विनोदकुमार शुक्ल को हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा दी गयी 30 लाख रुपए की रॉयल्टी को लेकर सोशल मीडिया पर हुई बहस में लेखक-प्रकाशक संबंधों को लेकर गहराई से बात नहीं हुई है। सारी चर्चा 30 लाख पर केंद्रित होकर रह गयी, जबकि लेखकीय और प्रकाशकीय नैतिकता जैसे प्रश्नों को लेकर कुछ गंभीर चर्चा की अपेक्षा थी। मूल मुद्दा कॉपीराइट कानून की दृष्टि से लेखकों के हितों का संरक्षण का है। कॉपीराइट एक प्रकार की बौद्धिक संपदा का मामला है। यह वह अधिकार है जो कोई व्यक्ति अपने सृजनात्मक कर्म द्वारा स्वयमेव अर्जित करता है और जो उसके बौद्धिक श्रम का परिणाम है। कॉपीराइट कानून का प्राथमिक कार्य किसी व्यक्ति के श्रम, प्रतिभा, कौशल या सृजन के फल को अन्य लोगों द्वारा छीने जाने से बचाना है। यह साहित्यिक संपत्ति का अधिकार है जिसके संरक्षण का दायित्व सरकार का है।
कॉपीराइट कानून के तहत किताबों की बिक्री और लेखकों के पारिश्रमिक के विवरण में पारदर्शिता सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है। फि़लहाल यह क़ानून लेखक को पूर्ण सुरक्षा नहीं देता। पुस्तकों की बिक्री और लेखक की रॉयल्टी का पारदर्शी तरीक़े से विवरण देने की कानूनी बाध्यता नहीं है। प्रकाशक इसी का फ़ायदा उठाते हैं। वे पुस्तक की मनमानी क़ीमत रखकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाने का प्रयत्न करते हैं। कोई ऐसी कोई प्रणाली विकसित नहीं की गयी है जो सुनिश्चित कर सके कि पुस्तकों को उचित मूल्य पर बाजार में बेचा जाए। याद रखना चाहिए कि पुस्तकों के कारोबार में केवल लेखक और प्रकाशक का पक्ष ही नहीं है, पाठक के पक्ष की चिंता भी की जानी चाहिए। कॉपीराइट कानून में प्रावधान किया जाना चाहिए कि पुस्तक की लागत, लेखक का पारिश्रमिक, सरकार को देय समस्त कर और प्रकाशक का मुनाफा जोड़कर उसका वास्तविक बिक्री मूल्य निर्धारित किया जाये और पारदर्शी ढंग से उसका विवरण प्रकाशक के वेबसाइट पर दिया जाना चाहिये। यह केंद्र सरकार का दायित्व है कि वह लेखक और पाठक के हितों का संरक्षण करे। इसके लिए कॉपीराइट कानून में आवश्यक संशोधन अनिवार्य है। इसके अभाव में प्रकाशकों की मनमानी और लेखक-पाठक का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा।
लेकिन मुश्किल यह है कि स्वयं केंद्र सरकार ने हाल ही में कागज और मुद्रित सामग्री पर करारोपण और डाकशुल्क बढ़ा दिया है। इससे पुस्तकों का महंगा होना और उनके वितरण की लागत बढऩा स्वाभविक है। सरकार की रुचि पुस्तक-संस्कृति को प्रोत्साहित और विकसित करने में नहीं है, बल्कि उल्टे वह उसे हतोत्साहित करने में लगी है। ऐसे में कॉपीराइट कानून में आवश्यक संशोधन की बात भी नहीं सोची जा सकती, जबकि वह आज की महती आवश्यकता है। पुस्तकों और अन्य सृजनात्मक उत्पादों की बढ़ती पायरेसी को देखते हुए यह और भी ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। हाल में हिन्दयुग्म के ही एक लेखक ने अपनी पुस्तक की पायरेटेड कॉपी बाजार में प्रचारित होने और लेखक को उससे होने वाले नुक़सान की शिकायत सोशल मीडिया पर की है। केंद्र सरकार को चाहिए कि पायरेसी को गम्भीर समस्या मान कर उचित कार्रवाई करे।
सवाल लेखक की मेहनत के उचित मूल्यांकन और उसके अधिकार का है जिसकी अवहेलना प्रकाशक और बाज़ार के खिलाड़ी निरंतर करते आ रहे हैं। यहीं प्रकाशकीय नैतिकता का का सवाल भी खड़ा होता है। यदि प्रकाशक आगे आकर लेखक के साथ अपने संबंधों का निर्वाह नैतिक आधार पर करें तो कोई विवाद ही नहीं होगा। हिन्दयुग्म ने इसका पालन स्वत: किया है और इसके लिए वह साधुवाद का पात्र है। लेकिन बरसों से लेखक का पारिश्रमिक हथियाने वाले प्रकाशकों की नैतिकता स्वत:स्वस्फूर्त होकर जागने वाली नहीं है। इसलिए कानूनी रूप से उन्हें जवाबदार बनाया जाना अत्यावश्यक है। दुर्भाग्यवश साहित्य और कलाओं के क्षेत्र से राज्यसभा में