कौन सा रास्ता अपनायेंगे नक्सलवादी

भारत में नक्सलवाद आधी सदी से अधिक समय से आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौतियों में गिना जाता रहा है। आदिवासी असंतोष, गरीबी, शोषण और विकास से उपेक्षा के मुद्दों पर पनपा यह आंदोलन अब अपने निर्णायक मोड़ पर खड़ा दिखाई देता है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बीते साल ही घोषणा की थी कि मार्च 2026 तक देश से नक्सलवाद का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा। अब उसी डेडलाइन से छह महीने पहले माओवादी संगठन सीपीआई की ओर से युद्धविराम और शांति वार्ता के प्रस्ताव ने नए सवाल खड़े कर दिए हैं—क्या वाकई नक्सली हार मान चुके हैं या यह उनकी कोई नई रणनीति है?
पिछले कुछ वर्षों में सुरक्षा बलों ने नक्सल प्रभावित इलाकों में बड़े स्तर पर अभियान चलाए हैं। ‘ऑपरेशन कगारÓ जैसे अभियानों में छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र और ओडिशा के जंगलों में नक्सलियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। आंकड़े बताते हैं कि केवल पिछले एक साल में 280 से ज्यादा नक्सली मारे गए हैं जो कुल हताहतों का लगभग 80 प्रतिशत है। महासचिव नंबाला केशवराव उर्फ बसवराजु, केंद्रीय समिति के सदस्य मोडेम बालकृष्ण और सुधाकर जैसे शीर्ष नेताओं के मारे जाने या आत्मसमर्पण से संगठन की रीढ़ टूट चुकी है। कभी 42 सदस्यीय रही केंद्रीय समिति अब घटकर महज 13 पर सिमट गई है। बचे हुए लगभग 1200 सक्रिय माओवादियों में से हथियारबंद कैडर सिर्फ 400 बताए जाते हैं। साफ है कि सुरक्षा बलों की रणनीति ने माओवादी ढांचे को बुरी तरह हिला दिया है।
इसी परिप्रेक्ष्य में नक्सली प्रवक्ता अभय के नाम से जारी बयान में एक महीने का युद्धविराम और शांति वार्ता की इच्छा जाहिर की गई। इस विज्ञप्ति में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के लिए आदरसूचक शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो माओवादी साहित्य की परंपरागत शैली से बिल्कुल अलग है। इसी कारण सुरक्षा एजेंसियां इसकी प्रामाणिकता पर सवाल उठा रही हैं। पत्र की तारीख 15 अगस्त बताई गई, लेकिन यह सार्वजनिक रूप से एक महीने बाद सामने आया और उस दौरान भी छत्तीसगढ़ में ग्रामीणों और शिक्षकों की हत्या जैसी घटनाएं होती रहीं। ऐसे में सवाल यह है कि यदि नक्सली वाकई शांति चाहते थे तो हिंसा क्यों जारी रही?
दिलचस्प यह है कि हाल के पर्चों में नक्सली संगठन ने पहली बार अपने हिंसक इतिहास को ‘गलतीÓ मानते हुए जनता से माफी मांगी है। एक चिट्ठी में लिखा गया है कि बसवराजु सहित सैकड़ों कार्यकर्ता और स्थानीय लोग मारे गए, आंदोलन को भारी क्षति हुई और उनकी नीतियां परिस्थितियों के अनुरूप नहीं थीं। पर्चे में यह भी कहा गया है कि अब वे जनता के बीच जाकर समस्याओं पर काम करेंगे, वनों और संसाधनों की रक्षा करेंगे और अंतरराष्ट्रीय क्रांतिकारी ताकतों से एकजुटता बनाएंगे। सवाल यही उठता है कि क्या यह बदलाव सच्चा आत्ममंथन है या महज संगठन को बचाए रखने की एक रणनीतिक चाल?
