छत्तीसगढ़ में कृषि में नवीन तकनीकों का समावेश

छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है क्योंकि यहां की 80 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है और लगभग 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र धान की खेती में उपयोग होता है। राज्य की कुल कृषि योग्य भूमि करीब 46 लाख हेक्टेयर है, लेकिन लंबे समय तक यहां खेती परंपरागत तरीकों से होती रही। छोटे और सीमांत किसान, जिनकी संख्या राज्य में 37 लाख से अधिक है, श्रम और मौसम पर निर्भर रहते थे। यही कारण रहा कि किसान की मेहनत के अनुपात में उसकी आय बहुत कम रही।
आज जब जलवायु परिवर्तन, श्रमिक पलायन और लागत वृद्धि जैसी चुनौतियां सामने हैं, तब नवीन तकनीकें किसानों के लिए संजीवनी बनकर उभर रही हैं। बालोद जिले में पैडी ट्रांसप्लांटर मशीन का उपयोग इसका ताजा उदाहरण है। एक ट्रांसप्लांटर मशीन एक दिन में लगभग 2 एकड़ से अधिक खेत में रोपाई कर सकती है, जबकि पारंपरिक तरीके से इतनी ही रोपाई के लिए 20 से 25 मजदूरों की जरूरत पड़ती थी। इस बदलाव से न केवल मजदूरी लागत आधी हो रही है बल्कि समय की बचत भी किसानों के पक्ष में है।
इसी तरह, ड्रोन तकनीक का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। कृषि विभाग के अनुसार राज्य में 2024 तक लगभग 400 ड्रोन किसानों और सहकारी समितियों को उपलब्ध कराए गए हैं। ड्रोन से कीटनाशक और उर्वरक का छिड़काव मात्र 15-20 मिनट में एक हेक्टेयर खेत पर संभव है, जबकि पहले इसके लिए कई घंटे लगते थे। इससे न केवल रसायनों की बचत होती है, बल्कि किसानों की सेहत भी सुरक्षित रहती है।
छत्तीसगढ़ सरकार ने ‘मुख्यमंत्री कृषि ड्रोन योजना शुरू की है, जिसके तहत किसानों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है और मशीनें अनुदान पर उपलब्ध कराई जा रही हैं। इसका उद्देश्य है कि छोटे किसान भी इस क्रांति से जुड़े। अगर 10 प्रतिशत किसानों ने भी ड्रोन आधारित खेती शुरू कर दी, तो राज्य की उत्पादकता में 15-20 प्रतिशत तक वृद्धि संभव है।
कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले वर्षों में स्मार्ट सिंचाई तकनीक, सेंसर आधारित निगरानी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जुड़े प्रयोग छत्तीसगढ़ में भी तेजी से बढ़ेंगे। यह केवल खेती को आधुनिक नहीं बनाएंगे, बल्कि किसानों को बाजार से जोडऩे और उनकी आय दोगुनी करने के लक्ष्य को भी गति देंगे।
छत्तीसगढ़ के किसान अब यह समझ रहे हैं कि तकनीक खेती का बोझ नहीं बढ़ाती, बल्कि उसे सरल, सटीक और लाभकारी बनाती है। राज्य का यह प्रयोग बताता है कि जब परंपरा और तकनीक साथ चलें तो खेती को स्थायी और आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *