हाल ही में महिला शिक्षिका ने शादीशुदा प्रेमी पर यौन शोषण का आरोप लगाया था। जिस पर दिल्ली हाइकोर्ट ने फैसला सुनाते हुए इसे शोषण नहीं माना और महिला की याचिका को खारिज कर दिया। इससे पहले केरल और कर्नाटक कोर्ट ने महिला द्वारा एक व्यक्ति पर धोखे से सम्बन्ध बनाने के अलावा मंगेतर पर दुष्कर्म के लगाए गए आरोप को खारिज कर दिया। एक तरफ समाज में महिला और पुरुष के संबंधों में प्रगाढ़ता था। वहीं, वर्तमान में लिव इन रिलेशनशिप जैसे मामले बढ़े हैं। इसके साथ ही आरोप-प्रत्यारोप के मामले में भी तेजी आई है।
इस दौरान कई ऐसे मामले हैं, जिनमें कोर्ट की सोच, मौजूदा कानून, समाज में हो रहे बदलाव और झूठे मुकदमेबाजी जैसे फैसले आए हैं। ऐसे में दिल्ली, केरल और कर्नाटक उच्च न्यायालयों के निर्णय इस संदर्भ में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। पहले हम समझेंगे कि आखिर ये मामले इतनी तेजी से कैसे बढ़ रहे हैं? क्या वर्तमान में बदलता परिवेश इसका मुख्य कारण हैं ?
आदम और हौव्वा अब कोर्ट-कचहरी में
मानव सभ्यता का इतिहास देखें तो स्त्री-पुरुष संबंध उसकी बुनियादी धुरी रहे हैं। आदम और हौव्वा की कथा से लेकर मनु और इड़ा, या फिर पश्चिमी साहित्य में एडम और स्मिथ की कहानियां-हर जगह यह स्वीकार किया गया है कि मानव जीवन का सार आपसी आकर्षण, प्रेम और साथ रहने की भावना में निहित है। विवाह जैसी संस्थाएं इसी आकर्षण और जिम्मेदारी को सामाजिक स्वीकार्यता देने के लिए विकसित हुईं।
बदलते दौर में प्रेम और रिश्तों का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। विवाहेतर संबंध, लिव-इन पार्टनरशिप और आधुनिक डेटिंग कल्चर ने न केवल सामाजिक ढांचों को चुनौती दी है बल्कि न्यायालयों के सामने भी जटिल सवाल खड़े किए हैं जो रिश्ते कभी चोरी-छिपे मिलने की खुशी और आत्मीयता का एहसास कराते थे, वही रिश्ते टूटने पर थाने-कचहरी और मीडिया में बदनामी का कारण बन जाते हैं।
सोशल मीडिया, डेटिंग ऐप्स और तकनीक ने स्त्री-पुरुष संबंधों को सहज बनाने का रास्ता खोला है। महिलाएं अब घर से बाहर कामकाजी दुनिया में अपनी पहचान बना रही है, ऐसे में उनके सामने नए सामाजिक और व्यक्तिगत रिश्ते भी बनते हैं। लेकिन इन रिश्तों की नींव अक्सर भावनाओं और आत्मीयता की जगह आकर्षण, नयापन और शारीरिकता पर टिकी होती है।
समस्या तब पैदा होती है जब मोहभंग हो जाता है। कल तक जीवनसाथी समझे जाने वाले साथी पर आज शोषण, धोखे या बलात्कार जैसे गंभीर आरोप लग जाते हैं। बहुत बार यह आरोप झूठे साबित होते हैं, लेकिन तब तक आरोपी पुरुष समाज, मीडिया और परिवार की नजऱों में दोषी मान लिया जाता है। यही स्थिति न्यायालयों को मजबूर करती है कि वे केवल कानून की किताब से नहीं, बल्कि सामाजिक वास्तविकताओं को देखकर भी निर्णय दें।
पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली, केरल और कर्नाटक उच्च न्यायालयों ने ऐसे मामलों में महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने लिव-इन पार्टनर पर मनमाने ढंग से लगाए गए यौन उत्पीडऩ के आरोप पर शिकायतकर्ता महिला को 20,000 रुपये का जुर्माना भरने का आदेश दिया। केरल उच्च न्यायालय ने यह साफ किया कि शादीशुदा महिला शादी का झूठा वादा कर यौन संबंध बनाए जाने का आरोप नहीं लगा सकती। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने मंगेतर पर लगाए गए दुष्कर्म के आरोपों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि दोनों पक्ष शादी की वास्तविकताओं से परिचित थे। ये निर्णय संकेत करते हैं कि अदालतें अब भावनात्मक टूटन और वास्तविक अपराध में फर्क करने लगी हैं।
