लोकतांत्रिक प्रतिरोध को दबाना खतरनाक

देश में जब आपातकाल लगा तब आलोचना के सभी माध्यमों पर प्रतिबंध लगाते हुए प्रतिरोध करने वालों को जेल में डाला गया। सभी जगह ठकुर सुहाती अच्छी लगने लगी। आपातकाल अनुशासन पर्व में तब्दील हो गया। ऐसे समय सुप्रसिद्ध शायर दुष्यंत कुमार ने प्रतीकों के माध्यम से बहुत सारी बातें कहीं। उनकी एक मशहूर शेर है-
ये मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
ऐसी ही बात इस समय तेलांगाना हाईकोर्ट को कहनी पड़ रही है। केवल आलोचना एफआईआर का आधार नहीं हो सकती। राजनीतिक भाषण लोकतंत्र की आत्मा है और उन्हें अपराध मानना संविधान का उल्लंघन है। हिंसा नफरत या सार्वजनिक व्यवस्था बिगाडऩे का खतरा हो तो ही कार्यवाही होनी चाहिए।
क्या वजह है कि सत्ता का आचरण हमेशा एक सा होता है। सत्ता को आलोचना से डर लगता है। विपक्ष में रहकर जिस बात, प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं, सत्ता में आते ही वैसा ही कुछ करने लगते है। अब आलोचना करने, नरेटिव सेट करने या किसी की छवि बनाने बिगाडऩे के लिए सबसे आसान और बड़ा माध्यम है सोशल मीडिया। जब बड़े-बड़े मीडिया समूह कारपोरेट के कब्जे में चले गये तो स्वतंत्र रुप से अपनी बात कहने वाले बहुत से पत्रकारों को बाहर का रास्ता देखने को मजबूर होना पड़ा और कोई समय होता तो वे ज्यादा कुछ नहीं कर पाते किन्तु सोशल मीडिया प्लेटफार्म के जरिए वे अब भी अपनी आवाज बुलंद किये हुए हैं। आपातकाल के समय ऐसी आजादी का विकल्प नहीं था, पर आज है।
डिजिटल युग में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सोशल मीडिया के रूप में सबसे सशक्त हथियार बन चुकी है। यह हथियार सत्ता के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को तीव्रता और व्यापकता देता है। हाल ही में नेपाल में इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिला, जहाँ ज़ोन जी नामक ब्लॉगर ने सत्ता प्रतिष्ठानों और नेताओं के परिजनों की कथित भ्रष्टाचारपूर्ण गतिविधियों की आलोचना करते हुए सोशल मीडिया पर एक लहर खड़ी कर दी।
नेपाल सरकार ने इस आलोचना को लोकतांत्रिक विमर्श की तरह स्वीकार करने के बजाय दमन की रणनीति अपनाई। नतीजा यह हुआ कि आलोचना दबने के बजाय और व्यापक हो गई, जनता का आक्रोश सड़कों पर उतर आया और सरकार की साख और भी कमजोर हुई। यह घटना इस बात का सबूत है कि लोकतंत्र में आलोचना को दबाना समस्या का हल नहीं, बल्कि उसे और गहरा करना है। भारत में भी हाल के वर्षों में आलोचना और प्रतिरोध की आवाज़ों को दबाने के लिए कठोर कदमों की प्रवृत्ति सामने आई है। विपक्षी दल बार-बार आरोप लगाते रहे हैं कि केंद्र सरकार ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई), आयकर विभाग जैसी संस्थाओं का दुरुपयोग कर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निशाना बनाया है।
कई विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी, बार-बार पूछताछ और संपत्तियों की जब्ती ने विपक्ष को यह कहने का मौका दिया है कि देश में अघोषित आपातकाल जैसा माहौल है। विपक्ष का तर्क है कि प्रतिरोध की आवाज़ों को डराने-धमकाने और आलोचना को अपराध ठहराने का यह सिलसिला लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। आसपास के देशों से यदि हम अपने देश की तुलना करें तो हमें यह सोचना पड़ेगा कि पड़ोसी देशों के हालात किस तरह एक चेतावनी का काम कर रहे हैं। नेपाल में सोशल मीडिया आलोचना को दबाने से सरकार की साख गिरी और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी।

बांग्लादेश में सरकार विरोधी आवाज़ों और सोशल मीडिया पोस्ट पर कठोर कार्रवाई ने जनता और विपक्ष के बीच टकराव को गहराया।
श्रीलंका में आर्थिक संकट के समय सोशल मीडिया पर फैली आलोचना को रोकने के प्रयास असफल हुए और अंतत: जनता सड़कों पर उतर आई। इन घटनाओं से यह साफ होता है कि जब-जब सरकारें आलोचना को दुश्मनी मानकर दमन की नीति अपनाती हैं, परिणाम उलटे पड़ते हैं।
तेलंंगाना हाईकोर्ट का हलिया फैसला उस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की कोशिश है जिसमें सत्ता प्रतिष्ठान आलोचना को अपराध घोषित कर देते हैं। इस सोच में विचारणीय प्रश्न यह है कि अगर आलोचना को दबाया जाएगा, तो वह और प्रबल होकर उभरेगी। अगर विपक्ष की आवाज़ को संस्थाओं के जरिए कुचला जाएगा, तो लोकतांत्रिक असंतोष उग्र रूप लेगा। अगर सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के नाम पर स्वतंत्रता का गला घोंटा जाएगा, तो जनता में अविश्वास और आक्रोश बढ़ेगा।
तेलंगाना हाईकोर्ट का निर्णय बताता है कि आलोचना लोकतंत्र की आत्मा है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षण ही लोकतंत्र की असली ताकत है। यदि भारत इस चेतावनी को समय रहते न समझे, तो उसे भी पड़ोसी देशों जैसी अस्थिरता का सामना करना पड़ सकता है। लोकतंत्र का भविष्य इसी संतुलन पर टिका है।
अन्याय, अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना, प्रतिरोध दर्जकरना एक जिंदा व्यक्ति की पहचान है। प्रसंगवश-अवतार सिंह संधु पाश की कवितांश-
खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती बैठे-बिठाए पकड़े जाना, बुरा तो है सहमी-सी चुप में जकड़े जाना, बुरा तो है पर सबसे खतरनाक नहीं होता कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना, बुरा तो है जुगनुओं की लौ में पढऩा, बुरा तो है मुटिठयां भींचकर बस वक्त निकाल लेना, बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।

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