अटल के आईने में आज की भाजपा, अटल से मोदी तक

  • सुभाष मिश्र

भारतीय राजनीति में कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जो अपने समय से आगे निकलकर इतिहास की कसौटी पर खरे उतरते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे ही व्यक्तित्व थे। वे केवल भारतीय जनता पार्टी के नेता या देश के प्रधानमंत्री नहीं थे, बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति की उस परंपरा के प्रतिनिधि थे, जहां सत्ता से अधिक महत्वशील, संयम और संवाद को दिया जाता है। आज अटल बिहारी वाजपेयी की जन्मशताब्दी के अवसर पर जब भाजपा देशभर में स्मरण, आयोजन और उत्सव कर रही है, तब यह जरूरी हो जाता है कि अटल को केवल श्रद्धा के साथ नहीं, बल्कि राजनीतिक विवेक के साथ भी देखा जाए।
अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति का वह चेहरा थे, जिसे विरोधी भी स्वीकार करते थे। कांग्रेस के भीतर भी वामपंथियों में भी और क्षेत्रीय दलों में भी अटल के लिए सम्मान था। यह सम्मान उनकी वैचारिक दृढ़ता से अधिक उनकी लोकतांत्रिक शुचिता से उपजा था। संसद में उनका व्यवहार, विपक्ष के प्रति उनकी भाषा और सत्ता में रहते हुए भी विनम्रता यह सब उन्हें एक अलग पंक्ति में खड़ा करता है। यही कारण है कि अटल केवल भाजपा की पूंजी नहीं बने, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की साझा स्मृति बन गए।
आज की भाजपा एक सशक्त, संगठित और चुनावी रूप से अत्यंत सफल राजनीतिक दल है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उसने लगातार दो लोकसभा चुनावों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया है और भारतीय राजनीति के केंद्र में स्वयं को स्थापित किया है। यह उपलब्धि साधारण नहीं है। लेकिन राजनीति केवल चुनावी सफलता का नाम नहीं होती। राजनीति उस नैतिक धरातल पर भी परखी जाती है, जिस पर वह खड़ी होती है। यहीं से अटल और आज की भाजपा के बीच का फर्क स्पष्ट होने लगता है।
अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीति में संघ था, पर संघ की उपस्थिति एक संस्कार की तरह थी, आदेश की तरह नहीं। वे स्वयं संघ के स्वयंसेवक रहे, लेकिन उन्होंने कभी यह आभास नहीं होने दिया कि सरकार किसी संगठन के निर्देशों पर चल रही है। उनकी निष्ठा विवेकपूर्ण थी। वे संघ का सम्मान करते थे पर राज्यसत्ता और संगठन के बीच एक स्वस्थ दूरी बनाए रखते थे। आज की राजनीति में यह दूरी धुंधली होती दिखाई देती है। यह प्रश्न विपक्ष का नहीं, लोकतंत्र का प्रश्न है।
अटल के समय राजनीति में असहमति को देशद्रोह नहीं माना जाता था। आलोचना को संवाद का हिस्सा समझा जाता था। संसद में तीखी बहस होती थी पर भाषा की मर्यादा बनी रहती थी। आज की राजनीति में असहमति अक्सर संदेह के घेरे में डाल दी जाती है। आलोचक को राष्ट्रविरोधी ठहराने की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह बदलाव केवल सत्ता के स्वभाव का नहीं, बल्कि राजनीतिक संस्कृति के परिवर्तन का संकेत है।
अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदुत्व सांस्कृतिक था, आक्रामक नहीं। वे धार्मिक पहचान को राजनीति का हथियार नहीं बनाते थे। उर्दू कविता से उनका प्रेम, साहित्यिक संवेदनशीलता और बहुलतावादी दृष्टि—यह सब उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। वे अल्पसंख्यकों को समस्या नहीं मानते थे, बल्कि लोकतंत्र का अभिन्न अंग समझते थे। आज का राजनीतिक हिंदुत्व अधिक मुखर, अधिक आक्रामक और अधिक ध्रुवीकरणकारी दिखाई देता है। यह फर्क केवल शैली का नहीं, दृष्टि का भी है।
आज जब मध्यप्रदेश सरकार अटल बिहारी वाजपेयी की जन्मभूमि ग्वालियर में भव्य ग्रोथ समिट का आयोजन कर रही है, निवेश और रोजगार की बात कर रही है, तो यह निश्चित रूप से विकास की राजनीति का आवश्यक पक्ष है। अटल भी विकास के पक्षधर थे। लेकिन अटल के लिए विकास केवल आर्थिक आंकड़ों का विषय नहीं था। उनके लिए विकास का अर्थ सामाजिक संतुलन, लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती और राजनीतिक नैतिकता भी था। यदि अटल के नाम पर आयोजन हों तो उनके मूल्यों पर भी विचार होना चाहिए।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज की भाजपा अटल से आगे बढ़ चुकी है सत्ता, संगठन और विस्तार के अर्थ में। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज की भाजपा अटल से काफी अलग भी है—भाषा, व्यवहार और सहिष्णुता के अर्थ में। यह अंतर किसी एक व्यक्ति या एक सरकार का नहीं, बल्कि पूरी राजनीतिक प्रवृत्ति का है। अटल की राजनीति में ठहराव था, आज की राजनीति में गति है। अटल की राजनीति में मौन का भी अर्थ था, आज की राजनीति में शोर अधिक है।
अटल बिहारी वाजपेयी की सबसे बड़ी विरासत यह थी कि उन्होंने यह दिखाया कि दक्षिणपंथी विचारधारा में रहते हुए भी उदार हुआ जा सकता है। राष्ट्रवादी होते हुए भी लोकतांत्रिक रहा जा सकता है। सत्ता में होते हुए भी विपक्ष का सम्मान किया जा सकता है। यही वह कसौटी है, जिस पर आज की भाजपा को खुद को परखना चाहिए।
अटल को स्मरण करना आसान है, अटल की परंपरा को निभाना कठिन। आज की भाजपा को यह तय करना है कि वह अटल को केवल एक गौरवशाली अतीत के रूप में देखेगी या एक जीवंत राजनीतिक मूल्य के रूप में। क्योंकि अटल केवल इतिहास नहीं हैं वे एक मापदंड हैं और राजनीति में मापदंड वही होते हैं, जो समय-समय पर हमें यह याद दिलाते हैं कि सत्ता कहां तक उचित है और कहाँ से सावधानी आवश्यक हो जाती है।
अटल बिहारी वाजपेयी की जन्मशताब्दी पर यही सबसे सार्थक श्रद्धांजलि होगी कि उनकी राजनीति को स्मारक में नहीं, सार्वजनिक जीवन में खोजा जाए। उनकी भाषा, उनका संयम और उनका लोकतांत्रिक विश्वास—यही वह आईना है, जिसमें आज की भाजपा को खुद को देखना चाहिए। बाकी निष्कर्ष जनता निकालने में सक्षम है।

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