लेकिन इन कानूनी व्याख्याओं के पीछे आँकड़े भी एक गंभीर तस्वीर पेश करते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2021 में दर्ज बलात्कार मामलों में से लगभग 8.7 प्रतिशत मामले झूठे पाए गए। हैरानी की बात यह है कि 2017 से 2021 के बीच ऐसे झूठे मामलों में लगभग 55 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। यह आँकड़ा यह बताता है कि समाज में रिश्तों के बिगडऩे के बाद बदले की भावना से पुलिस और अदालतों का दरवाज़ा खटखटाना अब एक चलन बनता जा रहा है।
दूसरी तरफ, वास्तविक पीडि़तों के लिए भी न्याय पाना आसान नहीं है। एनसीआरबी के अनुसार भारत में बलात्कार मामलों की दोषसिद्धि दर महज 27.8 प्रतिशत है। यानी हर सौ मामलों में लगभग 72 मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं, चाहे वह साक्ष्यों की कमी से हो, गवाहों के पीछे हटने से या लंबी न्यायिक प्रक्रिया के कारण।
बाल यौन अपराधों से जुड़े कानून एनसीआरबी के आँकड़े भी उतने ही चौंकाने वाले हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि लगभग 43 प्रतिशत मामलों में आरोपी बरी हुए और केवल 14 प्रतिशत मामलों में दोषसिद्धि हुई। यह बताता है कि या तो आरोप कमजोर आधार पर लगाए जाते हैं, या फिर अदालत तक पहुँचते-पहुँचते साक्ष्य इतने कमजोर पड़ जाते हैं कि न्यायालय सजा नहीं दे पाते।
हालाँकि सरकार द्वारा गठित फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स ने कुछ राहत दी है। वर्ष 2023 में इन अदालतों ने यौन अपराधों से जुड़े लगभग 94 प्रतिशत मामलों का निपटान किया। लेकिन सवाल यह है कि निपटान का अर्थ केवल संख्या पूरी करना है या फिर न्याय दिलाना भी है?
इन आंकड़ों और फैसलों को देखें तो साफ होता है कि अदालतें रिश्तों की बदलती परिभाषाओं को ध्यान में रखकर संतुलन साधने की कोशिश कर रही हैंलेकिन झूठे मुकदमों की प्रवृत्ति न केवल निर्दोषों को कलंकित करती है बल्कि असली पीडि़तों के लिए भी न्याय की राह मुश्किल बना देती है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह समस्या मानवीय भावनाओं की कमजोरी से जुड़ी है। प्रेम और आकर्षण जब टूटते हैं तो गुस्सा और बदले की भावना अदालतों के दरवाजे तक खींच लाती है। मीडिया इसमें और आग लगाता है। आरोपी का नाम आते ही चैनलों की सुर्खियों में बलात्कारी या शोषक जैसे शब्द चिपका दिए जाते हैं। लेकिन जब अदालत बरी करती है तो वहीं मीडिया चुप हो जाता है। परिणामस्वरूप व्यक्ति की सामाजिक छवि स्थायी रूप से धूमिल हो जाती है।
आज के समय में आदम और हौव्वा की कहानी केवल प्रेम और निषिद्ध फल तक सीमित नहीं रह गई है बल्कि कोर्ट-कचहरी तक पहुँच चुकी है। रिश्तों की विफलता को अपराध की तरह पेश करने की प्रवृत्ति समाज और न्यायालयों दोनों के लिए नई चुनौती है। आंकड़े साफ बताते हैं कि न तो हर शिकायत सच्ची होती है और न ही हर आरोपी निर्दोष। ऐसे में अदालतों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वे भावनाओं और आरोपों से परे जाकर साक्ष्यों और सामाजिक यथार्थ के आधार पर न्याय करें।
लेकिन इसके साथ ही समाज को भी यह समझना होगा कि हर असफल रिश्ता अपराध नहीं होता। परिपक्वता, पारदर्शिता और जिम्मेदारी ही वह रास्ता है, जो रिश्तों को कोर्ट-कचहरी की दहलीज तक पहुँचने से रोक सकता है। वरना यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा—प्यार का आरंभ मुस्कुराहट से और अंत आरोप-प्रत्यारोप व अदालत की गवाही से।
आदम और हौव्वा अब कोर्ट कचहरी में

11
Sep