा का अनुशासन, विचार की गहराई और आत्मसंघर्ष गायब होता जा रहा है। गज़़ल, जो कभी दिल से निकली बात थी, अब कई बार तुकबंदी का खेल बन जाती है। या बात करें निराला, बच्चन, नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र जैसे कवियों की ऐसा पहले नहीं था। मुशायरे में तो फिर भी नामचीन शायर जाकर अपनी गजल शेर सुनाते हैं किन्तु हिन्दी में मंचीय कवि और गंभीर कविता करने वालों के बीच अच्छी दूरी बनी हुई है।
ग़ालिब, मीर, फ़ैज़, निदा फ़ाज़ली, बशीर बद्र या दुष्यंत कुमार यह बात करें इन सभी की लोकप्रियता मंच से आई, लेकिन उनकी रचनाएँ मंच के लिए नहीं लिखी गई थीं। वे पहले कागज़़ पर उतरीं, भीतर से गुजऱीं और फिर लोगों तक पहुँचीं। दुष्यंत कुमार की पंक्ति—हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग—आज के समय में शायरी की नैतिक कसौटी बन जाती है।
हिन्दी गज़़ल को जिस आत्मविश्वास के साथ दुष्यंत कुमार ने स्थापित किया, वह भी ग़ालिब की परंपरा का ही विस्तार है। भाषा बदली, संदर्भ बदले, लेकिन सवाल वही रहे। गज़़ल की ताक़त उसके शिल्प में है—मीटर, क़ाफिय़ा, रदीफ़ और उतनी ही उसके कथ्य में। ग़ालिब ने सिखाया कि आज़ादी भाषा की अराजकता नहीं होती, बल्कि अनुशासन के भीतर उड़ान होती है।
ग़ालिब को किसी मज़हब, जाति या राष्ट्र की सीमा में बांधना उनके साथ अन्याय है। वे उस भारत के शायर हैं जो बंटा नहीं था, और उस दुनिया के भी जो आज भी बँटने के दर्द से गुजऱ रही है। इसलिए ग़ालिब भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश ही नहीं—पूरी दुनिया के शायर हैं। अच्छी शायरी किसी से उसका पहचान-पत्र नहीं पूछती।
यही वजह है कि गालिब कहते हैं हुई मुद्दत कि गालिब मर गया पर याद आता है वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता। कबीर की तरह गालिब भी अपनी शायरी में किसी को नहीं छोड़ते। कहां मयखाने का दरवाजा गालिब और कहां वाइन पर अतना जानते हैं कल वो जाताया कि हम निकले।
आज जब भाषा को धर्म से जोड़ा जा रहा है, तब गज़़ल जैसी साझा सांस्कृतिक विधा का हर भाषा में, हर क्षेत्र में स्वीकार किया जाना अपने आप में एक सेक्युलर हस्तक्षेप है। यही वजह है कि गज़़ल हिन्दी, उर्दू ही नहीं, दूसरी भारतीय भाषाओं और यहाँ तक कि अंग्रेज़ी में भी कही जा रही है।
ग़ालिब को आज याद करने का सबसे सार्थक तरीक़ा यह नहीं कि हम उनके शेर दोहरा लें, बल्कि यह है कि हम शायरी को फिर से सोच का माध्यम बनाएं। मंच से पहले आत्मा को महत्व दें, चमत्कार से ज़्यादा ईमानदारी को तरजीह दें और शब्दों को शोर से निकालकर संवेदना में वापस ले जाएं।
रंगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल अब आँख ही से न टपका तो फिर लहु क्या है।
गुलज़ार ने एक जगह कहा था कि ग़ालिब के यहां तीन मुलाजि़म थे—कल्लू, वफ़ादार और मैं। वे दोनों तो अपनी उम्र के साथ रिहा हो गए, मैं अब भी मुलाजि़म हूँ। सच यह है कि जो भी शायरी को गंभीरता से लेता है, वह ग़ालिब का मुलाजि़म हो जाता है।

इसलिए डेढ़ सौ साल बाद भी यह पंक्ति सच लगती है—
हुई मुद्दत कि गालिब मर गया, पर याद आता है
वो हर इक बात कहना कि यूं होता तो क्या होता।
क्योंकि ग़ालिब एक शायर नहीं, एक जि़ंदा विवेक हैं—और विवेक कभी मरता नहीं।

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