मनोनीत होने वाले विद्वानों ने कॉपीराइट और लेखकों-कलाकारों के अधिकार के मुद्दे पर कभी संसद में आवाज़ नहीं उठाई। अब समय है कि कॉपीराइट कानून में प्रकाशक द्वारा अपने प्रकाशनों में पारदर्शिता लाने को अनिवार्य किये जाने के उद्देश्य से आवश्यक प्रावधान करने के लिए ज़रूरी पहलक़दमी हो। लेखक के हितों को प्रकाशक यदि बाजार के हवाले कर देने पर आमादा है तो लेखक को कोई परेशानी नहीं है, लेकिन ज़रूरी है कि वह बाज़ार के नियमों के अनुसार चलें, चाहे वह नई वाली हिंदी का बाज़ार हो, या उस पुरानी हिंदी का जिसमें गंभीर साहित्यिक कृतियां रची गयी हैं। कॉपीराइट कानून का संरक्षण हो तो लेखक ठगा नहीं जाएगा। लुगदी साहित्य की जगह लेने जा रही नई वाली हिंदी के प्रकाशक यदि गंभीर साहित्य के प्रकाशकों को रास्ता दिखा रहे हैं तो हिंदी जगत के हित में है।
बहरहाल, हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल को दी गयी 30 लाख रुपए की रॉयल्टी ने लेखकों के बीच हंगामा तो पैदा किया ही है। सोशल मीडिया पर आमतौर पर हिन्दयुग्म की इस पहल का स्वागत हुआ है। हिन्दयुग्म के शैलेश भारतवासी ने कुछ माह पहले हिंदवी के एक साक्षात्कार में जब यह ऐलान किया था, तब उनका दावा अविश्वसनीय लगा था। लेकिन पिछले दिनों रायपुर में सम्पन्न हिन्दयुग्म उत्सव में सार्वजनिक तौर पर जब उन्होंने विनोद कुमार शुक्ल को तीस लाख रुपये का चेक दिया तो पुस्तकों की बिक्री और लेखक के पारिश्रमिक के मामले में उनकी पारदर्शिता से हिंदी प्रकाशन जगत में एक नई मिसाल तो कायम हुई ही, दीगर प्रकाशक स्वयमेव एक नैतिक कटघरे में खड़े हो गये। ज़ाहिर है, हिंदी के छोटे-बड़े सभी प्रकाशकों के सामने लेखकों की रॉयल्टी हड़पने का आरोप सिद्ध होता है। उनकी ईमानदारी संदिग्ध है। यह तथ्य प्रमाणित हुआ है कि हिंदी में किताबें बिकती हैं लेकिन लेखक को उचित मेहनताना नहीं मिलता।
अपनी पुस्तकों को प्रकाशित करने के लिए याचक भाव से प्रकाशक के सामने खड़ा होने या धनराशि देकर पुस्तक छपवाने वाले लेखक हतप्रभ हैं लेकिन सोशल मीडिया पर किसी भी लेखक ने विनोदकुमार शुक्ल को दिए गए पारिश्रमिक को लेकर विरोध नहीं किया है जैसा कि कुछ लोग प्रचारित कर रहे हैं। प्रकाशक की नीयत और विनोदजी को अपनी ब्रांडिंग के लिए इस्तेमाल करने के प्रयत्न और सार्वजनिक तौर पर शोर-शराबे के साथ उन्हें चेक सौंपे जाने को लेकर कुछ लोगों ने उचित ही आपत्ति की है।
लेखक के पारिश्रमिक को लेकर हुए इस शोर-शराबे में लेखक-प्रकाशक सम्बन्धों की मौजूदा स्थिति पर विचार करें कुल मिलाकर यही लगता है कि प्रकाशक अभी भी लेखक के ऊपर भारी है। लेखक का पारिश्रमिक न देने या नगण्य राशि देने वाले प्रकाशक लेखक को ठगते हैं। लेखक को रॉयल्टी वे प्राय: इस अंदाज़ में देते हैं मानो यह उनका अधिकार नहीं, प्रकाशक की मेहरबानी है। तभी तो रॉयल्टी मांगने की बजाय कुछ लेखक पुस्तक छपवाने के लिए प्रकाशक को पैसे देते हैं और छप जाने पर धन्य होते हैं। लेखक यदि जागरूक होकर रॉयल्टी की माँग करे तो प्रकाशक रोना रोने लगते हैं।
ज़ाहिर है, लेखक और प्रकाशक के बीच में केवल अनुबन्ध होता है जो प्रकाशक अपने पक्ष में स्वयं तैयार करता है और प्रकाशक उस पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य होता है। पुस्तकों के बाज़ार पर लेखक का नहीं, प्रकाशक का नियंत्रण है। इसलिए अचरज नहीं कि वह लेखक के अधिकारों को भी चालाकी से हस्तगत कर ले। यह हिंदी प्रकाशन जगत की सच्चाई है। ऐसी स्थिति में हिन्दयुग्म की पारदर्शिता इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि उन्होंने विनोदकुमार शुक्ल की पुस्तकों की छह माह की बिक्री और पारिश्रमिक कस सार्वजनिक ब्यौरा प्रस्तुत किया। अन्य प्रकाशक ऐसा नहीं करते तो आवश्यक है कि कॉपीराइट कानून में संशोधन के ज़रिए सरकार उन्हें बाध्य करें।
पारदर्शिता लाने कॉपीराइट कानून में प्रावधान हो

25
Sep