इस देश में आस्था कभी मंदिर के दरवाज़े पर सिर झुकवाती है, कभी चुनावी मंच पर नेता की झलक दिखाने के लिए भीड़ को पसीना बहवाती है। लोग देवता हों या अभिनेता, बाबाओं के प्रवचन हों या नेताओं की रैलियाँ—भीड़ हमेशा सम्मोहन में खिंचती चली आती है। और जब यह सम्मोहन सुरक्षा की दीवार तोड़ता है, तो आस्था और आकर्षण का यह उत्सव अक्सर मौत का मेला बन जाता है। सवाल यह है कि आखिर कितनी बार जनता अपनी जान देकर नेताओं और देवताओं की भूख पूरी करेगी?
तमिलनाडु के करूर जिले में 27 सितंबर 2025 को हुआ हादसा इसका ताज़ा उदाहरण है। लोकप्रिय अभिनेता और हाल ही में राजनीति में आए थलापति विजय की पार्टी तमिलागा वेट्ट्री कझागम (टीवीके) की रैली में उमड़ी भीड़ ने 41 लोगों की जान ले ली। मृतकों में 18 महिलाएँ, 13 पुरुष, पाँच लड़कियाँ और पाँच लड़के शामिल हैं। दर्जनों लोग घायल हैं, कई परिवार उजड़ गए हैं। अनुमति तीस हज़ार की थी, लेकिन भीड़ पचास-साठ हज़ार तक पहुँच गई। धूप, प्यास, इंतज़ार, और अव्यवस्था ने मिलकर भीड़ को बेकाबू कर दिया। परिणाम—तमिलनाडु के राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी।
लेकिन करूर कोई अपवाद नहीं है। भारत का इतिहास ऐसे हादसों से भरा पड़ा है, जहाँ अंधभक्ति, आकर्षण और लापरवाही ने मिलकर निर्दोष लोगों की जान ली। 1954 का कुंभ मेला हादसा याद कीजिए, जब इलाहाबाद (प्रयागराज) में भीड़ नियंत्रण विफल रहा और करीब 800 लोगों की मौत हो गई। 2013 में मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के दतिया में रतनगढ़ मंदिर की सीढिय़ों पर भगदड़ मच गई थी, जिसमें 115 लोग कुचलकर मारे गए। महाराष्ट्र के नासिक कुंभ मेले 2003 में भगदड़ ने 39 श्रद्धालुओं की जान ली।
राजनीतिक मंच भी कम खतरनाक नहीं साबित हुए। 2016 में जयललिता की रैली के दौरान सालेम में कार्यकर्ता गर्मी और भीड़ के कारण अचेत होकर गिरे और दो की मौत हो गई। 2005 में रायपुर में एक चुनावी रैली में बारिश और भगदड़ से कई लोग घायल हुए थे। आंध्रप्रदेश के राजमुंदरी में 2015 में पुष्कर स्नान के दौरान भगदड़ में 27 श्रद्धालु मारे गए थे। 2011 में केरल के सबरीमाला मंदिर में मकरज्योति दर्शन के बाद वापस लौट रही भीड़ में भगदड़ से 102 श्रद्धालु मारे गए। इन घटनाओं में पैटर्न एक ही है—आकर्षण और आस्था से उमड़ी भीड़, प्रशासन की लापरवाही और नेताओं/धर्मगुरुओं की संवेदनहीनता। हर हादसे के बाद सरकारें बयान देती हैं, मुआवज़ा घोषित करती हैं, जाँच आयोग बैठता है, और फिर मामला धीरे-धीरे फाइलों में दब जाता है। सबक लेने की बजाय अगला आयोजन और भी बड़े पैमाने पर किया जाता है, और फिर वही त्रासदी दोहराई जाती है।
करूर हादसे के बाद भी यही हो रहा है। विजय ने मृतकों के परिवारों के लिए 20-20 लाख रुपये मुआवज़े की घोषणा की। सरकार ने भी सहायता और नई गाइडलाइंस का वादा किया। लेकिन सवाल है कि 2020 में जारी हुई क्राउड मैनेजमेंट गाइडलाइंस का पालन आज तक क्यों नहीं हुआ? क्या सिर्फ कागज़ पर गाइडलाइंस बनाना ही प्रशासन की जिम्मेदारी है?
जरूरी यह है कि देश में राष्ट्रीय स्तर की भीड़ प्रबंधन नीति बने। हर आयोजन स्थल की अधिकतम क्षमता तय हो और उससे ज़्यादा भीड़ आने पर प्रवेश रोका जाए। डिजिटल टिकटिंग और गेट पास व्यवस्था लागू की जाए ताकि संख्या नियंत्रित रहे। 1:50 अनुपात में पुलिस बल की तैनाती अनिवार्य हो। हर आयोजन में मेडिकल यूनिट, निकासी मार्ग, आपातकालीन वाहन और ड्रोन निगरानी मौजूद हो। आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों की जवाबदेही कानूनी रूप से तय हो—अगर लापरवाही से मौतें होती हैं तो जेल और जुर्माने का प्रावधान हो।
यह भीड़भाड़, यह सम्मोहन, यह अंधभक्ति तब तक मौत का मेला बनता रहेगा, जब तक आस्था और राजनीति से ऊपर उठकर सुरक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जाती। लोकतंत्र में जनता सिर्फ वोट बैंक नहीं है, उनकी जान की कीमत है। लेकिन अफसोस, बार-बार साबित हो रहा है कि यहाँ वोट जीतना आसान है, मगर जान बचाना मुश्किल। करूर हादसा इस देश के लिए चेतावनी है—या तो अब भीड़ प्रबंधन को गंभीरता से लिया जाए, या फिर अगले हादसे का इंतज़ार कीजिए। फर्क सिर्फ इतना होगा कि तारीख और जगह बदल जाएगी, लेकिन मौत का चेहरा वही रहेगा।
आस्था का सम्मोहन और मौत का मेला

01
Oct