-सुभाष मिश्र
हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम ने देश की राजनीति में एक नई बहस को जन्म दिया है। क्या भारत में चुनावी प्रक्रिया अब भी उतनी ही निष्पक्ष और पारदर्शी है, जितनी लोकतंत्र के लिए आवश्यक है? कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और चुनाव आयोग पर वोटचोरी का गंभीर आरोप लगाकर इस बहस को राष्ट्रीय विमर्श में बदल दिया है। उन्होंने कहा कि हरियाणा में 25 लाख से अधिक वोटर या तो डुप्लीकेट हैं, अस्तित्व में नहीं हैं या फर्जी नामों से वोट डलवाए गए। राहुल गांधी के अनुसार, कांग्रेस की जीत को हार में बदलने की साजिश रची गई है।
उन्होंने अपने आरोपों को एच फाइल्स नामक दस्तावेज़ों के हवाले से प्रस्तुत करते हुए कहा कि चुनाव आयोग के पास डुप्लीकेट वोटर पहचानने का सॉफ्टवेयर मौजूद है, परंतु उसे जानबूझकर इस्तेमाल नहीं किया गया। राहुल का आरोप था कि भाजपा और चुनाव आयोग दोनों ही सिस्टमेटिक हेराफेरी के जरिये लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं। उनके इस दावे ने राजनीति में झंझावात खड़ा कर दिया क्योंकि उन्होंने न केवल तकनीकी लापरवाही, बल्कि संस्थागत साठगांठ की ओर भी इशारा किया।
राहुल गांधी का यह आरोप कि एक ब्राजीलियन मॉडल ने दस अलग-अलग बूथों पर 22 बार वोट डाले, सुनने में भले ही सनसनीखेज लगे, लेकिन इससे जनता के भीतर एक सवाल और गहरा हुआ कि क्या मतदाता सूची वास्तव में विश्वसनीय है? यदि किसी मतदाता के नाम, पते या पहचान में बार-बार गड़बड़ी की जा सकती है, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति जनता का विश्वास कैसे कायम रहेगा?
हरियाणा के नतीजों और उस पर लगे वोटचोरी के आरोपों की गूंज अब बिहार तक पहुँच चुकी है, जहां 121 सीटों पर प्रथम चरण के चुनाव हो रहे हैं। बिहार में यह चर्चा सिर्फ राजनीतिक शोर नहीं, बल्कि एक गंभीर लोकतांत्रिक चिंता के रूप में देखी जा रही है। जब राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने वोटचोरी यात्रा निकाली थी, तब भी यह कहा जा रहा था कि विपक्ष चुनावी संस्थाओं की निष्पक्षता पर सवाल उठाकर जनता में एक नया नैरेटिव गढऩा चाहता है। अब हरियाणा के घटनाक्रम ने इस नैरेटिव को और बल दिया है।
प्रश्न यह है कि क्या चुनाव आयोग के पास मौजूद तकनीकी साधनों का उपयोग जानबूझकर नहीं किया जा रहा? यदि सॉफ्टवेयर डुप्लीकेट वोटरों की पहचान कर सकता है तो उसका इस्तेमाल नहोना केवल तकनीकी त्रुटि नहीं बल्कि नीतिगत शिथिलता मानी जाएगी। लोकतंत्र में पारदर्शिता की गारंटी केवल मतदान के दिन नहीं, बल्कि मतदाता सूची तैयार करने और उसकी जांच करने के दौरान सुनिश्चित होती है। यदि उसी चरण में लापरवाही हो तो परिणाम चाहे किसी भी दल के पक्ष में आएं, उन पर संदेह की छाया बनी रहती है।
एक ही पते पर सौ से अधिक मतदाताओं का दर्ज होना बिहार के कई क्षेत्रों में चर्चा का विषय है। ऐसे अस्वाभाविक आंकड़े न केवल सूची निर्माण की गंभीर खामियों को उजागर करते हैं, बल्कि इस बात का संकेत भी हैं कि वोटर वेरिफिकेशन प्रक्रिया कितनी कमजोर हो चुकी है। यदि शिकायतें दर्ज होने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं होती, तो यह प्रशासनिक निष्क्रियता नहीं बल्कि लोकतांत्रिक कर्तव्य की उपेक्षा कही जाएगी।