विशेषज्ञ मानते हैं कि बसवराजु के मारे जाने के बाद संगठन में नेतृत्व संघर्ष बढ़ा है। सोनू को राजनीतिक चेहरा माना जाता है, जबकि तिप्पिरी तिरुपति उर्फ देवुजी सैन्य चेहरा है। माना जा रहा है कि सोनू की लाइन कुछ समय के लिए हथियार डालकर जनआंदोलनों पर जोर देने की है लेकिन संगठन का एक धड़ा इसका विरोध कर रहा है। यही मतभेद शायद युद्धविराम की पेशकश का असली कारण हो।
छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री विजय शर्मा ने इस संदर्भ में महत्वपूर्ण बातें कही हैं। उनका कहना है कि नक्सलियों का युद्धविराम पत्र जांच के दायरे में है, क्योंकि इसमें प्रयुक्त भाषा और शब्दावली असामान्य है। यदि यह प्रस्ताव वास्तविक है और नक्सली सचमुच हथियार डालना चाहते हैं तो सरकार सकारात्मक निर्णय ले सकती है, लेकिन सुरक्षा बलों की कार्रवाई रुकेगी नहीं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि शांति वार्ता तभी संभव है जब हिंसा का रास्ता छोड़ा जाए और कोई पूर्व शर्त न हो। पत्र की प्रामाणिकता की जांच के बाद ही आगे की दिशा तय की जाएगी।
यह स्थिति हमें अतीत की याद भी दिलाती है। आंध्र प्रदेश में एक दशक पहले नक्सलियों ने इसी तरह का युद्धविराम घोषित किया था। तब बातचीत के बहाने उन्होंने खुद को पुनर्गठित किया और बाद में सुरक्षाबलों पर और बड़े हमले किए। इस इतिहास को देखते हुए एजेंसियां इस बार भी बेहद सतर्क हैं।
आज सरकार के सामने कई विकल्प हैं। वह चाहे तो बिना किसी बातचीत के अभियान जारी रखकर संगठन को पूरी तरह खत्म कर सकती है। दूसरा रास्ता है कि अपनी शर्तों पर वार्ता करे—गंभीर अपराधियों को सजा दिलाते हुए बाकी को पुनर्वास नीति के तहत मुख्यधारा में शामिल किया जाए। तीसरा विकल्प यह भी हो सकता है कि राजनीतिक लाभ के लिए इस प्रस्ताव को सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाए ताकि यह संदेश जाए कि सरकार ने हथियार डालने वाले नक्सलियों को लोकतांत्रिक व्यवस्था में जगह दी। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय का कहना है कि इस वर्ष अब तक 1700 से ज्यादा नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। सरकार की नई पुनर्वास नीति और नियद नेल्लानार जैसी योजनाओं से आदिवासियों में भरोसा जगा है।
फिर भी सवाल यह है कि क्या नक्सलवाद अब खत्म हो जाएगा? 1967 में नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन कई बार कमजोर पड़ा और खत्म मान लिया गया, लेकिन फिर नए रूप में उभरता रहा। छोटे-छोटे 17 अन्य माओवादी समूह अब भी सक्रिय हैं। वरिष्ठ पत्रकार नरेश मिश्रा का कहना है कि माओवादी गांवों में सरकार पर पूर्ण भरोसा कायम होने में वक्त लगेगा। जब तक यह भरोसा नहीं बनेगा, नक्सलवाद की संभावना पूरी तरह खत्म नहीं कही जा सकती।
आज नक्सलवाद एक दोराहे पर खड़ा है। एक ओर सरकार का कड़ा रुख, लगातार सफल अभियान और विकास योजनाओं से जुड़ता आदिवासी समाज है। दूसरी ओर टूटते-बिखरते माओवादी संगठन के भीतर यह असमंजस है कि क्या हथियार डालकर मुख्यधारा में लौटा जाए या फिर किसी नई रणनीति से आंदोलन को बचाया जाए। सरकार का रुख साफ है—बात तभी होगी जब हिंसा पूरी तरह खत्म हो और कोई पूर्व शर्त न हो। नक्सली संगठन के पास अब विकल्प सीमित हैं। यदि वे सचमुच आत्मालोचना कर चुके हैं और जनता से माफी मांगकर लोकतांत्रिक राजनीति का हिस्सा बनना चाहते हैं तो यह उनके आंदोलन का सबसे बड़ा मोड़ होगा। लेकिन अगर यह महज रणनीतिक चाल है तो सुरक्षा बल भी अब पहले से कहीं ज्यादा तैयार हैं। इतिहास ने बार-बार दिखाया है कि हिंसक विचारधारा का अंत निश्चित है। सवाल यही है कि नक्सलवादी किस रास्ते को चुनते हैं—मुख्यधारा का लोकतांत्रिक मार्ग या फिर अंतहीन हिंसा की बंद गली।

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