भारत में लोकतंत्र की नींव न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आधारित है, जो सत्ता, धर्म, राजनीति और समाज के बीच संतुलन बनाए रखती है। जब इस स्वतंत्रता पर हमला होता है, तो यह न केवल एक व्यक्ति, बल्कि पूरे संविधान और लोकतंत्र पर प्रहार है।
हाल ही में, मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) बी.आर. गवई पर एक वकील द्वारा हमला किया गया, जिसने खुद को ‘सनातनी बताते हुए न्यायालय के कुछ फैसलों को हिन्दू अस्मिता के खिलाफ बताया। यह घटना न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर बढ़ते खतरे को दर्शाती है, जहां धार्मिक उन्माद और असहिष्णुता के कारण संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव बढ़ रहा है।
इस हमले की पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट की वह टिप्पणी रही, जिसमें खजुराहो मंदिर की विष्णु प्रतिमा को लेकर दायर जनहित याचिका को अस्वीकार करते हुए न्यायालय ने कुछ मौखिक टिप्पणियाँ की थीं। इन टिप्पणियों को विकृत रूप में सोशल मीडिया पर फैलाया गया, जिससे मुख्य न्यायाधीश पर व्यक्तिगत हमले शुरू हुए। इन हमलों पर भाजपा या उसके शीर्ष नेताओं की ओर से कोई फौरी प्रतिक्रिया नहीं आई, जिससे यह हिंसक प्रतिक्रिया वैचारिक रूप से प्रोत्साहित हुई।
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (एआईपीएफ) ने इस हमले को ‘भा.ज.पा. की धार्मिक, सांप्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति का सीधा परिणामÓ बताया है। उनके अनुसार, जब सत्तारूढ़ दल समाज में धार्मिक विभाजन को वैचारिक औजार बनाता है और अपने समर्थकों को ‘सुरक्षा कवच देता है, तो वही मानसिकता अदालत जैसी संस्थाओं तक पहुँच जाती है। यह हमला उस मानसिक असंतुलन का परिणाम है, जहाँ राजनीतिक ताक़तें न्यायपालिका पर दबाव बनाने की कोशिश में अपने समर्थकों को हिंसा के रास्ते पर धकेल देती हैं।
यह पहली बार नहीं है जब धर्म की आड़ में न्यायपालिका को निशाना बनाया गया हो। कभी राम जन्मभूमि, कभी सबरीमाला, कभी हिजाब विवाद—हर मामले में अदालत के फ़ैसलों को ‘धर्म विरोधीÓ या ‘धर्म विशेष के पक्ष में बताकर जनता के बीच विभाजन पैदा किया गया। न्यायपालिका की आलोचना, असहमति या पुनर्विचार की प्रक्रिया लोकतंत्र का हिस्सा है—परंतु हिंसा का रास्ता लोकतंत्र का अंत है।
मुख्य न्यायाधीश गवई स्वयं एक दलित न्यायाधीश हैं, जो महाराष्ट्र की न्यायिक परंपरा से आए हैं और उच्चतम न्यायालय में अब तक कई प्रगतिशील फ़ैसलों में शामिल रहे हैं। उन पर हमला केवल धार्मिक भावना के नाम पर नहीं, बल्कि उस न्यायिक स्वतंत्रता के प्रतीक पर है जो सामाजिक न्याय और समानता के लिए संघर्ष करती रही है।
आज सोशल मीडिया एक ‘अघोषित अदालत बन चुका है, जहाँ हर फैसला भावनाओं, ट्रोलिंग और ग़लत सूचनाओं के आधार पर होता है। वहीं न्यायपालिका तथ्यों, तर्क और संवैधानिक मर्यादाओं पर खड़ी है। यह टकराव अब वास्तविक हिंसा में बदल रहा है। जिस वकील ने सीजेआई पर हमला किया, वह भी उसी सोशल मीडिया विमर्श का उत्पाद है—जहाँ हर असहमति ‘धर्मद्रोहÓ और हर आलोचना ‘अस्मिता पर हमला कहलाने लगी है।
सरकार को चाहिए कि इस घटना की निष्पक्ष जांच कर दोषी को कड़ी सज़ा दे, ताकि यह संदेश जाए कि ‘कानून से बड़ा कोई धर्म नहीं। साथ ही, राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि सोशल मीडिया पर धर्म आधारित नफऱत की फसल एक दिन लोकतंत्र को ही निगल जाएगी। वकील समुदाय को भी आत्ममंथन करना होगा—क्योंकि जो व्यक्ति न्याय का संरक्षक कहलाता है, वही यदि हिंसा का प्रतीक बन जाए, तो न्यायपालिका की पवित्रता खो जाएगी। न्याय के मंदिर पर हमला केवल एक व्यक्ति को नहीं घायल करता, यह पूरे देश के विवेक को घायल करता है। सनातन की चोट नहीं, यह संविधान की चेतावनी है—कि अगर हमने विचार और असहमति के अधिकार की रक्षा नहीं की, तो अगली बार चोट सिफऱ् अदालत पर नहीं, लोकतंत्र की आत्मा पर होगी।
सनातनी मानसिकता की चोट, सुप्रीम कोर्ट घायल

08
Oct