चुनाव आयोग को इस बात पर स्पष्ट करना चाहिए कि जब डुप्लीकेट पहचान निकालने का सॉफ्टवेयर उपलब्ध है, तब उसका प्रयोग क्यों नहीं किया जा रहा। क्या यह चुनावी दबाव, तकनीकी अड़चन, या फिर किसी अदृश्य राजनीतिक प्रभाव का परिणाम है? जनता को यह जानने का अधिकार है कि चुनावी निष्पक्षता सुनिश्चित करने वाले उपकरण निष्क्रिय क्यों पड़े हैं।
हरियाणा में कांग्रेस की हार और उसके बाद लगे आरोपों का मनोवैज्ञानिक असर बिहार के चुनावी वातावरण पर पडऩा तय है। भाजपा जहां विकास, स्थिरता और मोदी नेतृत्व के नाम पर मैदान में है, वहीं कांग्रेस और राजद का गठबंधन इस बार संविधान की रक्षा और लोकतंत्र की पारदर्शिता जैसे विमर्शों को केंद्र में लाने की कोशिश कर रहा है। राहुल गांधी के आरोपों ने विपक्ष को एक नया भावनात्मक हथियार दिया है — मतदाता को यह महसूस कराने का कि उसका वोट असुरक्षित है और सत्ता पक्ष संस्थागत तंत्रों के जरिये परिणाम प्रभावित कर रहा है।
हालांकि, यह भी सच है कि यदि इन आरोपों के ठोस प्रमाण सामने नहीं आते, तो यह पूरी रणनीति उलटी भी पड़ सकती है। जनता के मन में यह भावना बन सकती है कि विपक्ष अपनी हार के लिए पहले से बहाना तैयार कर रहा है। इसलिए यह अनिवार्य है कि कांग्रेस और विपक्ष तथ्यों के साथ अपने आरोपों को प्रमाणित करें, न कि केवल जनभावना पर निर्भर रहे।
इस पूरी बहस के केंद्र में एक ही सवाल है—क्या भारत की चुनावी प्रक्रिया अब भी जनता के भरोसे के योग्य है? दशकों तक भारतीय चुनाव आयोग को दुनिया के सबसे विश्वसनीय संस्थानों में गिना गया। परंतु पिछले कुछ वर्षों में हर बड़े चुनाव के बाद आरोपों और संशयों का सिलसिला बढ़ा है। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से लेकर मतदाता सूची तक, सब पर राजनीति का साया दिखाई देता है।
लोकतंत्र की मजबूती तभी बनी रह सकती है जब जनता को यह भरोसा हो कि उसका वोट उसी के नाम से गिना जाएगा और किसी राजनीतिक दल या तकनीकी हेरफेर से उसकी मान्यता नहीं बदलेगी। अगर सॉफ्टवेयर, डेटा या डिजिटल पारदर्शिता के औज़ार मौजूद हैं, तो उनका निष्पक्ष उपयोग ही इस भरोसे को बचा सकता है।
हरियाणा के बहाने शुरू हुआ यह वोट चोरी विमर्श बिहार के पहले चरण के चुनाव तक पहुँच चुका है और इसने राजनीति से कहीं आगे जाकर लोकतंत्र के तंत्र पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। एक ओर विपक्ष आरोपों के माध्यम से जनभावना को जगा रहा है, दूसरी ओर सत्ता पक्ष इन आरोपों को हार का बहाना बता रहा है। लेकिन सच्चाई इन दोनों के बीच है-सच्चाई वही है जो जांच और पारदर्शिता से सामने आए।
यदि वाकई डुप्लीकेट वोटर, गलत पते या सॉफ्टवेयर के दुरुपयोग के मामले हैं, तो उन पर तत्काल कार्रवाई होनी चाहिए और यदि नहीं हैं, तो चुनाव आयोग को अपने आँकड़ों और प्रक्रियाओं के माध्यम से जनता के सामने यह साबित करना होगा कि लोकतंत्र की जड़ें अब भी उतनी ही मजबूत हैं जितनी आज़ादी के समय थीं।
क्योंकि अंतत: सवाल केवल चुनाव का नहीं है सवाल उस विश्वास का है, जो हर मतदाता ईवीएम का बटन दबाते हुए रखता है कि उसका वोट गिना जाएगा, बदला नहीं जाएगा। वही विश्वास आज भारतीय लोकतंत्र की असली परीक्षा है।