ध्रुव शुक्ल
हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि-कथाकार श्री विनोद कुमार शुक्ल को उनके उपन्यास —–‘ दीवार में एक खिड़की रहती थी’ —- की रायल्टी में मिली बड़ी राशि पर अपमानजनक बकबक सुनकर मुझे शर्म आ रही है। बकबक करने वालों में ज़्यादातर की हैसियत लेखक होने की भी नहीं है। जिनकी कुछ हैसियत भी है, वे आधुनिक अर्थशास्त्रवाद के धुंधलके में स्थापित किये गये साहित्य के उन राजनीतिक प्रतिमानों के दास बनकर अपने लेखक होने को गिरवी रखे हुए हैं जो उन्हें प्रगतिशील होने की पदवी देकर उनके साहित्यिक शील को विवादास्पद बनाये रखते हैं। लेखक बिरादरी में अपने से असहमत लेखकों के बीच अपनी जगह बनाये रखकर भी लेखकों का अपमान करना इन जनवादियों की पुरानी आदत है। ये अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिये दुश्मन के मंच का खूब इस्तेमाल करना जानते हैं। इनके कारण कृष्ण बलदेव वैद जैसे अनूठे कथाकार को साहित्य अकादेमी पुरस्कार भी न मिल सका।
श्री विनोद कुमार शुक्ल को लेकर मेरी भी कुछ यादें हैं। बीती सदी के ढलते वर्षों में चित्रकार सैयद हैदर रज़ा ने अविभाजित मध्यप्रदेश में कविता और चित्रकला के लिए पाॅंच हजार की राशि का ‘ रज़ा पुरस्कार ‘ स्थापित किया और पहला पुरस्कार श्री विनोद कुमार शुक्ल को ही मिला था। मुझे स्मरण है कि उन दिनों कवि-आलोचक मलयज का परिवार आर्थिक संकट में था तब विनोद कुमार शुक्ल ने अपने पुरस्कार की पूरी राशि मलयज जी के परिवार को चुपचाप भिजवायी। आज से करीब चालीस बरस पहले यह राशि मामूली तो नहीं थी।
संयोगवश १९९५-९६ में मुझे मध्यप्रदेश साहित्य परिषद का सचिव और ‘ साक्षात्कार ‘ पत्रिका का सम्पादक होने का अवसर मिला। श्री विनोद कुमार शुक्ल भोपाल में स्थापित निराला सृजनपीठ के अध्यक्ष के पद पर आसीन रहकर ही ‘ दीवार में एक खिड़की रहती थी ‘ लिखते रहे। यह उपन्यास सबसे पहले ‘ साक्षात्कार ‘ पत्रिका में ही क्रमश: प्रकाशित हुआ।
मुझे याद है कि श्री अशोक वाजपेयी ने ही विनोद कुमार शुक्ल के पहले कविता संग्रह —- ‘ वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया विचार की तरह ‘ —- का यह दीर्ध नामकरण किया था। उनकी और भी कई किताबों का नामकरण संस्कार अशोक वाजपेयी ने ही किया है। मुझे याद है कि उनका पहला उपन्यास’ नौकर की कमीज़ ‘ मध्यप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित मुक्तिबोध फैलोशिप के अंतर्गत लिखा गया था। मुझे यह भी स्मरण है कि जब उनका एक और उपन्यास आया तो उसका नाम वाजपेयी जी ने —– ‘ खिलेगा तो देखेंगे ‘ —- रखा। मेरा ख़याल है जब एक लेखक हमारे आसपास एक बागीचा बनकर खिला हुआ है तो हम उसकी ख़ुशबू से बचकर तो नहीं निकल सकते। उसकी वीरानियों से भी नहीं।
हिन्दी की साहित्य बिरादरी श्री विनोद कुमार शुक्ल से यह शिकायत कर सकती है कि वे हिन्दी के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी के अपने पूर्वज, अपने समकालीन आत्मज और अपने बाद की पीढ़ी के साहित्यकारों के बारे में प्रायः कुछ नही लिखा। वे कहते भी हैं पर बहुत कह नहीं पाते। वे उन गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता के बारे में भी कुछ नहीं कह पाये जिन मुक्तिबोध ने उन्हें कवि माना। अगर उनकी कविता की एक पंक्ति के सहारे कहें तो हो सकता है कि —– ‘ ”’
‘ बहुत कुछ कर सकते हैं ज़िन्दगी में का काम ‘ बहुत होने के कारण उन्होंने साहित्य के कुछ और ज़रूरी काम छोड़ दिए हों। उन्होंने उस भारतीय सभ्यता पर भी वैचारिक रूप से कभी कुछ नहीं कहा जिसकी उम्मीद एक लेखक से की जाती है।
मुझे बड़ी आत्मीयता से याद आता है कि विनोद जी के निकट रहे समकालीनों में श्री अशोक वाजपेयी, प्रभात त्रिपाठी, जितेन्द्र कुमार और कमलेश जी की कविताओं के बारे में उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा। एक बार यह बात उन्होंने कवि-कथाकार उदयन वाजपेयी से ज़रूर कही कि — ‘ मैं अशोक वाजपेयी की कविताएं सुबह उठकर प्रार्थना की तरह पढ़ता हूॅं।’ अशोक वाजपेयी ने अपने संपादन में प्रकाशित ‘ पूर्वग्रह ‘ पत्रिका का विशेषांक विनोद कुमार शुक्ल पर केंद्रित किया था।
कोई शक़ नहीं कि श्री विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी की साहित्यिक बिरादरी के बीच अपने लेखन पर सर्वाधिक पुरस्कार पाने वाले कवि-उपन्यासकार हैं। पिछले कुछ वर्षों से उन्हें अपनी किताबों पर प्रकाशकों के द्वारा समुचित रायल्टी न मिलने की शिकायत भी थी। अगर वह शिकायत बहुत बड़े पैमाने पर किसी प्रकाशक ने दूर कर दी और एक लेखक को रायल्टी के रूप में बड़ी राशि भी दे दी तो इस घटना पर व्यर्थ बकबक क्यों हो रही है? क्यों एक सयाने चतुर-सुजान साहित्यकार के मन को आहत किया जा रहा है? विनोद कुमार शुक्ल अपनी ही एक कविता में कहते हैं —– ‘ रात-दिन जागकर मेरी ज़िन्दगी दुगनी ‘। आखिर वे रचने के लिये ही रात-दिन जागे होंगे। उनका उक्ति वैचित्र्य पाठकों को आकर्षित करता है। उनका परिवेश भले सीमित है पर वे हमारे बीच एक विशिष्ट रचनाकार के रूप में मौजूद हैं।